श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 37-49 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्लोक 37-49 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् की माया ने स्त्री का रूप धारण करके मुझ अधम को फाँस लिया और क्रीड़ामृग की भाँति मुझे बहुत नाच नचाया। अब मैं अपने-आपको उस माया से मुक्त करूँगा। मैंने सत्य वस्तु परमात्मा को पहचान लिया है; अतः अब मैं शरीर आदि में ‘मैं’ तथा ‘मेरे’ का भाव छोड़कर भगवन्नाम के कीर्तन आदि से अपने मन को शुद्ध करूँगा और उसे भगवान् में लगाऊँगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! उन भगवान् के पार्षद महात्माओं का केवल थोड़ी ही देर के लिये सत्संग हुआ था। इतने से ही अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबसे सम्बन्ध और मोह को छोड़कर हरद्वार चले गये। उस देवस्थान में जाकर वे भगवान् के मन्दिर में आसन से बैठ गये और उन्होंने योगमार्ग का आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला दिया। इसके बाद आत्मचिन्तन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक् कर लिया तथा भगवान् के धाम अनुभवस्वरूप परब्रह्म में जोड़ दिया।

इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान् के स्वरूप में स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिल ने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद उन्होंने उस तीर्थस्थान में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदों का स्वरूप प्राप्त कर दिया। अजामिल भगवान् के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान् लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।

परीक्षित! अजामिल ने दासी का सहवास करके सारा धर्म-कर्म चौपट कर दिया था। वे अपने निन्दित कर्म के कारण पतित हो गये थे। नियमों से च्युत हो जाने के कारण उन्हें नरक में गिराया जा रहा था। परन्तु भगवान् के एक नाम का उच्चारण करने मात्र से वे उससे तत्काल मुक्त हो गये। जो लोग इस संसार बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिये अपने चरणों के स्पर्श से तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले भगवान् के नाम से बढ़कर और कोई साधन नहीं है; क्योंकि नाम का आश्रय लेने से मनुष्य का मन फिर कर्म के पचड़ों में नहीं पड़ता। भगवन्नाम के अतिरिक्त और किसी प्रायश्चित का आश्रय लेने पर रजोगुण और तमोगुण से ग्रस्त ही रहता है तथा पापों का पूरा-पूरा नाश भी नहीं होता।

परीक्षित! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापों का नाश करने वाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्ति के साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरक में कभी नहीं जाता। यमराज के दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देख तक नहीं सकते। उस पुरुष का जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोक में उसकी पूजा होती है। परीक्षित! देखो-अजामिल-जैसे पापी ने मृत्यु के समय पुत्र के बहाने भगवान् नाम का उच्चारण किया। उसे भी वैकुण्ठ की प्राप्ति हो गयी। फिर जो लोग श्रद्धा के साथ भगवन्नाम का उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है।

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