सदुपयोग और दुरुपयोग प्राणाग्नि का भी समझें.



सदुपयोग और दुरुपयोग प्राणाग्नि का भी समझें.

सन् 1734 से सन् 1815 तक लगभग पूरे जीवन में डॉक्टर फ्रेडरिक मैस्मर ने प्राण शक्ति के अस्तित्व एवं उपयोग के सम्बन्ध में शोध कार्य किया। उन्होंने अपने अनुसंधानों के निष्कर्षों को क्रमबद्ध बनाया और मैस्मरेजम नाम दिया। आगे चलकर उनके शिष्य काँस्टेट युसिगर ने उसमें सम्मोहन विज्ञान की नई कड़ी जोड़ी और कृत्रिम निद्रा लाने की विधि को ‘हिप्नोटिज्म’ नाम दिया। फ्राँस के अन्य विद्वान भी इस दिशा में नई खोजें करते रहे। लाफान्टेन एवं डॉ. ब्रेड ने इन अन्वेषणों को और आगे बढ़ाकर इस योग्य बनाया कि चिकित्सा उपचार में उसका प्रामाणिक उपयोग सम्भव हो सके।

पिछले दिनों अमेरिका में न्यू आरलीन्स तो ऐसे प्रयोगों का केन्द्र ही बना रहा है। इस विज्ञान को अमरीकी वैज्ञानिक डारलिंग और फ्राँसीसी डॉक्टर द्रुराण्ड डे ग्रास की खोजों ने विज्ञान जगत को यह विश्वास दिलाया कि प्राणशक्ति का उपयोग अन्य महत्वपूर्ण उपचारों से किसी भी प्रकार कम लाभदायक नहीं है। इस प्रक्रिया को “इलेक्ट्रो वायोलॉजिकल एक्सपेरीमेण्ट” नाम दिया गया है। ली वाल्ट की जीव विद्युत के आधार पर चिकित्सा उपचार पुस्तक को प्रामाणिकता भी मिली और सराहना भी हुई। इस संदर्भ में जिन प्रमुख संस्थानों ने विशेष रूप से शोध कार्य किए हैं उनके नाम हैं- (1) दि स्कूल ऑफ नेन्सी, (2) दि स्कूल ऑफ चारकोट, (3) दि स्कूल ऑफ मेस्मेरिस्ट। इनके अतिरिक्त भी छोटे-बड़े अन्य शोध संस्थान व्यक्तिगत एवं सामूहिक अन्वेषणों को प्रोत्साहन देते रहे हैं।

आगे चलकर विज्ञानी मोडाव्यूज तथा काउण्ट पुलीगर के शोधों ने यह सिद्ध किया है कि प्राणशक्ति द्वारा रोग उपचार तो एक हल्की-सी खिलवाड़ मात्र है। वस्तुतः उसके उपयोग बहुत ही उच्च स्तर के हो सकते हैं। उसके आधार पर मनुष्य अपने निज के व्यक्तित्व में बहुमुखी प्रखरता उत्पन्न कर सकता है। प्रतिभाशाली बन सकता है। आत्म-विकास की अनेकों मंजिलें पर कर सकता है। पदार्थों को प्रभावित करके अधिक उपयोगी बनाने तथा इस प्रभाव से जीवित प्राणियों की प्रकृति बदलने के लिए भी प्रयोग हो सकता है। जर्मन विद्युत विज्ञानी रीकनवेक इसे एक विशेष प्रकार की ‘अग्नि’ मानते हैं। उसका बाहुल्य चेहरे के इर्द-गिर्द मानते हैं और ‘औरा’ नाम देते हैं। प्रजनन अंगों में उन्होंने इस अग्नि की मात्रा चेहरे से भी अधिक परिणाम में पाई है। दूसरे शोधकर्ताओं ने नेत्रों में तथा उँगलियों के पोरुवों में उसका प्रवाह अधिक माना है।

हाँग काँग के अमेरिकी डॉक्टर आर्नोल्ड फास्ट ने सम्मोहन विधि से निद्रित करके कई रोगियों के छोटे आपरेशन किए थे। पीछे डेण्टल सर्जनों ने यह विधि अपनाई और उन्होंने दाँत उखाड़ने में सुन्न करने के प्रयोग बन्द करके सम्मोहन विधि प्रयोग को सुविधाजनक पाया। दक्षिण अफ्रीका के जोहन्सबर्ग के टारा अस्पताल में डॉ. बर्नार्ड लेविन्सन ने बिना क्लोरोफार्म सुँघाये इसी विधि से कितने ही कष्ट रहित आपरेशन करके यह सिद्ध किया कि यह विधि कोई जादू-मन्तर नहीं वरन् विशुद्ध वैज्ञानिक है। अँग्रेज विज्ञानी जेम्स ब्राइड ने भी नाड़ी संस्थान में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति की क्षमता को मात्र शरीर निर्वाह तक सीमित न रहने देकर उसमें अन्य उपयोगी कार्य सम्भव हो सकने का प्रतिपादन किया है।

द्वितीय महायुद्ध के समय लोगों के मन में छिपे हुए रहस्य उगलवा लेने के लिए प्राण विद्युत के प्रयोग की रहस्यमयी विधियाँ खोजी गई थीं। मनोविज्ञानी जे.एच.एट्स ब्रुक ने इस संदर्भ में कई नये सिद्धान्त खोज निकाले थे और उनका प्रयोग जासूसी विभाग के अफसरों को सिखाया था। इसके लिए तब जर्मनी में एक ‘हिप्नोटाइज्ड इन्टेलिजेन्स’ विभाग ही अलग से बनाया गया था। उसके माध्यम से कितनी ही अद्भुत सफलताएँ भी मिली थीं।

मनीषियों का मत है कि प्रकृति कभी-कभी विलक्षण घटनाओं के सहारे इस तथ्य का बोध कराती है कि मानवी काया में इतनी प्रचण्ड विद्युत भरी पड़ी है कि यदि वह फुट पड़े तो वह शरीर को ही भस्मीभूत कर सकती है। ऐसी रहस्यमय घटनाओं के उदाहरण आये दिन मिलते रहते हैं।

काउडर स्पोर्ट पेन्सिलवानिया में डान. ई. गास्नेल मीटर रीडिंग का काम करता था। इसी क्षेत्र में एक वृद्ध फिजिशियन डॉ. जॉन इर्विन वेन्टले रहते थे। वृद्ध होते हुए भी वे पूर्णतया स्वस्थ थे। 5 दिसम्बर 1966 को नित्य की तरह डान गास्नेल मीटर रीडिंग के लिए निकला। डॉ. जॉन इर्विन वेन्टले के दरवाजे पर उसने दस्तक दी। प्रत्युत्तर न मिलने पर उसने आवाज लगाई। फिर भी कोई उत्तर नहीं मिला। वह मकान के ही एक पाइप के सहारे ऊपर के कमरे में पहुँचा। कारण यह था कि ऊपर कमरे की ओर से विचित्र प्रकार की जलने की गन्ध आ रही थी। कमरे में पहुँचकर देखा तो वहाँ से हल्का नीला धुँआ उड़ रहा था। कमरे की सतह पर राख का ढेर पड़ा हुआ था। अन्दर कमरे का दृश्य अत्यन्त वीभत्स था। डॉ. वेन्टले का दाहिना पैर जूते सहित मात्र अधजली स्थिति में पड़ा था। अवशेष शरीर के सभी अंग जल कर राख हो गये थे। विशेषज्ञों ने भली-भाँति घटना का अध्ययन किया और अन्ततः स्वतः जलने की संज्ञा दी। उस कोई सुराग नहीं मिला जो किसी अन्य प्रकार से आग जलने की पुष्टि कर सके। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि कमरे से निकलने वाली दुर्गन्ध माँस के जलने जैसी न होकर मीठी महक से युक्त थी।

इसी तरह की यह घटना जुलाई 1951 के एक दिन प्रातः सेंट पीटर्स वर्ग फलोरिडा में घटी। मेरीरिजर नामक एक अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट महिला अपनी कुर्सी पर ही बैठ-बैठ जल गई। इस कायिक दहन की विशेषता यह थी कि भयंकर अग्नि शरीर निकली उसे जलाती रही पर मात्र एक मीटर के घेरे तक ही सीमित रही। मैरी का 80 किलो वजनी शरीर पूर्णतया भस्मीभूत होकर कर चार किलो राख में परिवर्तित हो गया। वेन्टेल की भाँति उसका भी एक पैर अधजला उस घेरे में बच गया था। खोपड़ी सिकुड़ कर सन्तरे के आकार में बदल गई थी।

अवशेषों की जाँच के लिये पेन्सिलवानिया स्कूल ऑफ मेडिसिन के फिजिकल एन्थ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर डा. विल्टन क्रोगमंन के पास भेजा गया तो खोपड़ी की आकृति देख कर वे आश्चर्यचकित रह गए। वह एक ख्याति प्राप्त फरेंसिक वैज्ञानिक थे तथा वर्षों का अनुभव था। अब तक की घटनाओं में ऐसी कोई घटना उनके पास नहीं आई थी की जलने से उपरान्त खोपड़ी सिकुड़कर छोटी हो गई हो। क्योंकि विज्ञान के नियमानुसार जलने के बाद खोपड़ी को या तो फूल जाना चाहिए अथवा टुकड़े- टुकड़े हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस विचित्र अग्निकाण्ड में खोपड़ी सिकुड़कर छोटा हो जाना निस्संदेह एक आश्चर्यजनक बात है। अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने यह बताया कि बाहर घण्टे तक लगातार तीन हजार डिग्री फारेनहाइट तापक्रम पर रहने पर भी शरीर की सम्पूर्ण हड्डियाँ जलकर भस्मसात् हों ऐसा अब तक देखा सुना नहीं गया था। पर यह घटना अपने में सबसे विलक्षण है। जिसकी यथार्थता पर बिल्कुल ही संदेह करने की गुंजाइश नहीं हैं।

नैशविल यूनिवर्सिटी के गणित विभाग के प्रो. जेम्स हैमिल्टन ने आप बीती एक घटना का उल्लेख किया है। 1835 में वे उक्त विश्व-विद्यालय में प्रोफेसर थे, अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि “एकाएक मुझे अपने बांये पैर के निचले हिस्से में तीव्र जलन महसूस हुई। झुककर उस भाग को देखा तो स्तम्भित रह गया। जलन वाले भाग से लगभग 10 सेन्टीमीटर लम्बी लौ निकल रही थी। यह लौ ठीक उसी प्रकार की थी जैसे कि लाइटर आदि जलाने से निकलती है। पर कुछ ही क्षणों बाद वह अपने आप बुझ गई। आग किन कारणों से लगी यह आज भी हमारे लिए अविज्ञात है।”

पेरिस की 1851 में घटी एक घटना और भी अधिक आश्चर्यजनक है। “ग्रेट मिस्ट्रीज” पुस्तक के लेखक हैं इलेनार वान जान्ड्ट तथा राय स्टेमन। पुस्तक में वर्णित घटना के अनुसार एक व्यक्ति ने अपने एक मित्र से शर्त लगाई कि वह जलती मोमबत्ती को निकल सकता है। सत्यता को परखने के लिए दूसरे मित्र ने उसकी ओर तुरन्त एक जलती मोमबत्ती बढ़ा दी। जैसे ही उस व्यक्ति ने निगलने के लिए मोमबत्ती को अपने मुँह की ओर बढ़ाया वह जोर से ही चिल्लाया। मोमबत्ती की लौ से उसके होठों पर नीली लौ दिखने लगी। आधे घण्टे के भीतर ही पूरे शरीर में आग फैल गई और कुछ ही समय में उसके शरीर के अंगों, माँसपेशियों, त्वचा एवं हड्डियों को जलाकर राख कर दिया।

अग्नि के भौतिक जगत में अगणित प्रयोग हैं। प्राणाग्नि का स्तर उसमें कुछ ऊँचा ही है नीचा नहीं। यदि उसका स्वरूप और प्रयोग जाना जा सकता है तो हानियों से बचना और लाभों को उठाना यह दोनों ही प्रयोजन भली प्रकार पूर्ण हो सकते हैं।

(अखंड ज्योति-जनवरी,१९८६)

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