श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद

देवी सती ने कहा- पिताजी! भगवान् शंकर से बड़ा तो संसार में कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियों के प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणी से वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा?

द्विजवर! आप-जैसे लोग दूसरों के गुणों में भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग-दोष देखने की बात तो अलग रही-दूसरों के थोड़े से गुण को भी बड़े रूप में देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ है। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषों पर भी दोषारोपण ही किया। जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जड़ शरीर को ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषों की निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टा पर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणों की धूलि उनके इस अपराध को न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अतः महापुरुषों की निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषों को ही शोभा देता है। जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरों का नाम प्रसंगवश एक बार भी मुख से निकल जाने पर मनुष्य के समस्त पापों को तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता, अहो! उन्हीं पवित्रकीर्ति मंगलमय भगवान् शंकर से आप द्वेष करते हैं! अवश्य ही आप मंगलरूप हैं।

अरे! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके चरणकमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषों को उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान् शिव से आप वैर करते हैं। वे केवल नाममात्र के शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमंगलरूप है; इस बात को आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवतः नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान् शिव श्मशान भूमिस्थ नरमुण्डों की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिर पर धारण करते हैं।

यदि निरंकुश लोग धर्ममर्यादा की रक्षा करने वाले अपने पूजनीय स्वामी की निन्दा करें तो अपने में उसे दण्ड देने की शक्ति न होने पर कान बंद करके वहाँ से चला जाये और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकड़कर उस बकवाद करने वाली अमंगलरूप दुष्ट जिह्वा को काट डाले। इस पाप को रोकने के लिये स्वयं अपने प्राण तक दे दे, यही धर्म है। आप भगवान् नीलकण्ठ की निन्दा करने वाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीर को अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूल से कोई निन्दित वस्तु खा ली जाये तो उसे वमन करके निकाल देने से ही मनुष्य की शुद्धि बतायी जाती है। जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेद के विधि निषेधमय वाक्यों का अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्यों की गति में भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी की स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्ग में स्थित रहते हुए भी दूसरों के मार्ग की निन्दा न करे।

कोई टिप्पणी नहीं: