पुरुषार्थ द्वारा प्रारब्ध का निर्माण.



पुरुषार्थ द्वारा प्रारब्ध का निर्माण.

प्रारब्ध एवं पुरुषार्थ में कौन प्रधान है यह प्रश्न सदा से चला आ रहा है। मनुष्य अपने बुद्धिबल से इस सम्बन्ध में कई निर्णय करता आ रहा है। कभी अनेक उदाहरणों के आधार पर प्रारब्ध की प्रधानता बताई है और कभी पुरुषार्थ की। इस दुहरे निर्णय से साधारण मानव इसके वास्तविक मर्म को समझते समय एक दुविधा एवं उलझन में पड़ जाते हैं। आज के वैज्ञानिक एवं बौद्धिक युग में अन्य गुत्थियों की तरह इसका सही निर्णय कर वास्तविकता का पता लगाना आवश्यक है।

पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध की वास्तविकता का रहस्य जानने के लिए सर्वप्रथम हमें इसके मूल ‘कर्म’ की रूप-रेखा समझनी आवश्यक है। ‘कर्मणा गहनो गति’ के अनुसारी कर्म की गति भी गहन ही बताई गई है, फिर भी साधारण जानकारी एवं ऋषियों के अनुभवों के आधार पर इस पर विचार करना चाहिए। हमारे पूर्वज ऋषियों ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त कर ली थी, जो अब भी हमारा मार्ग प्रदर्शन कर रही है। समय के भेद से कर्म के भी तीन भेद किये गये हैं। (1) क्रियमाण कर्म, (2) संचित कर्म एवं (3) प्रारब्ध कर्म। यहाँ कर्मों के इन तीन स्वरूपों और प्रभावों पर बिना किसी उलझन में पड़े साधारण बुद्धि से निर्णय करना चाहिए।

क्रियमाण कर्म

मनुष्य को अपनी आयु के विकास के साथ “मैं” का भाव होने लगता है। अपने अल्प ज्ञान के कारण देह से होने वाली क्रियाओं में “मैं करता हूँ” यह भावना करने लगता है। क्रियमाण कर्म का अर्थ वर्तमान काल में होने वाले कर्मों से है। वर्तमान काल वह है जिसमें जीव आत्मा व्यक्त अर्थात् साकार (प्रकट) रूप से शरीर धारण करके आता है) इस शरीर से होने वाले कार्य क्रियमाण कर्म कहलाते हैं। जब यदि “मैं करता हूँ” की भावना रहती है तो ये क्रियमाण कर्म आगे आकर संचित एवं प्रारब्ध का रूप बन जाते हैं और फिर वे परिपक्व होकर संस्कार बनते हैं। एक ही प्रारब्ध एवं संचित कर्म और संस्कार आदि के प्रभाव से अनेक कर्मों का सूत्रपात होता है और यह कर्म की गहन गति जीवात्मा को बन्धन में डाले रहती हैं और भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण कराती रहती है। अतः क्रियमाण कर्म वे हुए जो वर्तमान जीवन काल में किए जा रहे हैं।

क्रियमाण कर्म का स्वरूप मनुष्य की स्वयं कार्य करने की इच्छा पर निर्भर है। ईश्वर ने प्रत्येक जीव को कार्य करने की स्वतंत्रता दी है। इसमें जीव तनिक भी परतन्त्र नहीं हैं। यह अवश्य है कि पूर्व संस्कार जीवात्मा को अपने अनुकूल कार्य करने के लिए अवश्य ललचाते हैं। अशुभ संस्कार अशुभ कर्म एवं शुभ संस्कार शुभ कर्म करने के लिए ललचाते हैं। इस लालच में पड़ने या न पड़ने के लिए मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है। अपने दृढ़ निश्चय से इन संस्कारों के प्रभाव से बचा जा सकता है। पूर्ण भोजन कर लेने पर भी अपनी पूर्व जन्मों की पशुवृत्ति से अधिक खा लेने के संस्कारों के प्रभाव से अधिक खा लेने, जीवात्मा के कल्याण के विपरीत कार्य करना ये सब पूर्व संस्कारों के आकर्षण से होता है। इन प्रलोभनों से बचने के लिए भी मनुष्य स्वतंत्र है। वर्तमान काल में मनुष्य दान पुण्य करके आगे स्वर्ग भी प्राप्त कर सकता है, भगवद्भजन, सेवा, परमार्थ में लगकर ईश्वर प्राप्ति भी कर सकता है। यही नहीं भौतिक जगत में पूर्ण प्रयत्न करके धनी, विद्वान, नेता, महान पुरुष आदि बन सकता है और उसी प्रकार बुरे कर्म करके नारकीय यन्त्रणायें भोग सकता है।

अतः वर्तमान काल में मनुष्य का पुरुषार्थ प्रधान है। अपने पुरुषार्थ के बल पर भावी जीवन को कैसा भी बनाया जा सकता है। पुरुषार्थ वर्तमान काल में परम बलवान है। प्रारब्ध एवं अन्य कोई सत्ता इसे रोक नहीं सकती। ऐसे पुरुषार्थी महान पुरुषों से इतिहास भरा पड़ा है जिन्होंने बड़ी-2 कठिनाइयों एवं विपरीत परिस्थितियों को सहन करते हुए पुरुषार्थ के बल से असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया है। बड़े-बड़े निर्माण कर्म एवं परिवर्तन कार्य इस पुरुषार्थ के बल से किए जाते हैं। अतः वर्तमान काल में पुरुषार्थ की प्रधानता एवं उपादेयता को स्वीकार करना आवश्यक है।

संचित कर्म

संचित कर्मों की नींव क्रियमाण कर्म हैं। इन क्रियमाण कर्मों में कुछ तो वर्तमान काल में ही भोग लिए जाते हैं और कुछ शेष रह जाते हैं। ये शेष रहे क्रियमाण कर्म चित्त में इकट्ठे होते रहते हैं। कर्मों का यह अक्षय भण्डार बिना भोगे समाप्त नहीं होता है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते करते भी जीव इन्हें भोगते भोगते समाप्त नहीं कर पाता। क्योंकि दूसरे नये अशुभ कर्मों के साथ रक्त बीज की भाँति ये बढ़ते रहते हैं। इस तरह यह भंडार बढ़ता ही रहता है। ऐसी परिस्थिति में जीव की मोक्ष का कोई ठिकाना ही नहीं। लेकिन इसके लिए भी भगवान ने मार्ग बताया है। गीता में भगवान ने ऐसी युक्ति बताई है, जिससे जैसे घास के मीलों लम्बे ढेर को एक आग की चिनगारी जलाकर भस्म कर देती है उसी तरह—

“ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात् कुसते तथा”

इन कर्मों के अक्षय भंडार को ज्ञानरूपी अग्नि ही भस्म करती है। पवित्र अनुभवमय एवं साक्षात्कार मय ज्ञान का प्रकाश जब हृदय में उत्पन्न होता है तो सारे संचित कर्म जल जाते हैं। जीव की लम्बी यात्रा समाप्त होती है।

प्रारब्ध कर्म

चित्त रूपी गोदाम में संचित कर्म जो कि व्यवस्थापूर्वक एक के पीछे एक परतों की भाँति इकट्ठे होते हैं समय पर परिपक्व होकर कालाँतर में भोगने के लिये प्रारब्ध का रूप लेकर आते हैं। परिपक्व होने पर ये कर्म और भी शक्ति -शाली हो जाते हैं। अतः ये भोग काल में अपनी कई गुनी शक्ति से जीवात्मा को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यही कारण है कि मनुष्य कई विपरीत परिस्थितियों में स्वयं ही फँसकर दुःख एवं परेशानियाँ उठाते हैं। अतः भूतकाल में किए हुये कर्म परिपक्व होकर कालान्तर में भोगने के लिए प्रारब्ध का रूप बनकर आते हैं।

जिन-जिन कर्मों को भोगने के लिए अमुक-अमुक देह धारण करने पड़ते हैं, उनमें उन्हें भोगना ही पड़ता है। बिना भोगे प्रारब्ध का नाश नहीं होता है। जैसे कोई व्यक्ति अमरूद का पेड़ लगाता है। समय पर उसमें अमरूद आने लग जाते हैं। वह अमरूद खाते-खाते ऊब जाता है और इच्छा करता है कि “अब आम खाऊँ “ किन्तु अमरूद के पेड़ में तो आम लगने से रहे। आम खाना है तो आम का पेड़ लगाना पड़ेगा और उसमें भी काफी समय बाद आम आने लगेंगे। तब तक तो अमरूद खाने ही पड़ेंगे। यही बात प्रारब्ध भोग के सम्बन्ध में है। एक दिन स्वयं की इच्छा सो किए कर्म आज प्रारब्ध बनकर आ गये हैं तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा।

साधारणतया प्रारब्ध के दो भाग कर सकते हैं। एक साधारण या निर्बल प्रारब्ध—जैसे भौतिक वस्तुओं का अभाव, जीविका की कमी, अज्ञानता, स्वास्थ्य विकृति आदि आदि। इन सबको प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से हल किया जा सकता है। जैसे कि महापुरुष अपनी विपरीत एवं कठिन परिस्थितियों को बदलकर अपने अनुकूल परिस्थितियाँ बना लेते हैं।

दूसरा होता है असाधारण अथवा अटल प्रारब्ध। यह तो अवश्य भोगना ही पड़ता है। जैसे आग लगना, भयंकर प्राणाघात, बीमारी, बिजली पड़ना, आदि। ये अटल प्रारब्ध जीव पर इस तरह आते हैं कि इनसे बचने के लिए प्रयत्न करने का अवसर भी नहीं मिलता।

वैसे अधिकतर प्रारब्धों को भोगना पड़ता है। क्योंकि वे इतने “मध्यकाल” में जब परिपक्व होकर आते हैं तो उनका बल एवं आकर्षण शक्ति कई गुना हो जाती है। आध्यात्मिक एवं आत्मबल से रहित व्यक्ति उनके आकर्षण से बच नहीं सकता। अध्यात्म शक्ति एवं आत्मबल के विकसित होने पर बड़े-2 प्रारब्धों के आकर्षण से बचा जा सकता है।

विवेक एवं ज्ञान से भी प्रारब्ध से उत्पन्न होने वाली अशान्ति, दुःख, कठिनाई आदि को शान्ति में बदला जा सकता है। प्रारब्ध कर्म हमारे एक समय सोच समझकर किये हुये कर्मों के परिणाम स्वरूप ही तो भोगने के लिए आते हैं अतः स्वयं ही कारण समझकर आत्मसंतोष करना चाहिए। इससे प्रारब्ध भोगने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई अशान्ति, उद्विग्नता, आदि से छुटकारा मिलेगा और उन्हें शान्ति से एवं गंभीरता से भोगा जा सकेगा। यही कारण है कि भगवद्भक्त , योगी, महापुरुष प्रारब्ध भोगने से अधिक व्याकुल नहीं होते न खुश ही होते हैं। उन्हें प्रभु की इच्छा या स्वयं की कृति का फल समझकर संतोषपूर्वक सहन कर लेते हैं। यहाँ तक कि इनको वे महसूस भी नहीं करते और अपने पवित्र लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। मन की ऐसी समत्व स्थिति ही जीवन मुक्ति का मूल होती है। प्रारब्धवश आये सुख दुःख आदि में समत्व भाव से स्थिति हुआ व्यक्ति जीवन मुक्त ही तो है। अतः प्रारब्ध के इस रहस्य को जान लेना जीवात्मा को समत्व प्रदान करता है और जन्म मरण से निकालता है।

साराँश में संचित कर्मों का क्षय ज्ञान से हो जाता है, प्रारब्ध कर्म का भोगने एवं इसके वास्तविक तत्व को जान लेने से होता है। शेष रहता है क्रियमाण कर्म। क्रियमाण कर्म के अंतर्गत पुरुषार्थ प्रधान है अतः अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए पुरुषार्थ करना मानव की विशेषता है। इसी तरह समत्वभाव, एवं ज्ञान की प्राप्ति में साधना, संयम, तपश्चर्या रूपी प्रयत्न या पुरुषार्थ करना पड़ता है। अतः पुरुषार्थ की प्रधानता एवं महत्ता को स्वीकार कर उन्नति पथ पर अग्रसर होना मानव की विशेषता है। आज की तदवीर कल की तकदीर है। कल की जैसी तकदीर का निर्माण करना है वैसी तदवीर इसी क्षण से प्रारम्भ कर देना चाहिए।

(श्री शंभूसिंह कौशिक)

कोई टिप्पणी नहीं: