(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत
महापुराण:
षष्ठ
स्कन्ध: दशम अध्यायः
श्लोक
1-15 का हिन्दी अनुवाद.
देवताओं द्वारा दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र-निर्माण और वृत्रासुर की सेना पर आक्रमण.
श्रीशुकदेव
जी कहते
हैं- परीक्षित! विश्व के
जीवनदाता श्रीहरि इन्द्र को इस प्रकार आदेश देकर देवताओं के सामने वहीं-के-वहीं अन्तर्धान हो
गये।
अब
देवताओं ने उदारशिरोमणि अथर्ववेदी दधीचि ऋषि के के पास जाकर भगवान् के
आज्ञानुसार याचना की। देवताओं की याचना सुनकर दधीचि ऋषि को बड़ा आनन्द हुआ।
उन्होंने हँसकर देवताओं से कहा- ‘देवताओ! आप लोगों को
सम्भवतः यह बात नहीं मालूम है कि मरते समय प्राणियों को बड़ा कष्ट होता है। उन्हें
जब तक चेत रहता है, बड़ी असह्य पीड़ा सहनी पड़ती है और
अन्त में वे मुर्च्छित हो जाते हैं। जो जीव जगत् में जीवित रहना चाहते हैं,
उनके लिये शरीर बहुत ही अनमोल, प्रियतम
एवं अभीष्ट वस्तु है। ऐसी स्थिति में स्वयं विष्णु
भगवान् भी यदि जीव से उसका शरीर माँगें तो कौन उसे
देने का साहस करेगा।
देवताओं
ने कहा- ब्रह्मन्! आप-जैसे उदार और प्राणियों पर दया करने वाले महापुरुष, जिनके कर्मों की
बड़े-बड़े यशस्वी महानुभाव भी प्रशंसा करते हैं, प्राणियों
की भलाई के लिये कौन-सी वस्तु निछावर नहीं कर सकते। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि
माँगने वाले लोग स्वार्थी होते हैं। उसमें देने वालों की कठिनाई का विचार करने की
बुद्धि नहीं होती। यदि उनमें इतनी समझ होती तो वे माँगते ही क्यों। इसी प्रकार
दाता भी माँगने वाले की विपत्ति नहीं जानता। अन्यथा उसके मुँह से कदापि नाहीं न
निकलती (इसलिये आप हमारी विपत्ति समझकर हमारी याचना पूर्ण कीजिये।)।
दधीचि
ऋषि ने कहा- देवताओं! मैंने आप लोगों के मुँह से धर्म की बात सुनने के लिये ही
आपकी माँग के प्रति उपेक्षा दिखलायी थी। यह लीजिये, मैं अपने प्यारे शरीर को आप लोगों के लिये
अभी छोड़े देता हूँ। क्योंकि एक दिन यह स्वयं ही मुझे छोड़ने वाला है।
देवशिरोमणियों! जो मनुष्य इस विनाशी शरीर से दुःखी प्राणियों पर दया करके मुख्यतः
धर्म और गौणतः यश का सम्पादन नहीं करता, वह जड़
पेड़-पौधों से भी गया-बीता है। बड़े-बड़े महात्माओं ने इस अविनाशी धर्म की उपासना
की है। उसका स्वरूप बस, इतना ही है कि मनुष्य किसी भी
प्राणी के दुःख में दुःख का अनुभव करे और सुख में सुख का। जगत् के धन, जन और शरीर आदि पदार्थ क्षणभंगुर हैं। ये अपने किसी काम नहीं आते,
अन्त में दूसरों के ही काम आयेंगे। ओह! यह कैसी कृपणता है,
कितने दुःख की बात है कि यह मरणधर्मा मनुष्य इनके द्वारा दूसरों
का उपकार नहीं कर लेता।
श्रीशुकदेव
जी कहते
हैं- परीक्षित! अथर्ववेदी
महर्षि दधीचि ने ऐसा निश्चय करके अपने को परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान् में लीन
करके अपना स्थूल शरीर त्याग दिया। उनके इन्द्रिय, प्राण,
मन और बुद्धि संयत थे, दृष्टि तत्त्वमयी
थी, उनके सारे बन्धन कट चुके थे। अतः जब वे भगवान् से
अत्यन्त युक्त होकर स्थित हो गये, तब उन्हें इस बात का
पता ही न चल कि मेरा शरीर छूट गया। भगवान् की शक्ति पाकर इन्द्र का बल-पौरुष उन्नति की सीमा पर
पहुँच गया। अब विश्वकर्मा जी ने दधीचि ऋषि की हड्डियों से वज्र बनाकर उन्हें दिया और वे उसे हाथ में लेकर ऐरावत हाथी पर सवार हुए। उनके साथ-साथ
सभी देवता लोग तैयार हो गये। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि देवराज इन्द्र की स्तुति करने
लगे। अब उन्होंने त्रिलोकी को हर्षित करते हुए वृत्रासुर
का वध करने के लिये उस पर पूरी शक्ति लगाकर धावा बोल
दिया- ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् रुद्र क्रोधित होकर स्वयं
काल पर ही आक्रमण कर रहे हों।
परीक्षित!
वृत्रासुर भी दैत्य-सेनापतियों की बहुत बड़ी सेना के साथ मोर्चे पर डटा हुआ था।
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