श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः
श्लोक
16-29 का हिन्दी अनुवाद


उन्होंने यमुना जी में विधिपूर्वक स्नान करके तर्पण आदि धार्मिक क्रियाएँ कीं। तदनन्तर संयतेन्द्रिय और मौन होकर उन्होंने देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा के चरणों की वन्दना की। भगवान् नारद ने देखा कि चित्रकेतु जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त और शरणागत हैं। अतः उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उन्हें इस विद्या का उपदेश किया।

(देवर्षि नारद ने यों उपदेश किया-) ‘ॐकार स्वरूप भगवन्! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण के रूप में क्रमशः चित्त, बुद्धि, मन और अहंकार के अधिष्ठाता हैं। मैं आपके इस चतुर्व्यूहरूप का बार-बार नमस्कारपूर्वक ध्यान करता हूँ। आप विशुद्ध विज्ञानस्वरूप हैं। आपकी मूर्ति परमानन्दमयी है। आप अपने स्वरूपभूत आनन्द में ही मग्न और परमशान्त हैं। द्वैतदृष्टि आपको छू तक नहीं सकती। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। अपने स्वरूपभूत आनन्द की अनुभूति से ही मायाजनित राग-द्वेष आदि दोषों का तिरस्कार कर रखा है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबकी समस्त इन्द्रियों के प्रेरक, परम महान् और विराट्स्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मन सहित वाणी आप तक न पहुँचकर बीच से ही लौट आती है। उसके उपरत हो जाने पर जो अद्वितीय, नामरूप रहित, चेतनमात्र और कार्य-कारण से परे की वस्तु रह जाती है-वह हमारी रक्षा करे।

यह कार्य-कारणरूप जगत् जिनसे उत्पन्न होता है, जिनमें स्थित है और जिनमें लीन होता है तथा जो मिट्टी की वस्तुओं में व्याप्त मृत्तिका के समान सबमें ओत-प्रोत हैं-उन परब्रह्मस्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ। यद्यपि आप आकाश के समान बाहर-भीतर एकरस व्याप्त हैं, तथापि आपको मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ज्ञानशक्ति से नहीं जान सकतीं और प्राण तथा कर्मेन्द्रियाँ अपनी क्रियारूप शक्ति से स्पर्श भी नहीं कर सकतीं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि जाग्रत् तथा स्वप्न अवस्थाओं में आपके चैतन्यांश से युक्त होकर ही अपना-अपना काम करते हैं तथा सुषुप्ति और मूर्च्छा की अवस्थाओं में आपके चैतन्यांश से युक्त न होने के कारण अपना-अपना काम करने में असमर्थ हो जाते हैं-ठीक वैसे ही जैसे लोहा अग्नि से तप्त होने पर जला सकता है, अन्यथा नहीं। जिसे ‘द्रष्टा’ कहते हैं, वह भी आपका ही एक नाम है; जाग्रत् आदि अवस्थाओं में आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। वास्तव में आपसे पृथक् उनका कोई अस्तित्व नहीं है। ॐकारस्वरूप महाप्रभावशाली महाविभूतिपति भगवान् महापुरुष को नमस्कार है। श्रेष्ठ भक्तों का समुदाय अपने करकमलों की कलियों से आपके युगल चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहता है। प्रभो! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवर्षि नारद अपने शरणागत भक्त चित्रकेतु को इस विद्या का उपदेश करके महर्षि अंगिरा के साथ ब्रह्मलोक को चले गये। राजा चित्रकेतु ने देवर्षि नारद के द्वारा उपदिष्ट विद्या का उनके आज्ञानुसार सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया। तदनन्तर उस विद्या के अनुष्ठान से सात रात के पश्चात् राजा चित्रकेतु को विद्याधरों का अखण्ड आधिपत्य प्राप्त हुआ। इसके बाद कुछ ही दिनों में इस विद्या के प्रभाव से उनका मन और भी शुद्ध हो गया। अब वे देवाधिदेव भगवान् शेषजी के चरणों के समीप पहुँच गये।

कोई टिप्पणी नहीं: