निंदक को भगवान् भी त्याग देते हैं.


निंदक को भगवान् भी त्याग देते हैं.

एक बार संत कबीरदासजी अपने शिष्यों व अन्य साधू-संतों की मण्डली के साथ सत्संग, भगवन्नाम कीर्तन करते-करते अनेक तीर्थ क्षेत्रों का भ्रमण कर वृन्दावन पहुचे. दूर दूर से भक्त गण उनके दर्शन करने आने लगे और सत्संग का अमृत पान कर परितृप्त होते थे. वहाँ से थोड़ी दूरी पर संस्कृत के प्रकण्ड विद्वान पंडित हरिव्यासजी भागवत की कथा करते थे. उनको भगवान् श्रीहरि के दर्शन भी होते थे.

एक दिन कुछ श्रोता संत कबीरजी का सत्संग सुनने के बाद हरिव्यासजी के पास गए और उनसे पूछा-“महाराजजी! कबीरदासजी जो कथा करते हैं, वह आपकी समझ से कैसी हैं? आपके यहाँ से अधिक भीड़, वहाँ होती हैं तथा उनकी कथा को श्रोतागण बड़े प्रेम से सुनते हैं”

हरिव्यासजी ने झुंझलाकर कहा-“कबीर का ज्ञान नवीन हैं. वे भक्तिरस की बात तो नहीं जानते, केवल नीरस निर्गुणवाद का समर्थन करते हैं, जो सभी के लिए सुलभ नहीं हैं. उनकी बाते भी कुछ ऊटपटांग होती हैं.” श्रोतागण मौन हो गए.

हरिव्यासजी ने जिस दिन कबीरदासजी की निंदा की, उसी दिन से उन्हें भगवान् के दर्शन होना बंद हो गए. हरिव्यासजी व्याकुल हो गए. उन्होंने अन्न-जल त्याग कर कई दिनों तक ब्रत और साधना की, किन्तु भगवान् श्रीहरि के दर्शन नहीं हुये. उनकी घबराहट बढती गई और अशांत, खिन्न होकर अंत में वे अपने एक परिचित संत के पास गए, जो बड़े सिध्द महापुरुष थे और अपना दुःख सुनाया.

संत बोले- “तुमने अपने पांडित्य के बल पर किसी महापुरुष की निंदा की हैं. इसी कारण तुमको श्रीहरि ने त्याग दिया हैं. किसी भी सत्पुरुष को कोई अपनी मति-गति से तौले और उसे अशांति, पीड़ा, संताप हो जाये तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए. यह करुणासिन्धु भगवान् का मंगलमय विधान हैं. अब अपने अधम अहंकार को त्यागो और जिन महापुरुष की निंदा की हैं, उनसे क्षमा-याचना करों. श्रीहरि तुम्हें पुन: दर्शन देंगे और तुम्हारी अशांति भी दूर होगी”.

हरिव्यासजी बहुत लज्जित हुये तथा पश्चाताप करने लगें. उन्होंने संत कबीरजी से क्षमा मांगी साथ ही व्यथित हृदय से उनकी स्तुति की. कबीरजी ने उनका अपराध क्षमा करते हुये कहा-“अब तुम पवित्र हो गए. आज से पुन: नारायण तुम्हें दर्शन देंगे, परन्तु तुम्हें किसीकी निंदा नहीं करना चाहिए. भगवान् का भजन अनेक प्रकार से होता हैं, जिसको जो मार्ग सुलभ हो, उसी मार्ग से करें. किसी के मार्ग की निंदा नहीं करनी चाहिए अन्यथा स्वयं का ही अहित होता हैं”.

संत कबीरजी के वचन सुन हरिव्यासजी का हृदय आनंद, शांति व् भगवदभाव से भर गया. उन्हें उसी समय भगवान् के दर्शन हुये. उनके पांडित्य का अभिमान नष्ट हो गया और वे एक सच्चे भगवदभक्त बन गए तथा दूसरों संतों के दैवी कार्यों में सहभागी बनते हुये अनेकों का जीवन सार्थक बनाया.

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