परमात्मा की व्यापकता.
(उद्दालक-श्वेतकेतु संवाद-छान्दोग्योपनिषद्)
छान्दोग्य उपनिषद् (अध्याय ६, खंड १३) में परमात्मा या परब्रह्म की व्यापकता को लेकर ऋषि उद्दालक (अरुणपुत्र आरुणि) एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच एक संवाद का उल्लेख मिलता है। उसी की चर्चा मैं यहां पर कर रहा हूं। उपनिषद् में श्वेतकेतु की आयु का जिक्र तो नहीं है, किंतु ऐसा लगता है कि वह परमात्मा के व्यापकता का अर्थ समझना चाहता है और इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करना चाह्ता है।
उक्त उपनिषद् में उल्लेख है:
“लवणमेतदुदकेऽवधायाथ मा प्रातरुपसीदथा इति सह तथा चकार तंहोवाच यद्दोषा लवणमुदकेऽवाधा अङ्ग तदाहरेति तद्धावमृश्य न विवेद॥१॥”
(लवणम् तत् उदके अवधाय अथ मा प्रातः उपसीदथा इति । सह (सः?) तथा चकार । तम् ह उवाच यत् दोषा लवणम् उदके अवाधा अङ्ग तत् आहर इति ।
तत् ह अवमृश्य न विवेद ।)
(ऋषि उद्दालक पुत्र से कहते हैं) उस लवण को जल में डालकर प्रातःकाल मेरे समीप आना। उसने वैसा ही किया। उसने (उद्दालक) ने उससे कहा अच्छा रात्रि में जो लवण जल में डाला था उसे ले आओ। देखने/ढूढ़ने पर वह जान नहीं पाया।
ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को नमक की डली को पानी में डालकर रात भर छोड़ देने को कहा। प्रातःकाल उससे कहा गया कि वह नमक की डली पानी से निकालकर ले आए। रात भर में नमक पानी में घुल चुका था, अतः वह अपने पूर्व रूप डली के तौर पर नहीं मिल सका। नमक की डली वापस कैसे मिले यह उसे समझ में नहीं आया। तब उद्दालक उसे समझाते हैं कि वह तो पानी के साथ एकाकार हो चुका है। वह पानी में है तो किंतु वह दिख नहीं सकता। वस्तुस्थिति स्पष्ट करने के लिए वे श्वेतकेतु से कहते हैं:
“यथा विलीनमेवाङ्गास्यान्तादाचामेति कथमिति लवणमिति मध्यादाचामेति
कथमिति लवणमित्यन्तादाचामेति लवणमित्यभिप्रास्यैतदथ मोपसीदथा इति तद्ध तथा चकार
तच्छश्वत्संवर्तते तंहोवाचात्र वाव किल सत्सोम्य न निभालयसेऽत्रैव
किलेति॥२॥
(यथा विलीनम् एव अङ्ग अस्य अन्तात् आचाम इति । कथम् इति । लवणम् इति ।
मध्यात् आचाम् इति । कथम् इति । लवणम् इति । अन्तात् आचाम इति । लवणम् इति ।
अभिप्रास्य एतत् अथ मा उपसीदथा इति । तत् ह तथा चकार । तत् शश्वत् संवर्तते तम् ह
उवाच अत्र वाव किल सत् सोम्य न निभालयसे अत्र एव किल इति ।)
हे वत्स, विलीन (लवण) वाले जल से कुछ मात्रा लेकर आचमन करो। कैसा लगा? नमकीन। उस जल के मध्य भाग से लो। कैसा लगा? नमकीन। उसके अंत (तले) से लेकर आचमन करो। कैसा लगा? नमकीन। उसे छोड़कर/ फैंककर मेरे पास आओ। उसने वैसा ही किया। (ऋषि ने) उसको बताया वह (लवण) सदा ही उसमें विद्यमान है। हे सोम्य, उसी भांति वह “सत्” भी निश्चय ही यहीं विद्यमान है। तुम उसे देख नहीं पाते, किंतु वह अवश्य ही यहीं है। (सत् अर्थात् अंतिम सत्य, सृष्टि का सार तत्व, परमात्मा)
उद्दालक पानी में नमक के घोल को उदाहरण के तौर अपने जिज्ञासु पुत्र के सामने रखते हैं। पानी में उस नमक की विद्यमानता दिखती नहीं परंतु पानी चखने पर उसके होने का ज्ञान श्वेतकेतु को मिल जाता है। यहां पर एक सफल इंद्रिय के तौर पर मनुष्य की जिह्वा सहायक सिद्ध होती है। परब्रह्म की व्यापकता भी कुछ इसी प्रकार समझी जा सकती है। परंतु उसके मामले में कोई भी ज्ञानेन्द्रिय सहायक नहीं होती है। वैदिक दार्शनिकों के अनुसार ज्ञानमार्ग उसकी व्यापकता का अनुभव कराती है। भक्तिमार्ग के अनुयायियों के अनुसार भगवद्भक्ति परब्रह्म को पाने का साधन है। परमात्मा तक पहुंचने के मार्गों के बारे में मतमतांतर देखने को मिलते हैं।
(योगेन्द्र
जोशी)
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