(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत
महापुराण:
षष्ठ
स्कन्ध: एकादश अध्यायः
श्लोक
1-13 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव
जी कहते
हैं- परीक्षित! असुर सेना
भयभीत होकर भाग रही थी। उसके सैनिक इतने अचेत हो रहे थे कि उन्होंने अपने स्वामी
के धर्मानुकूल वचनों पर भी ध्यान न दिया। वृत्रासुर ने देखा कि समय की अनुकूलता के कारण देवता लोग असुरों की सेना को खदेड़ रहे हैं और वह इस प्रकार छिन्न-भिन्न हो रही
है, मानो बिना नायक की हो।
राजन्!
यह देखकर वृत्रासुर असहिष्णुता और क्रोध के मारे तिलमिला उठा। उसने बलपूर्वक
देवसेना को आगे बढ़ने से रोक दिया और उन्हें डाँटकर ललकारते हुए कहा- ‘क्षुद्र देवताओं! रणभूमि
में पीठ दिखलाने वाले कायर असुरों पर पीछे से प्रहार करने में क्या लाभ है। ये लोग
तो अपने माँ-बाप के मल-मूत्र हैं। परन्तु अपने को शूरवीर मानने वाले तुम्हारे-जैसे
पुरुषों के लिये भी तो डरपोकों को मारना कोई प्रशंसा की बात नहीं है और न इससे
तुम्हें स्वर्ग ही मिल
सकता है। यदि तुम्हारे मन में युद्ध करने की शक्ति और उत्साह है तथा अब जीवित रहकर
विषय-सुख भोगने की लासला नहीं है, तो क्षण भर मेरे सामने
डट जाओ और युद्ध का मजा चख लो’।
परीक्षित!
वृत्रासुर बड़ा बली था। वह अपने डील-डौल से ही शत्रु देवताओं को भयभीत करने लगा।
उसने क्रोध में भरकर इतने जोर का सिंहनाद किया कि बहुत-से लोग तो उसे सुनकर ही
अचेत हो गये। वृत्रासुर की भयानक गर्जना से सब-के-सब देवता मुर्च्छित होकर पृथ्वी
पर गिर पड़े, मानो उन पर बिजली गिर गयी हो। अब जैसे मदोन्मत्त गजराज नरकट का वन रौंद
डालता है, वैसे ही रण बाँकुरा वृत्रासुर हाथ में त्रिशूल लेकर भय से
नेत्र बंद किये पड़ी हुई देव सेना को पैरों से कुचलने लगा। उसके वेग से धरती
डगमगाने लगी।
वज्रपाणि
देवराज इन्द्र उसकी यह करतूत सह न सके। जब वह उनकी ओर झपटा, तब
उन्होंने और भी चिढ़कर अपने शत्रु पर एक बहुत बड़ी गदा चलायी। अभी वह असह्य गदा
वृत्रासुर के पास पहुँची भी न थी कि उसने खेल-ही खेल में बायें हाथ से उसे पकड़
लिया। राजन्! परमपराक्रमी वृत्रासुर ने क्रोध से आग-बबूला होकर उसी गदा से इन्द्र
के वाहन ऐरावत के सिर
पर बड़े जोर से गरजते हुए प्रहार किया। उसके इस कार्य की सभी लोग बड़ी प्रशंसा
करने लगे। वृत्रासुर की गदा के आघात से ऐरावत हाथी वज्राहत पर्वत के समान तिलमिला
उठा। सिर फट जाने से वह अत्यन्त व्याकुल हो गया और खून उगलता हुआ इन्द्र को लिये
हुए अट्ठाईस हाथ पीछे हट गया। देवराज इन्द्र अपने वाहन ऐरावत के मुर्च्छित हो जाने
से स्वयं भी विषादग्रस्त हो गये। यह देखकर युद्ध धर्म के मर्मज्ञ वृत्रासुर ने
उनके ऊपर फिर से गदा नहीं चलायी। तब तक इन्द्र ने अपने अमृतस्रावी हाथ के स्पर्श
से घायल ऐरावत की व्यथा मिटा दी और वे फिर रणभूमि में आ डटे।
परीक्षित! जब वृत्रासुर ने देखा कि
मेरे भाई विश्वरूप का वध करने वाला शत्रु इन्द्र युद्ध के लिये हाथ में वज्र लेकर
फिर सामने आ गया है, तब उसे उनके उस क्रूर पापकर्म का
स्मरण हो आया और वह शोक और मोह से युक्त हो हँसता हुआ उनसे कहने लगा।
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