(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्लोक 13-19 का हिन्दी अनुवाद
इसलिये यमदूतो! तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है। बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि संकेत में (किसी दूसरे अभिप्राय से), परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई भगवान् के नामों का उच्चारण करता है तो, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय और साँप के डंसते, आग में जलते तथा चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान् के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यमयातना का पात्र नहीं रह जाता। महर्षियों ने जान-बूझकर बड़े पापों के लिये बड़े और छोटे पापों के लिये छोटे प्रायश्चित बतलाये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चितों के द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापों से मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान् के चरणों की सेवा से वह भी शुद्ध हो जाता है। यमदूतो! जैसे जान या अनजान ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाये तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजान में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जानकर अनजान में पी ले तो भी वह अवश्य ही पीने वाले को अमर बना देता है, वैसे ही अनजान में उच्चारण करने पर भी भगवान् का नाम अपना फल देकर ही रहता है। (वस्तुशक्ति श्रद्धा की अपेक्षा नहीं करती)
...................................................................................................................................टीका..
(1)पाप की निवृत्ति के लिये भगवन्नाम का एक अंश ही पर्याप्त है, जैसे ‘राम’ का ‘रा’। इसने तो सम्पूर्ण नाम का उच्चारण कर लिया। मरते समय का अर्थ ठीक मरने का क्षण ही नहीं है, क्योंकि मरने के क्षण जैसे कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि करने के लिये विधि नहीं हो सकती, वैसे नामोच्चारण भी नहीं है। इसलिये ‘म्रियमाण’ शब्द का यह अभिप्राय है कि अब आगे इससे कोई पाप होने की सम्भावना नहीं है।
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