(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत
महापुराण:
षष्ठ
स्कन्ध: नवम अध्यायः
श्लोक
41-50 का हिन्दी अनुवाद.
भगवन्! आप हमारे पिता, पितामह-सब कुछ
हैं। हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं। आपके चरणकमलों
का ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हीं के प्रेम बन्धन से बँध गया है। आपने हमारे
सामने अपना दिव्यगुणों से युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है। इसलिये
प्रभो! हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दया भरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुस्कानयुक्त चितवन से
तथा अपने मुखारविन्द से टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दु से हमारे हृदय
का ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तर की जलन बुझाइये।
प्रभो!
जिस प्रकार अग्नि की ही अंशभूत चिनगारियाँ आदि अग्नि को प्रकाशित करने में असमर्थ
हैं, वैसे ही
हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ-परमार्थ निवेदन करने में असमर्थ हैं। आपसे भला,
कहना ही क्या है। क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने वाली दिव्यमाया के साथ विनोद करते रहते हैं तथा
समस्त जीवों के अन्तःकरण में ब्रह्म और अन्तर्यामी के रूप में विराजमान रहते हैं।
केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृति के रूप से आप ही
विराजमान हैं। जगत् में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि हैं, उनके उपादान और
उपादान और प्रकाशक के रूप में आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं। आप सभी वृत्तियों
के साक्षी हैं। आप प्रकाशक के समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त
हैं। आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन
करें-इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषा से हम लोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये। आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न और जगत् के परमगुरु हैं।
हम आपके चरणकमलों की छत्रछाया में आये हैं, जो विविध
पापों के फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकने की थकावट को मिटाने वाली है।
सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण! वृत्रासुर ने हमारे प्रभाव और
अस्त्र-शस्त्रों को तो निगल ही लिया है। अब वह तीनों लोकों को भी ग्रस रहा है,
आप उसे मार डालिये। प्रभो! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध
ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि,
अनन्त और उज्ज्वलकीर्ति सम्पन्न हैं। संत लोग आपका ही संग्रह
करते हैं। संसार के पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरण में आ पहुँचते हैं, तब अन्त में आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार
उनके जन्म-जन्मान्तर के कष्ट को हर लेते हैं। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।
श्रीशुकदेव
जी कहते
हैं- परीक्षित! जब देवताओं
ने बड़े आदर के साथ इस प्रकार भगवान् का स्तवन किया, तब
वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे।
श्रीभगवान्
ने कहा- श्रेष्ठ देवताओं! तुम लोगों ने स्तुतियुक्त ज्ञान से मेरी उपासना की है, इससे मैं तुम लोगों पर
प्रसन्न हूँ। इस स्तुति के द्वारा जीवों को अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति और
मेरी भक्ति प्राप्त होती है। देवशिरोमणियो! मेरे प्रसन्न हो जाने पर कोई भी वस्तु
दुर्लभ नहीं रह जाती। तथापि मेरे अनन्य प्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे
अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते। जो पुरुष जगत् के विषयों को सत्य समझता है,
वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याण को नहीं जनता। यही कारण है कि वह
विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित
वस्तु दे देता है, तो वह भी वैसा ही नासमझ है। जो पुरुष
मुक्ति का स्वरूप जानता है, वह अज्ञानी को भी कर्मों में
फँसने का उपदेश नहीं देता-जैसे रोगी के चाहते रहने पर भी सद्वैद्य उसे कुपथ्य नहीं
देता।
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