(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत
पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वादश
अध्यायः श्लोक 38-56
का हिन्दी अनुवाद
इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्सा शास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्र विद्या), गान्धर्ववेद (संगीत शास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्प विद्या)- इन चार उपवेदों को भी क्रमशः उन पूर्वादी मुखों से ही उत्पन्न किया। फिर सर्वदर्शी भगवान् ब्रह्मा ने अपने चारों मुखों से इतिहास-पुराणरूप पाँचवाँ वेद बनाया। इसी क्रम से षोडशी और उक्थ, चयन और अग्निष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसव- ये दो-दो याग भी उनके पूर्वादी मुखों से ही उत्पन्न हुए। विद्या, दान, तप और सत्य- ये धर्म के चार पाद और वृत्तियों के सहित चार आश्रम भी इसी क्रम से प्रकट हुए। सावित्र, प्राजापत्य, ब्राह्म और बृहत्,- ये चार वृत्तियाँ ब्रह्मचारी की हैं तथा वार्ता, संचय, शालीन और शिलोञ्छ- ये चार वृत्तियाँ ग्रहस्थ की हैं। इसी प्रकार वृत्ति भेद से वैखानस, वालखिल्य, औदुम्बर और फेनप- ये चार भेद वानप्रस्थों के तथा कुटीचक, बहूदक, हंस और निष्क्रिय (परमहंस- ये चार भेद संन्यासियों के हैं। इसी क्रम से आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति- ये चार विद्याएँ तथा चार व्याहृतियाँ भी ब्रह्मा जी के चार मुखों से उत्पन्न हुईं तथा उनके हृदयाकाश से ॐकार प्रकट हुआ। उनके रोमों से उष्णिक्, त्वचा से गायत्री, मांस से त्रिष्टुप्, स्नायु से अनुष्टुप्, अस्थियों से जगती, मज्जा से पंक्ति और प्राणों से बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पंचवर्ग) और देह स्वर वर्ण (अकारादि) कहलाया। उनकी इन्द्रियों को उष्मवर्ण (श ष स ह) और बल को अन्तःस्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीड़ा से निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम- ये सात स्वर हुए। हे तात! ब्रह्मा जी शब्दब्रह्मस्वरूप हैं। वे वैखरीरूप से व्यक्त और ओंकार रूप से अव्यक्त हैं तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म है, वही अनेकों प्रकार की शक्तियों से विकसित होकर इन्द्रादि रूपों में भास रहा है। विदुर जी! ब्रह्मा जी ने पहला कामासक्त शरीर जिससे कुहरा बना था-छोड़ने के बाद दूसरा शरीर धारण करके विश्व विस्तार का विचार किया; वे देख चुके थे कि मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियों से भी सृष्टि का विस्तार अधिक नहीं हुआ, अतः वे मन-ही-मन पुनः चिन्ता करने लगे- ‘अहो! बड़ा आश्चर्य है, मेरे निरन्तर प्रयत्न करने पर भी प्रजा की वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्न डाल रहा है। ‘जिस समय यथोचित क्रिया करने वाले श्रीब्रह्मा जी इस प्रकार दैव के विषय में विचार कर रहे थे, उसी समय अकस्मात् उनके शरीर के दो भाग हो गये। ‘क’ ब्रह्मा जी का नाम है, उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को ‘काय’ कहते हैं। उन दोनों विभागों से एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। उनमें जो पुरुष था, वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुई। तब से मिथुन धर्म (स्त्री-पुरुष-सम्भोग) से प्रजा की वृद्धि होने लगी। महाराज स्वायम्भुव मनु ने शतरूपा से पाँच सन्तानें उत्पन्न कीं। साधुशिरोमणि विदुर जी! उनमें प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति- तीन कन्याएँ थीं। मनु जी ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से किया, मझली कन्या देवहूति कर्दम जी को दी और प्रसूति दक्ष प्रजापति को। इन तीनों कन्याओं की सन्तति से सारा संसार भर गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें