श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


उनके बाल बारीक, घुँघराले, काले और चिकने थे; गरदन शंख के समान उतार-चढ़ाव वाली तथा रेखाओं से युक्त थी और वे उत्तम बहुमूल्य धोती पहने और वैसी ही चादर ओढ़े थे। दीक्षा के नियमानुसार उन्होंने समस्त आभूषण उतार दिये थे; इसी से उनके शरीर के अंग-प्रत्यंग की शोभा अपने स्वाभाविक रूप में स्पष्ट झलक रही थी। वे शरीर पर कृष्णमृग का चर्म और हाथों में कुशा धारण किये हुए थे। इससे उनके शरीर की कान्ति और भी बढ़ गयी थी। वे अपने सारे नित्यकृत्य यथाविधि सम्पन्न कर चुके थे। राजा पृथु ने मानो सारी सभा को हर्ष से सराबोर करते हुए अपने शीतल एवं स्नेहपूर्ण नेत्रों से चारों ओर देखा और फिर अपना भाषण प्रारम्भ किया। उनका भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र पदों से युक्त, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर एवं निश्शंक था। मानो उस समय वे सबका उपकार करने के लिये अपने अनुभव का ही अनुवाद कर रहे हों।

राजा पृथु ने कहा- सज्जनों! आपका कल्याण हो। आप महानुभाव, जो यहाँ पधारे हैं, मेरी प्रार्थना सुनें-जिज्ञासु पुरुषों को चाहिये कि संत-समाज में अपने निश्चय का निवेदन करें। इस लोक में मुझे प्रजाजनों का शासन, उनकी रक्षा, उनकी आजीविका का प्रबन्ध तथा उन्हें अलग-अलग अपनी मर्यादा रखने के लिये राजा बनाया गया है। अतः इनका यथावत् पालन करने से मुझे उन्हीं मनोरथ पूर्ण करने वाले लोकों की प्राप्ति होनी चाहिये, जो वेदवादी मुनियों के मतानुसार सम्पूर्ण कर्मों के साक्षी श्रीहरि के प्रसन्न होने पर मिलते हैं। जो राजा प्रजा को धर्ममार्ग की शिक्षा न देकर केवल उससे कर वसूल करने में लगा रहता है, वह केवल प्रजा के पाप का ही भागी होता है और अपने ऐश्वर्य से हाथ धो बैठता है। अतः प्रिय प्रजाजन! अपने इस राजा का परलोक में हित करने के लिये आप लोग परस्पर दोषदृष्टि छोड़कर हृदय से भगवान् को याद रखते हुए अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते रहिये; क्योंकि आपका स्वार्थ भी इसी में है और इस प्रकार मुझ पर भी आपका बड़ा अनुग्रह होगा।

विशुद्धचित्त देवता, पितर और महर्षिगण! आप भी मेरी इस प्रार्थना का अनुमोदन कीजिये; क्योंकि कोई भी कर्म हो, मरने के अनन्तर उसके कर्ता, उपदेष्टा और समर्थक को उसका समान फल मिलता है। माननीय सज्जनों! किन्हीं श्रेष्ठ महानुभावों के मत में तो कर्मों का फल देने वाले भगवान् यज्ञपति ही हैं; क्योंकि इहलोक और परलोक दोनों ही जगह कोई-कोई शरीर बड़े तेजोमय देखे जाते हैं। मनु, उत्तानपाद, महीपति ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, हमारे दादा अंग तथा ब्रह्मा, शिव, प्रह्लाद, बलि और इसी कोटि के अन्यान्य महानुभावों के मत में तो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग तथा स्वर्ग और अपवर्ग के स्वाधीन नियामक, कर्म फलदातारूप से भगवान् गदाधर की आवश्यकता है ही। इस विषय में तो केवल मृत्यु के दौहित्र वेन आदि कुछ शोचनीय और धर्मविमूढ़ लोगों का ही मतभेद है। अतः उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं हो सकता।