महान पराक्रमी वानर द्विविद.
श्रीराम और रावण के मध्य होने वाले भयंकर और अतिविनाशकारी युद्ध के परिप्रेक्ष्य में ब्रम्हाजी ने समस्त देवता, महर्षि, गरुण, गंधर्व, यक्ष, नाग, किंपुरुष, सिद्ध, विद्याधर आदि आदि समस्त दिव्योनिजों से कहा कि अब समय आ गया है, जब वह सभी लोग अपने दिव्य अंश से पृथ्वी पर रीक्ष, वानर तथा अन्य वनचरों की स्त्रियों के गर्भ से उत्पन्न हों।
ब्रम्हाजी के आदेशानुसार ही ऐसे पुत्र उत्पन्न हुए जो बलवान, इच्छानुसार रुप धारण करने में समर्थ, माया जानने वाले, शूरवीर, वायु तुल्य वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान, विष्णुतुल्य पराक्रमी, किसी से भी परास्त न होने वाले, तरह तरह के युद्ध उपायों के जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओं के समान सब प्रकार की अस्त्रविद्या के गुणों से सम्पन्न थे।
उसी क्रम में अन्यों समेत देव अश्विनीकुमारों से मैंद और द्विविद नामक अतिबलशाली वानरों का जन्म हुआ। द्विविद वानर महान पराक्रमी योद्धा थे। उन्होंने श्रीराम की सेना में रहते हुए अनवरत बिना थके हुए रावण की सेना के साथ भीषण युद्ध किया और असंख्य बलाबली राक्षसों का वध किया। राक्षस सेना को अपने पैरों नीचे कुचल कुचल कर नष्ट करते। भुजाओं में इतना बल था कि किसी भी राक्षस को हथेली बीच रखकर अनारदानों की तरह मसलकर पीस डालते। अजेय होकर रावण की सेना में द्विविद ने चारों ओर हाहाकार मचा रखा था।
उनके इस अथक परिश्रम और युद्धकौशल को देख श्रीरामजी उन्हें दीर्घायु होकर द्वापर युग तक की आयु प्रदान की। अति दीर्घायु होकर द्विविद वानर अत्यंत मदान्ध हो गया और कृष्णावतार के दौरान उन्होंने राजा पौंड्रक के अधीन रहते हुए प्राणियों को बहुत कष्ट देना शुरू किया।
राजा पौंड्रक ने श्रीकृष्ण के समान ही मोरपंख, शंख, चक्र और गदा धारण करके स्वयं को कृष्ण भगवान घोषित कर दिया था। उसके इस कृत्य के बाद जो भी उन्हें भगवान श्रीकृष्ण नहीं मानता और उनकी पूजा नहीं करता उसको राजा पौंड्रक द्विविद वानर की मदद से प्रताड़ित करवाया करते। इस प्रकार अपने बल के घमण्ड में द्विविद वानर क्रूर अत्याचारी हो गया।
श्रीकृष्ण के बढ़ते प्रभाव से सहमें राजा पौंड्रक ने द्विविद वानर को द्वारका भेजकर उसका और बलराम सहित श्रीकृष्ण का विनाश करने भेजा। बलाभिमानी किन्तु मृत्यु के पाश में बंधे द्विविद द्वारका पहुंचते ही उसका विनाश करने लगे। अपनी बलिष्ठ भुजाओं से समस्त उपवन, वाटिका और भवन उजाड़ कर नष्ट कर दिया। ऐसा करते हुए वह उस उद्यान में पहुंचे जहां शेषावतारी बलरामजी आराम कर रहे थे।
द्विविद ने कठोर वाणी में, आराम करते हुए बलराम को मल्लयुद्ध हेतु ललकारा। दोनों के बीच में भीषण युद्ध हुआ। तब क्रोधित हुए बलराम ने द्विविद वानर को अपने एक ही मुष्टिक प्रहार से यमलोक भेज दिया। बलराम के हाथों पराजित होकर द्विविद मोक्ष को प्राप्त हुए।
इस प्रकार शतायु होने का वर प्राप्त मैंद और द्विविद नामक अति विशालकाय और महापराक्रमी वानर त्रेता युग में जन्म लेकर द्वापर युग में भगवान कृष्ण के हाथों मोक्ष को प्राप्त हुए थे।
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