(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत
महापुराण:
षष्ठ
स्कन्ध: नवम अध्यायः
श्लोक
35-40 का हिन्दी अनुवाद.
भगवन्! हम लोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्म में आप देवदत्त आदि किसी व्यक्ति के समान गुणों के कार्यरूप इस जगत् में जीवरूप से प्रकट हो जाते हैं और कर्मों के अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन-साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं। हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहें तो भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं। आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है और आप सर्वशक्तिमान् हैं। आधुनिक लोग अनेकों प्रकार के विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्क पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करके अपने हृदय को दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं। आपमें उनके वाद-विवाद के लिये अवसर ही नहीं है। आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थों से परे, केवल है। जब आप उसी में अपनी माया को छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती? इसलिये आप साधारण पुरुषों के समान कर्ता-भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषों के समान उदासीन भी। इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न तो उदासीन ही। आप तो दोनों से विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं।
जैसे एक ही रस्सी का टुकड़ा भ्रान्त पुरुषों को सर्प, माला, धारा आदि के रूप में प्रतीत होता है, किन्तु जानकार को रस्सी के रूप में-वैसे ही आप भी भ्रान्त बुद्धि वालों को कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपों में दीखते हैं और ज्ञानी को शुद्ध सच्चिदानन्द के रूप में। आप सभी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं। विचारपूर्वक देखने से मालूम होता है कि आप ही समस्त वस्तुओं में वस्तुत्व के रूप से विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत् के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदि के भी कारण हैं। आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा हैं; इसलिये जगत् में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियाँ अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही संकेत करती हैं और श्रुतियों ने समस्त पदार्थों का निषेध करके अन्त में निषेध की अवधि के रूप में केवल आपको ही शेष रखा है।
मधुसूदन! आपकी अमृतमयी महिमारस का अनन्त समुद्र है। उनके नन्हें-से सीकर का भी, अधिक नहीं-एक बार भी स्वाद चख लेने से हृदय में नित्य-निरन्तर परमानन्द की धारा बहने लगती है। उसके कारण अब तक जगत् में विषय-भोगों के जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुख का अनुभव हुआ है या परलोक आदि के विषय में सुना गया है, वह सब-का-सब जिन्होंने भूला दिया है, समस्त प्राणियों के परमप्रियतम, हितैषी, सुहृद् और सर्वात्मा आप ऐश्वर्यनिधि परमेश्वर में जो मन को नित्य-निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तन का ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्य प्रेमी परमभक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। मधुसूदन! आपके वे प्यारे और सुहृद् भक्तजन भला, आपके चरणकमलों का सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से सदा के लिये छुटकारा मिल जाता है।
प्रभो! आप त्रिलोकी के आत्मा और आश्रय हैं। आपने अपने तीन पगों से सारे जगत् को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकों के संचालक हैं। आपकी महिमा त्रिलोकी का मन हरण करने वाली है। इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ हैं। तथापि यह उनकी उन्नति का समय नहीं है-यह सोचकर आप अपनी योगमाया से देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरों के रूप में अवतार ग्रहण करते और उनके अपराध के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। दण्डधारी प्रभो! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरों के समान इस वृत्रासुर का भी नाश कर डालिये।
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