सच्ची आस्था, विश्वास और समर्पण.


सच्ची आस्था, विश्वास और समर्पण.

एक साधू महाराज से जब यह पुछा गया कि - 'महाराज आपके भोजन प्रसादी की क्या व्यवस्था हैं?'

इस बात की चिंता मुझे नहीं करना है, साधु महराज ने मुस्कराते हुए कहा- 'इसकी चिंता उसे करना है, जिस पर मैंने सारी चिंताएँ छोड़ दी, जो सबकी चिंता करता है।

उस वक्त तो मैंने साधु की बात पर खास तवज्जो नहीं दी। मगर अब बरसों बाद जब साधु की बात पर जब-जब भी विचार करता हूँ, तो सोचता हूँ कि आस्था, विश्वास और समर्पण सच्चा हो तो मनुष्य खुद को इतना निश्चिंत महसूस करता है कि उसकी चिंताओं के बादल खुद-ब-खुद छँटने लगते हैं।

मगर सवाल यह उत्पन्न होता है कि आस्तिकों में ऐसे कितने हैं, जिनका विश्वास, जिनका समर्पण उक्त साधु की तरह हो। जो अपनी चिंताओं को ईश्वर पर सौंपकर निश्चिंत हो गए हों? इस सवाल का जवाब यही होगा कि लाखों-करोड़ों में गितनी के ही आस्तिक इस स्तर के होंगे।

अगर देखा जाए तो अधिकांश आस्तिक अपनी समस्याओं को लेकर निजी स्तर पर चिंतित रहते हैं। वह कभी इस हद तक कि अगर वे नहीं हुए तो क्या होगा? अथवा जो करेंगे वे स्वयं करेंगे। कर्ता होने का भाव तो इस सीमा तक मन में समाया होता है कि किसी भी कार्य के संपन्न होने का श्रेय प्रभु को धन्यवाद दिए बगैर आस्तिकगण स्वयं लेते हैं।

मजे की बात तो यह कि जो आस्तिक एक ओर विधाता के लेख को अटल मानता है, ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ते का हिलना भी असंभव मानता है और यह मानता है कि होनी तो होकर रहे, अनहोनी न होय। वहीं आस्तिक दूसरी ओर विभिन्न उपायों से, विधाता के लेख को बदलने की कोशिश करता है। वह हरसंभव कोशिश करता है कि ऐसा हो जाए अथवा ऐसा न हो। वह ईश्वरीय इच्छा को सर्वोपरि मानने के बजाय ऐसे विभिन्न व्यक्तियों के पास जाता है, जो स्वनामधन्य ईश्वरीय अभिकर्ता होते हैं।

हम वास्तव में आस्तिक हैं और हमारी ईश्वर पर प्रबल आस्था है, साथ ही हमने सारी चिंताएँ ईश्वर पर छोड़ दी हैं, तो हमें यह मान लेना चाहिए कि जीवन-मरण, लाभ-हानि, यश-अपयश ईश्वर के हाथ में है। कोई मनुष्य इतना सक्षम नहीं है जो ईश्वरीय विधान में रत्तीभर भी परिवर्तन कर सके। क्या हम इन पंक्तियों पर विश्वास करेंगे, 'अब छोड़ दिया है जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में, अब हार तुम्हारे हाथों में, जीत तुम्हारे हाथों में।'

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