संस्कार और विवेक.
विवेक-बुद्धि को मैं इष्ट देव के समान पूज्य मानता हूँ। कर्म, भक्ति , ध्यान, ज्ञान, प्राप्त करने की आवश्यकता प्रतीत होती है, तो वह विवेक -बुद्धि का विकास है। किसी देवादिकों के दर्शन की अथवा ऋद्धि-सिद्धियों की मुझे तृष्णा नहीं है, लेकिन अगर भक्ति आदि के द्वारा देव संतुष्ट होते हैं, तो मैं उनसे यही चाहूँगा कि वे मेरी विवेक-बुद्धि को शुद्ध और विकसित करें। यह विवेक क्या चीज है?
कहने की शायद ही जरूरत हो कि यहाँ विवेक का अर्थ रूढ़ अर्थ की भाँति, सदाचार या अच्छा रहन-सहन ही नहीं समझना चाहिए।
विवेक का शब्दार्थ विशेष अथवा सूक्ष्म विचार होता है। ऐसा नहीं है कि हम जो कुछ करते हैं, सीखते हैं, मानते हैं, वह किस लिए करते, सीखते या मानते हैं, उस पर हम हमेशा विचार कर ही लेते हैं। यह संभव है कि अत्यन्त निरर्थक से लेकर अत्यन्त गम्भीर क्रियाओं, शिक्षाओं, और मान्यताओं में से कई एक के सम्बन्ध में हमें थोड़े भी विचार न सूझे हों। हममें बोलने और काम करने की ऐसी कितनी ही आदतें होती हैं जो दूसरों के ध्यान में तो आ जाती हैं, लेकिन हमें स्वयं उनके अस्तित्व का भी ज्ञान नहीं रहता। मेरे मित्र कहते हैं कि बोलते समय मुझे “है तो” जैसे निरर्थक शब्द कहने की आदत है। इसका निर्णय मैं अभी तक नहीं कर सका हूँ कि मुझमें यह आदत है, क्योंकि जब मैं सावधान होकर बोलता हूँ तो ये शब्द बोले नहीं जाते, और जब असावधान होकर बोलता हूँ तो वे मेरे ध्यान में नहीं आते। कहना चाहिए कि जिस हद तक यह होता है, उस हद तक हमारी क्रियायें, शिक्षायें और मान्यतायें विवेक रहित हैं। तात्पर्य, हमारे ये काम बतलाते हैं कि इन्हें करने से पहले हमने इन पर सावधान होकर पूर्व विचार नहीं कर लिया था।
यह मान लेने का कोई कारण नहीं है, कि बिना विचारे किये हुए कर्म शिक्षा अथवा मान्यता बुरे या गलत होते हैं। लेकिन सत्कर्म, सदशिक्षण और सच्छन्द्धा अगर विचारपूर्ण न हों तो उनमें दो त्रुटियाँ रह जाती हैं। एक तो यह है कि विचारपूर्वक किये हुए कर्मादि में गुण को प्रकट करने और दृढ़ करने की जो शक्ति रहती है, वह विचार हीन कर्म में नहीं होती, और कितनी ही पुरानी आदत हो तो भी संगदोष से उसे आघात पहुँच सकता है। उदाहरण के लिए यदि में चींटी और मकोड़ों या चींटों को भी न मारूं, तो यह मेरा एक सत्कर्म जरूरत है। लेकिन अगर इस सत्कर्म की आदत केवल मुझे वंशपरम्परा के संस्कारों, गुरुजनों की धाक, परलोक में मिलने वाले दुखों के भय अथवा सुख की लालसा के कारण पड़ी हो, और इस सम्बन्ध में मैंने खुद होकर अपने स्वतंत्र दृष्टि-बिन्दु से विचार न कर लिया हो, तो इस कर्म से गुण की जितनी वृद्धि होनी चाहिए, नहीं होती। अर्थात् मैं चींटी या चींटों को मारूंगा तो नहीं परन्तु उनसे त्रास पाकर उन्हें मन में शाप दिये बिना न रह सकूँगा या प्राण-हरण के सिवा कोई दूसरी सजा उन्हें दे डालूँगा। कदाचित् यह दूसरी सजा या दण्ड ऐसा भी हो कि उसके फलस्वरूप प्राण हरण से भी ज्यादा केवल चींटी या चींटों तक ही परिमित हो, तो वह मुझे बन्दर, साँप या बिच्छू—और सम्भवतः किसी मनुष्य को भी—मारने से रोकेगी ही, इसका कोई भरोसा नहीं। इससे मेरा क्रोध कम नहीं होता उलटे सम्भव है कि इससे मैं अपने बैल या नौकर से इतना काम लूँ कि वह काम करते-करते बेदम हो जाय-मर जाय। मेरे मातहत मनुष्य का सर्वस्व हरण हो जाय, तो भी मैं उस पर सख्ती करने से बाज न आऊँ; और कुसंगति में पड़कर चींटी मकोड़ों के विषय में भी योग्य अवसर पर काम देने वाली निर्णायक शक्ति का उसमें उदय नहीं होता।
अगर अकेली प्रज्ञा ही उसकी तीव्र होगी तो वह पदार्थों के बाह्य भेदों और बाह्य स्वरूपों में ही रमाता रहेगा और पदार्थों के बन्धनों से स्वतन्त्र न हो सकेगा।
अगर वह अवलोकन करने वाला और प्रज्ञावान है, लेकिन योग्य भावना वाला नहीं है, तो भी उसका तत्व विचार उसमें बल की प्रेरणा नहीं कर सकेगा, उसका तत्व-विचार उसके जीवन में कोई अन्तर नहीं ला सकेगा।
अगर आदमी उपयुक्त भाव वाला हो, लेकिन उसमें अवलोकन की कमी हो अथवा उसकी प्रज्ञा मन्द हो तो वह उन पदार्थों की काल्पनिक कीमत निश्चित करेगा, जल्दबाजी से निर्णय करेगा, उसका विकास एकाँगी रहेगा, उसके आचार पर उसका आधिपत्य न होगा और उसमें योग्य-अयोग्य के विचार की कमी दीख पड़ेगी। साराँश बोलचाल की भाषा में जिसे हम बेसमझ, गैर जिम्मेदार या विक्षिप्त व्यवहार कहते हैं, वैसा उसका व्यवहार दीख पड़ेगी।
सब कुछ होने पर भी अगर सावधानता न हो तो उस बराबर यह कहने का अवसर आवेगा कि “जानाभि धर्म नचम प्रवृत्तिः जानाम्य धर्म नचमे निवृत्ति” (मैं धर्म को जानता हूँ लेकिन मैं उसमें प्रवृत्त नहीं हो सकता, अधर्म भी जानता हूँ पर उससे निवृत्त नहीं हो सकता)।
कला, कौशल, पाण्डित्य, सौंदर्य, बल अथवा केवल भक्ति, केवल कर्म परायणता, केवल तप, केवल ज्ञान (जानकारी ओर तर्क शक्ति) वो केवल ध्यान की पूर्णता से जीवन की पूर्णता प्राप्त हो नहीं सकती लेकिन अगर कहें कि विवेक की पूर्णता और जीवन की पूर्णता ये दोनों एक ही वस्तु हैं तो झूठ न होगा। जैसे प्राण हीन शरीर शव होता है, वैसे विवेक हीन जीवन मुझे अ-मानवी प्रतीत होता है।
केवल विवेक बुद्धि की सहायता से हम भक्ति मार्ग, तप मार्ग, कर्म मार्ग, अथवा ध्यान मार्ग का फल प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन केवल विवेक-विचार पर निर्भर रहना कठिन होता है, अतः भक्ति आदि मार्गों का सहारा लेना उचित है। किन्तु विचार करने पर पता चलेगा कि मनुष्य की उन्नति का ऐसा एक भी साधन नहीं है, जिसमें विवेक-विचार की अपेक्षा न रहती हो, जितने ज्ञानी अथवा सन्त-पुरुष भूतकाल में हो गये हैं, या वर्तमान काल में हैं, उनके जीवन में विवेक-बुद्धि की सतत् जागृति ही उनका बड़े से बड़ा साधारण धर्म प्रतीत होगा। विवेक की पूर्णता के अनुपात में ही उनके जीवन की सच्ची महत्ता रहती है। शेष दूसरी सामग्रियाँ उनके आभूषण मात्र होती हैं।
विवेक के उत्कर्ष के अभाव में इष्ट देव का दर्शन हुआ हो, अनेक प्रकार की विद्याओं में पारदर्शिता प्राप्त हुई हो अथवा वैराग्य वृत्ति सधी हो तो भी मनुष्य इनको पचा नहीं सकता और सम्भवतः इस कारण उसे अधोगति भी प्राप्त हो सकती है। इसके विपरीत अगर वह केवल विवेक-विचार पर जाग्रत रहने की ‘शक्ति प्राप्त कर सके तो उसे अटल शान्ति मिल सकती है। नितान्त शुद्ध विवेक पूर्ण जीवन में ही मेरे विचार जीवन मुक्ति का वाह्य लक्षण है।
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