पंचकन्या – भाग-8
यहां तक सत्यवती से अधिक कुन्ती कुमारी कन्या
मानी गई।
मूलत। यह शब्द ' वर्जिन' या कुमारी अपने शाब्दिक अर्थ के एकदम विपरीत
अर्थ का संकेत देता है। ईश्तर और एफ्रोडाईट‚ प्राचीन मेसोपोटामिया तथा ग्रीस के प्रेम के
देवता हैं जो कि 'वर्जिन' कहलाए जाते थे। बाद में
पितृसत्तात्मक संस्कृति में इन्हें अनैतिक और मर्यादाहीन घोषित कर दिया। कौमार्य
का वरदान किसी स्त्री की केवल शारीरिक अवस्था नहीं वरन् मानसिक अवस्था के लिये
माना जाता है‚ जो कि वह किसी के भी बन्धन
से सदैव मुक्त रही हो‚ किसी के दासत्व से‚ या किसी एक निर्धारित पुरुष
पर निर्भर होकर न रही हो। वह अपने आप में एक हो‚ पूर्ण स्वयंसिद्धा। एक पूर्ण व्यक्तित्व जो कि
स्वयं से सम्बन्धित हो चाहे वह अविवाहिता कुमारी हो या अपनी पवित्रता अक्षुण्ण
रखने को बाध्य न हो या अनचाहे संर्सग करने को भी बाध्य न हो। यह मुक्ति का अधिकार
चाहे तो वह किसी अवांछित से सम्बन्ध नकार देने में प्रयोग कर सकती है या किसी भी
मनचाहे पुरुष को स्वीकार करने में प्रयोग कर सकती है। यह किसी भी स्त्री का अधिकार
है‚ चाहे वह बहुत अधिक यौनअनुभव
रखने वाली महिला के सन्दर्भ में ही क्यों न हो‚ यहां तक कि एक वेश्या के लिये भी यह अधिकार है।
यह सच में बहुत अर्थमय है जो कि विवाहिता के एक
विपरीत अर्थ कें सदंर्भ में प्रयुक्त हुआ है। माद्री‚ अम्बिका‚ अम्बालिका‚ गांधारी और सुभद्रा इसके
एकदम विपरीत हैं ' विवाहित ' स्त्रियां‚ जो कि दूसरों की सोच पर
निर्भर हैं‚ वे चाह कर भी वह सब नहीं कर
सकती जो कि वे पसन्द करती हैं। अम्बिका और अम्बालिका ने मौन रह कर अपनी सास का
आदेश माना और अनाकर्षक व्यास को ग्रहण किया। माद्री ने पति की चिता के साथ स्वयं
भी आत्मदाह कर लिया। गांधारी ने स्वेच्छा से स्वयं की आंखों पर पट्टी बांध ली ताकि
वह पति के साथ रहे आगे न बढ़ जाए। "वह अपने आप में पूर्ण स्वयंसिद्धा तो नहीं
मगर वह अपने आचरण से पति की अर्धांगिनी बन कर पुरुष के समानान्तर चलना चाहती
है।"
दूसरी ओर‚ "वह स्त्री जो मनोवैज्ञानिक
आधार पर कन्या है वह पुरुष पर कतई निर्भर नहीं है। वह जो भी है‚ इसलिये है‚ क्योंकि वह‚ वह है? स्त्री
जो कि कुमारी है‚ एकरूपा है‚ जो वह चाहती है वही करती है— किसी को प्रसन्न करने की
कामना से नहीं‚ पसन्द किये जाने की चाह से
नहीं‚ और न ही स्वीकार किये जाने
की आकांक्षा से‚ यहां तक कि स्वयं के लिये भी
नहीं‚ और ऐसी किसी शक्ति या प्रभाव
को पाने की चाह से भी नहीं जिससे कि वह अपनी पसन्दीदा प्यार को पा सके‚ वरन् इसलिये कि जो भी वह
करती है वही सत्य है… वह उन पहलुओं से भी प्रभावित
नहीं होती जो साधारण व अकुमारी स्त्रियों को बनाने में सहायक होते हैं‚ चाहे वह विवाहित हो या नहीं।
वह अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगा कर शीघ्रता से उन औचित्यों को ग्रहण कर लेती
है‚ जो कि इस बात पर निर्भर करते
हैं कि लोग क्या साचेंगे। माना कि उसके कृत्य निश्चय ही अपारम्परिक हो सकते हैं
।" क्या यह सब अहिल्या‚ सत्यवती और कुन्ती के चरित्रों को वर्णित नहीं
करता?
द्रौपदी का क्या? अहिल्या और सीता की भांति ही द्रौपदी अयोनिजा
मानी गई है‚ जिसका जन्म स्त्री से ना हुआ
हो। जबकि अहिल्या तिलोत्तमा का आदिरूप है और सीता खेत मे हल चलाने के फलस्वरूप
उत्पन्न हुई थी‚ द्रुपद द्वारा प्रतिशोध के
लिये यज्ञ के दौरान आव्हान किये जाने पर द्रौपदी उत्पन्न हुई‚ दरअसल वह एक द्रुपद को एक
अतिरिक्त लाभ के रूप में प्राप्त हुई क्योंकि वे तो द्रौण से अपमान का बदला लेने
हेतु एक पुत्र प्राप्ति के प्रयोजन से यज्ञ कर रहे थे और उन्होंने पुत्री की तो
कामना ही नहीं की थी‚ किन्तु वह एथेना की तरह ही
पूर्ण यौवना रूप में यज्ञ वेदी से अवतरित हुई‚ जब यज्ञ करवाने वाले पुजारी ने उनका आव्हान
किया तब द्रुपद की महारानी उपस्थित न हो सकीं क्योंकि वे प्रसाधन में व्यस्त थी‚ अत:द्रौपदी को अवतरित होने
के लिये अपनी मां के गर्भ की आवश्यकता ही नहीं हुई। वह एकमात्र कन्या है जिसके
अवतरण की कथा विस्तार से लिखी गई है‚ जो कि उल्लेखनीय है।
" आँखों को भा जाने वाली पांचाली‚
काली मुस्कुराती आंखों वाली…
चमकते ताम्बई तराशे हुए नख
कोमल पलकें‚
सुडोल स्तन‚ सुन्दर आकार वाली जंघा
न छोटे कद की‚ न लम्बी
न काली ‚ न पीताभ गौरवर्णा
गहरे नीलाभ घुंघराले केशों वाली
नेत्र जैसे पताझड़ के कमल की अर्धोन्मीलित
पांखुरी से
कमल की गंध से महकती हुई
असाधारण रूप से सर्वांगसुन्दरी तथा सर्वगुण
सम्पन्न
स्वर तथा व्यवहार में माधुर्य
सबसे अन्त में सोने वाली
और सबसे पहले जागने वाली
यहां तक कि सबसे पहले उठने वाले
चरवाहों से भी पहले…
उसका सद्यस्नात:सुन्दर मुख
कमल के समान या जैसे कि चमेली का फूल
उसकी पतली कमर जैसे
पवित्र यज्ञवेदी का मध्यभाग
लम्बे केश‚ गुलाबी होंठ
और स्निग्ध त्वचा।" ( आदिपर्व 169। 44 – 46)
द्रोपदी गन्धकाली की ही भांति ज़रा सांवली थी‚ इसलिये उसका नाम पड़ा कृष्णा‚ और उसे नीलकमल की सी देह
सुगन्ध का प्रकृति प्रदत्त उपहार प्राप्त था‚ जो कि दूर दूर तक फैल जाती थी योजनगंधा की तरह‚ उसे अपनी सास और अपनी दादी
सास के अतीत के बारे में पता था। कुन्ती की तरह ही उसे एक कामी प्रणयिनी की तरह
वर्णित किया गया है । दौपदी भ्रात्रीपतिका पंचनाम
कामिनी तथा( ब्रह्मवैवार्ता पुराण‚ 4।115।73)। फिर भी यहां बहुत अधिक अमर्यादित तरीके से
उसके चरित्र की दुरावस्था का वर्णन हुआ है। द्रौपदी को अपना पूरा जीवन पांच
पुरुषों के बीच विवाह की मर्यादाओं के साथ बंट कर रह गया था। सत्यवती और कुन्ती की
तरह हर एक से विवाहोपरान्त भी उसे कौमार्यावस्था पुन: प्राप्त हुई। देवर्षि
नारद‚ यह अद्भुत वर्णन सुनाते हैं।
" सुन्दर व क्षीण कटि और निश्चित रूप से बहुत
अभिमानिनी
वह कुमारी हो गई अपने हर नये विवाह के
साथ।" ( आदिपर्व‚
197। 14)
महाभारत के विल्लिपुत्तुर के तमिल रूपान्तरण
में द्रौपदी हर विवाह के बाद अग्निस्नान करती है‚ और ध्रुव तारे की भांति निष्पाप और पवित्र होकर
उभरती है। दक्षिणभारतीय पूजागृहों में तथा द्रौपदी की धार्मिक धारणा में उसे हमेशा
एक बन्द कमल की कली पकड़े दिखाया जाता जो कि कौमार्य का प्रतीक है जबकि इसके विपरीत
खुला हुआ कमल जो कि उर्वरता का प्रतीक है उसे सुभद्रा को पकड़े हुए दिखाया गया है।
अहिल्या की तरह उसने स्वयं को एक पत्थर में तब्दील कर लिया था और जब उसे एक दानव
स्पर्श किया था‚ फिर उसने अपनी पवित्रता का
आव्हान किया और अपनी सत्यता साबित की। कुन्ती की तरह ही वह कुरु वंश की एक रानी
माधवी से मिलती जुलती है‚ पांच पुरुषों से विवाह कर के
भी अपना कौमार्य पुन: प्राप्त करने की क्षमता में। कुन्ती स्वयं ने कृष्णा का
वर्णन सर्वधर्मोपचायिनाम ( उद्योगपर्व 137। 16)‚ यही परिभाषा ययाति ने अपनी पुत्री के लिये कही
थी जब उसे गालव ऋषि को उपहार में दिया था। ( उद्योगपर्व 115।11)
सही अर्थों में कन्या मानी जाने वाली द्रौपदी
का मस्तिष्क उसका अपना था। जब स्वयम्वर सभा में कृष्ण और द्रौपदी पहली बार साथ साथ
उपस्थित होते हैं और दृढ़ता से हस्तक्षेप करते हैं। यह पांचाली की सुस्पष्ट
अस्वीकृति थी‚ पूर्णत। अप्रत्याशित — कर्ण को वर के रूप अस्वीकार
कर के‚ जिसने सम्पूर्ण सभा का रुख
बदल दिया था‚ यहाँ तक कि महाकाव्य का भीॐ
कर्ण को खुलेआम सभा में अपमानित कर उसने यहीं पर चौपड़ के खेल में स्वयं पर हुए
प्रहार के बीज बो दिये थे। यह उसके होने वाले सखा कृष्ण ही थे जो आगे आए और
उन्होंने क्रुद्ध राजाओं और नाराज़ पाण्डवों के बीच हो रहे झगड़े का अन्त करवाया।
उसने अकेले ही इस सखा कृष्ण की सखि होकर इस अनोखे सम्बन्ध का आनन्द लिया। केवल वही
थी इस पूरे महाकाव्य में जिसके पास कृष्ण को झिड़कने का अधिकार प्राप्त था।
" मेरा कोई पति नहीं‚ न ही पुत्र
न भाई‚ न पिता और यहां तक कि
हे मधुसूदन तुम भी मेरे नहीं हो।"( वनपर्व 10। 125)
वह कृष्ण को प्रेरित करती है कि वह उसे बचाने
के लिये बाध्य हैं ही।
"चार कारणों की वजह से‚ कृष्ण
तुम मुझे हमेशा बचाने के लिये बाध्य हो
मैं तुमसे संबन्धित हूँ‚ मैं प्रसिद्ध हूँ
मैं तुम्हारी सखि हूँ और तुम सबके पालक हो
।"( वनपर्व 10। 127)
पांचाली अपने रूप और शक्ति को बखूबी जानती
समझती थी‚ उसने इसका इस्तेमाल भी किया‚ अज्ञात वास में भीम के साथ
विराट की रसोई में अपने लिये रास्ता निकालते समय (विराटपर्व 20)‚ और कृष्ण को शान्ति दूत की
बजाय युद्ध की घोषणा करने वाले में बदल कर। जब वह काम्यक वन में अकेली होती है तब
अपनी मोहक मुद्रा से जयद्रथ को मोहित करती है। एक कदम्ब के वृक्ष से टिक कर खड़ी
होती है‚ उसकी एक टहनी हाथ उपर उठा कर
पकड़ती है‚ तो उसका अधोवस्त्र ऊपर उठ
जाता है‚ वह ऐसी प्रतीत होती है जैसे
बादलों में एकाएक चमकी दामिनी या रात को तेज़ हवा में जलते दीपक की कांपती लौ हो।
सीता की तरह वह सुन्दर और वन में अकेली होती है‚ किन्तु किसी रावण का साहस नहीं कि द्रौपदी को
उठा ले जाए। जब जयद्रथ उसे बांध लेता है भुजाओं में वह उसे धक्का देती है इतना तेज़
कि वह ज़मीन पर गिर पड़ता है। शरीर की समस्त शक्ति और मन का विरोध एकत्रित कर वह
उसके ही रथ पर सवार हो जाती है‚ और उसे झुकने पर विवश कर देती है‚ बाद में शान्ति से अपने
परिवार के पुजारी को कहती है कि वह उसके पतियों को खबर कर दे। यहां सीता की भांति
विवशता भरा विलाप नहीं है‚ न ही किसी से मदद की गुहार
लगाई गई है? जैसे ही उसके पति जयद्रथ के पास आते हैं वह जयद्रथ पर व्यंग्य कसती है
अपने हर पति की वीरता का विस्तृत वर्णन करके और आने वाले समय में अवश्यंभावी हार
के बार में कहती है।
क्रमशः
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