पंचकोश-विज्ञान.
योग साधना के द्वारा शरीर और मन की बनावट को समझने के लिए पंचकोश का ज्ञान होना आवश्यक है। योग की सभी क्रियाएं इन पंचकोशों पर आधारित हैं। बिना पंचकोशों को समझे योग साधना करना बहुत कठिन है। आज के इस तेजी से बदलते हुए वातावरण के साथ मानव जीवन में भी बदलाव आते रहते हैं। इन बदलावों के परिणाम स्वरूप हमेशा एक नये रोग उत्पन्न होते रहते हैं। आधुनिक युग के ऐसे वातावरण में आध्यात्मिक व आलौकिक दिव्य ज्ञान प्राप्त करना तो दूर मनुष्य को स्वयं के मन व शरीर को स्वस्थ रखना भी एक कठिन समस्या है। अत: पंचकोशों पर आधारित सभी वैज्ञानिक विधियों को अपनाकर मानव जीवन को सफल बनाया जा सकता है। इसके लिए उसे केवल सम्यक ज्ञान, सम्यक आचरण और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है।
शरीर 5 कोश के आवरण से ढका हुआ है...
• अन्नमय कोश.
• प्राणमय कोश.
• मनोमय कोश.
• विज्ञानमय कोश.
• आनन्दमय कोश.
अन्नमय कोश.
योग और उपनिषदों की परम्परा में इन विचारधारा को तैतरेय उपनिषद् में इस प्रकार वर्णित किया गया है...
वरुण अपने पुत्र भृगु को सत्य की खोज के लिए मार्ग दर्शन करते हैं। एक बार भृगु अपने पिता से पूछते हैं- ´´हे पिताश्री! कृपया मुझे बताएं कि वह कौन सा आधारभूत अपरिवर्तनशील शाश्वत नियम है, जिसे ब्रह्म या चेतना के नाम से जाना जाता है।´´ पुत्र के मुख से पिता यह प्रश्न सुनकर कहते हैं- ´´हे पुत्र! तुम जाओ और पता लगाओ कि वह कौन सा आधारभूत साधन , जिससे संसार की उत्पत्ति, पालन और विनाश होता है।´´इस तरह पिता के ऐसे प्रश्न को सुनकर भृगु उस ज्ञान का पता लगाने के उद्देश्य से तपस्या के लिए चला जाता है और तपस्या से लौटने पर अपने पिता के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहता है-
अन्नं ब्रह्येति व्यजानात्। अन्नाद्धयेव खिल्वमानि भूतानि जायन्ते।
अन्नेन जातानि जीवन्ति। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।
तद्विज्ञाय पुनरेव वरूणं पितारमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्येति।
त होवाच। तपसा ब्रह्य विजिज्ञासस्व।
तपो ब्रह्येति। स तपोऽतत्यत। स तपप्तवा।।
अर्थात... इस संसार की सभी वस्तुओं का अवलम्बन ´अन्न´ (पदार्थ) ही है। अन्न से ही सभी पदार्थों की उत्पत्ति हुई है और अन्न ही पालन करने वाला है और अंत में सभी वस्तुएं इसी में समाहित हो जाती हैं। अत: अन्न के द्वारा ही इस संसार का संचालन होता है।
भृगु के द्वारा दिये गए प्रश्न का उत्तर सुनकर पिता वरुण अति प्रसन्न होते हैं। वे यह सोच कर प्रसन्न होते हैं कि उसका पुत्र कम से कम बाहरी दुनिया के एक सामान्य सिद्धान्त के विषय में जान गया है। इस प्रकार पार्थिव शरीर को अन्नमयकोश कहा गया है।
अन्नमयकोश का वैज्ञानिक मत.
आज के वैज्ञानिकों ने इस विषय में खोज करने के बाद अन्नमयकोश को ही संसार का संचालक कहा है। विज्ञान ने अन्नमयकोश की सूक्ष्मताओं को सफलतापूर्णक उजागर किया है। विज्ञान द्वारा संसार की परिवर्तनशील आधारभूत इकाई के लिए बाहरी जगत के ठोस पदार्थ से ही खोज प्रारंभ की गई है, जिसे सरलता व सुगमता से समझा और अलग किया जा सकता है तथा जिस पर प्रयोग भी किया जा सकता है। इस खोज ने उस समस्त विश्व को जानने की ओर विज्ञान को अग्रसर किया है, जिसका श्रीगणेश तत्वों, अणु, परमाणुओं, आवंतों, क्लीवाणुओं तथा विद्युत अणुओं से हुआ है।
इन खोजों के द्वारा ही विज्ञान जान पाया है कि यह सभी ऊर्जा का समूह है। अलग-अलग रसायनों के बनने में अणु परस्पर पिण्डीभूत होते हैं। हमारा शरीर अनेक रसायनों के जोड़-तोड़ से बना है। यह सभी ऊर्जा का भण्डार है और जब इनका परस्पर संगम होता है तो अणु कोशिकाएं एवं ऊतक अंग आदि बनते हैं। परमाणु प्रकृति द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करते हैं। इसका नियंत्रण विद्युतीय और रसायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा होता है, जिससे सभी कोशिकाओं में गति और क्रिया उत्पन्न होती है। अत: अन्नमयकोश ही सभी पंचकोशों में स्थूलतम रूप में शारीरिक ढांचा है।
प्राणमयकोश.
पिता वरूण अपने पुत्र भृगु से कहते हैं- ´´प्रिये पुत्र! तुमने जो खोजा है, उससे भी अधिक सूक्ष्म कुछ और इस संसार में मौजूद है। इसलिए तुम फिर जाओ और उस सूक्ष्म शक्ति की खोज करो।´´
यह सुनकर भृगु पुन: उस सत्य की खोज में निकल जाता है। खोज करने के बाद भृगु लौटकर आता है और कहता है..
प्राणों ब्रह्येति व्यजानात्। प्राणाद्वये खिल्वमानि भूतानि जायन्ते।
प्राणेन जातानि जीवन्ति। प्राणं प्रयन्न्त्यभिसंविशन्तीति।
तद्विज्ञाय पुनरेव वरूणं पितरमु पसनार। अधीहि भगवो ब्रह्येति।
त होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व।
तपो ब्रह्येति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा।।
अर्थात... हे पिता श्री! जिससे स्थूल अन्नमयकोश की उत्पत्ति हुई है, उसे जीवन ऊर्जा अर्थात प्राण कहते हैं।
यहां जिस प्राण अर्थात जीवन ऊर्जा की बातें हो रही हैं, वह कोई भौतिक विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा नहीं है। आधुनिक विज्ञान को इस शक्ति के बारे में केवल यही पता है कि विद्युत, ध्वनि, प्रकाश, रेडियो तरंग तथा एक्स किरण सरीखी ऊर्जाएं अन्नमयकोश से सम्बंधित हैं, जो ऊर्जा के नियमों से बंधी हैं। परन्तु यहां जिस प्राण का वर्णन किया गया है, वह ऊर्जा शक्ति सूक्ष्मतर है और न ही सामान्य ऊर्जाओं के नियमों का अनुपालन करती है। यह वह ऊर्जा है जो बिना किसी बाहरी साधन के अपने आप बढ़ या घट सकती है। शरीर में प्राण का प्रभाव समुचित रूप में होने से अन्नमयकोश की प्रत्येक कोशिका जीवित और स्वस्थ रहती है। प्राण शरीर (अन्नमयकोश) के विभिन्न स्थानों में संचार करने में सक्षम है। यह शरीर की मांग पर निर्भर करता है।
प्राण का बहाव सूक्ष्म धाराओं से प्रवाहित होता है, जिन्हें नाड़ियां कहते हैं। प्राण का यह प्रवाह मुख्य 5 धाराओं में होता है, जिसके फलस्वरूप शरीर की क्रिया सम्पन्न होती है। ´अपान´ प्राण की अधोगामी शक्ति के कारण मल-मूत्र, रजोधर्म, स्खलन एवं प्रसव आदि क्रियाएं सम्भव होती हैं। श्वास-प्रश्वास क्रिया जिसके द्वारा सम्पन्न होता है, उसे ´प्राण´ कहते हैं।
शरीर में उल्टी आदि क्रिया ´उदान´ प्राण के कारण सम्पन्न होती है। ´समान´ प्राण का सम्बंध ´प्राण´ तथा ´अपान´ में संतुलन स्थापित करने से है। ´व्यान´ का सम्बंध उस प्राण से है, जिससे तन्त्रिका का ज्ञान, रक्त संचार तथा सभी कोशिकाओं की कोशिकीय प्रक्रियाएं संचालित होती हैं। ये पांचों प्राणों का संतुलन स्वास्थ्य और असंतुलन रोग का प्रतीक है।
मनोमयकोश.
भृगु द्वारा प्राणमयकोश का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उसके पिता वरुण ने पुन: अपने पुत्र (भृगु) से तप करने के लिए कहा। पिता के द्वारा मिली आज्ञा को पूरा करने के लिए भृगु पुन: तप के लिए चला जाता है और जब तप से लौटकर आता है और कहता हैं कि...
मनो ब्रह्मेति व्यजानात्। मनसो ह्येव खाल्विमानि भूतानि जायन्ते।
मनसा जातानि जीवन्ति। मन: प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।
तद्विज्ञाय पुनरेव वरूणं पिता रमुपक्षसार। अधीहि भगवो ब्रह्येति।
होवाच। तपसा ब्रह्य विजिज्ञासस्व।
तपे ब्रह्येति। स तपोऽतप्यता। स तपस्तप्त्व।।
अर्थात... भृगु अपने पिता से कहते हैं- ´´हे गुरू देव! मैं यह जान गया हूं कि सभी वस्तुओं का साधन मन ही है। इसी को मनोमयकोश कहते हैं। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व का पक्ष है जिसमें चित्त, अहंकार और मन की विभिन्न क्रियाएं संचालित होती हैं।
मन का वर्णन विचार पिण्डों के समूह से किया गया है, जो ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जुड़ा होता है। मन के विचारों को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही ग्रहण किया जाता है और उसका उत्तर भी उसी के द्वारा दिया जाता है। उदाहरण के लिए जब हम किसी वस्तु को देखते हैं तो उसकी सूचना मस्तिष्क को आंखों के द्वारा ही भेजी जाती है। तब मस्तिष्क में आंखों के द्वारा भेजी गई तस्वीर को उसी रूप में देखते हैं, जिस रूप में वह है। मन के द्वारा इस तरह किसी तस्वीर को देखने पर मन में एक विचार भावना पैदा होती है। विचार के द्वारा मन निरीक्षण करता है कि वह क्या है। विचार मन को भ्रमण कराता है जिससे मन किसी वस्तु के अच्छे-बुरे आदि का वर्णन करता है। मन विचारों के वश में होकर लालसा, इच्छा, पाने या न पाने का मनोमयकोश के इस अवयव को भावना का केन्द्र कहा जाता है।
मन में उत्पन्न विचारों का भाव वस्तु को प्राप्त करने या न करने या अच्छे-बुरे लक्षणों से होता है। जिसका आधार ´मैं´ में अहम भाव का होना है। यह मानव-भावना ही सुख और दु:ख का आधारभूत कारण है। जब मन की भावना शक्तिशाली हो जाती है तो कार्यों पर नियंत्रण होने लगता है। मन के इन नियमों के विरूद्ध कार्य करने से असंतुलन पैदा होता है, जिन्हें आधि तनाव कहा जाता है। मन में उत्पन्न तनाव जब प्राणमयकोश और अन्नमयकोश में चला जाता है, तब शरीर में रोग आदि उत्पन्न होते हैं। मनोमयकोश मनुष्य के मानसिक और भावनात्मक क्रिया का केन्द्र है, जो जीवन सत्ता की सूक्ष्मतम परत है। इसलिए कहा गया है- आप वही हैं, जो अपने बारे में सोचते हैं।
भृगु ने अपनी तपस्या के द्वारा इस बातों को जाना है। उनकी यह जानकारी न केवल अपने लिए बल्कि समग्र सृष्टि के लिए आधार बनी है।
विज्ञानमय कोश.
भृगु जब अपनी अदभुत खोज का विवरण, वरुण (पिता) को देते हैं तो वरुण (पिता) इस अदभुत खोज को देखकर बहुत प्रसन्न होते हैं। परन्तु वे पुन: अपने पुत्र भृगु को कहते हैं- ´´इसी प्रकार अनुसंधान कार्य करते रहो। तुम जीवन के अस्तित्व की प्राप्ति की सही दिशा में जा रहे हो। इसलिए अपने ज्ञान को और खोजों को आगे की ओर बढ़ाते रहो।´´ इस तरह अपने पिता की आज्ञा को मानकर भृगु पुन: तप के लिए चला जाता है और तप से लौटने के बाद अपने पिता से कहता है कि..
विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्। विज्ञानाहद्धयेव खिल्वमानि भूतानि जायन्ते।
विज्ञानेन जातानि जीवन्ति। विज्ञानेन प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।
तद्विज्ञाय पुनरेव वरूणं पितारमुससार। अधीहि भगवो ब्रह्येति।
त होवाच। तपसा ब्रह्य विजिज्ञासस्व।
तपो ब्रह्येति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा।।
अर्थात... ´´सम्पूर्ण संसार का संचालन केवल विज्ञानमयकोश द्वारा ही होता है और यही अंतिम सत्य है। जीवन सत्ता की चौथी परत विज्ञानमयकोश है। वास्तव में मन की दो भावना होती है- अच्छी और बुरी।
जब मन को कोई वस्तु अच्छी लगती है तो वह उसे पाना चाहता है। मन की ऐसी अवस्था में बुरे भाव जागते हैं जो किसी भी तरह उस वस्तु को पाना चाहते हैं। परन्तु तभी मन का दूसरा भाव आंतरिक मन जाग उठता है और कहता है कि वस्तु को प्राप्त करने का यह गलत तरीका है क्योंकि वह आपकी नहीं है, वह किसी दूसरे की चीज है। इस तरह मन में आंतरिक भाव उत्पन्न होने पर मन कार्य को रोक देता है। हमारे अन्दर बुरी भावना को उत्पन्न होने को रोकने वाली यही अंतरात्मा है, जो हमारा मार्ग दर्शन करती है और यही विज्ञानमयकोश है। मन का यह भाव मानव जाति में अधिक विकसित हुआ है जिससे मानव और पशु में अन्तर किया जाता है।
आनन्दमय कोश.
आनन्दो ब्रह्येति व्यजानात्। आनन्दाद्धयेव खिल्वमानि भूतानि जायन्ते।
आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्द प्रयन्त्यभिसं विशन्तीति।
सैषा भार्गवी वारूणी विद्य परमे व्योमन् प्रतिष्ठिता। स य एवं वेद प्रतितिष्ठिति।
अन्नवान्नादो भवति। महान् भवति प्रजय पशुभि।
व्रह्यवर्चसेन महान् कीर्त्या।।
विज्ञानमयकोश क्या है, इसे जानने के पश्चात् अब पिता अपने पुत्र भृगु को पुन: तपस्या के लिए भेजता है। भृगु तपस्या के लिए जाता है परन्तु वह लौटकर पिता के पास नहीं आता है। उसके पिता यह जानने के लिए जाते है कि भृगु अभी तक लौटकर क्यों नहीं आया? जब वे देखने जाते हैं, तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य होता है कि भृगु पूर्ण रूप से परमानन्द में डूबा हुआ है। उन्होंने देखा की भृगु को सत्य का ज्ञान हो गया है। उसके अन्दर ´मैं´ का नाश हो गया था। भृगु में सांसारिक वस्तु की इच्छा समाप्त होकर अंतिम सत्य में स्थापित हो चुका था। उसे ज्ञान हो गया है कि इस संसार का आन्नद ही एक मात्र आधारभूत तत्व है, जो हमारी सत्ता की आनन्दमयी परम है। यही जीवन सत्ता का सबसे सूक्ष्म पक्ष है, जो किसी भी प्रकार की भावनाओं से वंचित है। यह स्थिति पूर्ण शांति और सभी समरसता व पूर्ण स्वास्थ्य वाला है।
मनोमय कोश में रचनात्मक शक्ति (काल्पनिक शक्ति) सबसे शक्तिशाली होती है। विज्ञानमय कोश में प्रभेद और भेद की शक्ति होती है। आनन्दमय कोश सत्ता के विकास की उच्चतम स्थिति है। मानव अस्तित्व की पांचों परत में यह सूक्ष्मतम है। मानव द्वारा तप करने पर धीरे-धीरे जीवन सभी कोशों के बंधनों से मुक्त होकर अपने परम पारलौकिक सुख को प्राप्त करता है। उपनिषदों में इन पंचकोशों के बारे में बताया गया है कि मानव जीवन को अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाने के अनेक उपायों में से यह एक उपाय है।
तैत्तरीयोपनिषद में पंचकोशों का अपना एक अलग विचार है। अन्य किसी उपनिषद में यह विचार नहीं पाया जाता। स्थूल शरीर अन्नमय कोश है जिसके भीतर प्राणमय कोश है। अन्नमयकोश के अन्दर प्राणमयकोश होता है और दोनों का आकार समान होता है। प्राणमयकोश के अन्दर मनोमयकोश, मनोमयकोश के अन्दर विज्ञानमयकोश और विज्ञानमयकोश के अन्दर आनन्दमयकोश है। इस तरह सभी कोश अपने अन्दर मौजूद कोशों से पूर्ण होता है।
इन पंचकोशों में अन्नमय से प्राणमय, प्राणमय से मनोमय, मनोमय से विज्ञानमय, विज्ञानमय से आन्नदमय सूक्ष्म होता है। इन सभी कोशों का आकार समान होता है। भृगु बल्ली के प्रथम अनुवाद से अंतिम अनुवाद तक भृगु ने अन्न, प्राण, मन, विज्ञान तथा आनन्द को ब्रह्म मानकर उनकी बारी-बारी से उपासना की और यह ज्ञान प्राप्त किया कि ब्रह्म है या नहीं। पंचकोशों के अनुसार धीरे-धीरे आत्मज्ञान तथा ब्रह्म ज्ञान करना है।
अध्यात्म की ओर ज्ञान प्राप्त करने वाला पहले ´अन्न´ को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता है, परन्तु कुछ समय तक साधना करने पर उसे पता चलता है कि यह ´अन्न´ भौतिक वस्तु है, अत: यह ब्रह्म नहीं है। इस तरह दूसरे, तीसरे व चौथे कोशों को ब्रह्म मानकर उसकी साधना करता है और उसे ज्ञान होता है कि यह सत्य नहीं है। इसके बाद ´आनन्दमय कोश´ को ब्रह्म मानकर साधना करता है, परन्तु कुछ समय बाद उसे पता चलता है कि यह भी ब्रह्म नहीं है। इस तरह उसे ज्ञान हुआ कि परमानन्द ज्ञान की प्राप्ति के लिए पांचों कोशों को मिलाकर आध्यात्म की ओर आगे बढ़ना चाहिए जहां अखण्ड आनन्द का भण्डार है। उस आनन्द को वरुण ऋषि ने ब्रह्मानन्द कहा है।
उपनिषदों में लिखा गया है कि विचार उनकी अपनी मूल पद्धति है जिसके द्वारा व्यक्त से अव्यक्त की ओर, ज्ञान से अज्ञान की ओर तथा भौतिक से अध्यात्म की ओर उन्मुख करके पारलौकिक सुख को प्राप्त करता है। ब्रह्म इन पंचकोशों से परे है। इसका अर्थ यह है कि अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द, जिन्हें हम भोक्ता समझते हैं, वास्तव में ये भोक्ता न होकर भोग्य ही हैं। भोक्ता वह है, जो इस तरह के फैलावों से दूर अलग आत्मा तथा ब्रह्माण्ड में ब्रह्म के रूप में विद्यमान है।
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