नरसी भक्त.
नरसी जी, भगवान के अनन्य भक्त थे, वे सत्संग करते हुए ठाकुरजी को केदार राग सुनाया करते थे। जिसे सुनकर ठाकुरजी के गले की माला अपने आप नरसीजी के गले में आ जाया करती थी। एक बार भक्त नरसीजी के घर संतों की मंडली आई, तो नरसीजी एक सेठ से राशन उधार लेने गये, पर सेठ ने राशन के बदले कुछ गिरवी रखने को कहा। नरसीजी ने अपना केदार राग का भजन गिरवी रख दिया और सेठ से वायदा किया कि उधार चुकाने तक इस राग को नही गाऊंगा और सेठ से राशन लाकर संतो को भोजन करवाया।
राजा को, नरसीजी से जलने वाले पंडितो ने भड़काया कि नरसीजी सब ढोंग करते है। माला को कच्ची डोर से बांधते है जिससे भजन गाते हुए माला अपने आप गिरती है।राजा ने परीक्षा लेने के लिए नरसी को उनके भक्त सहित महल में भजन सत्संग करने के लिए बुलाया और कहा कि हम भी ठाकुरजी की कृपा के दर्शन करना चाहते है। नरसीजी संतो के साथ राजा के महल में आये और सत्संग शुरू कर दिया। राजा ने अभिमान में आकर रेशम की मजबूत डोर मंगाई और उसमें हार पिरोकर ठाकुरजी को पहनाया।
नरसीजी ने कीर्तन आरंभ किया.. आनंद बरसने लगा। नरसीजी ने बहुत से भावपूर्ण भजन गाये पर माला नही गिरी। नरसीजी के विरोधी बहुत प्रसन्न हुए कि अब राजा नरसी जी को दंड देगा।
ठाकुरजी की माला केदार राग में गाये गए भजन से ही गिरती थी और नरसी जी केदार राग को गिरवी रख आये थे। अब नरसी ने ठाकुरजी को उलाहना देते हुए गाने लगे कि ठाकुरजी आप माला पहने रखो, भक्तो की लाज जाती है तो जाये, माला संभाले रखो आप।
ठाकुरजी की लीला देखिये, भक्त-नरसी का रूप बनाकर सेठ के घर गये और दरवाजा खटखटाया।
सेठजी सो रहे थे। पत्नी ने दरवाजा खोला और जानकारी लेकर पति से कहा- नरसी का भजन छुड़वाने आये है। सेठ ने सोते सोते ही कहा कि पैसे ले लो और रसीद बनाकर भजन सहित दे दो। उधर नरसीजी भाव से कीर्तन कर ऱहे थे पर सब संत हैरान थे कि आज नरसीजी केदार राग क्यूं नही गा रहे, पर नरसीजी के मन की बात तो भगवान ही जानते थे। भगवान ने गिरवी रखा केदार राग का भजन छुड़ाया और नरसीजी के पास जाकर, उनकी गोद में सेठ की पत्नी द्वारा दी हुई भजन की रसीद डाल दी। बस फिर क्या था, नरसीजी जान गये कि ये ठाकुरजी की लीला है, उन्होने उसी समय भाव से केदार राग का वह भजन गाना शुरू किया। सब समाज आनंद से भर गया और इस बार ठाकुरजी सिहांसन से उठे. नुपुरों की झन्न झन्न ध्वनि करते हुए स्वयं जाकर नरसी भक्त के गले में हार पहनाया.. और अपने भक्त का मान बढ़ाया।
राजा और विरोधी पंडित, नरसीजी की भक्ति से प्रभावित हुए और वे सब ठाकुरजी के भक्त बन गए!
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