आत्म−विश्वास बढ़ाइए.


आत्मविश्वास बढ़ाइए.
(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

अपने हृदय में यह बात अच्छी तरह स्थिर कीजिए कि आप योग्य हैं, प्रतिभाशाली हैं, शक्ति वान हैं। अपने उद्देश्य की ओर वीरता और धैर्य पूर्वक पाँव उठा रहे हैं। परमेश्वर ने कूट कूट कर आपमें अद्भुत योग्यताएँ भरी हैं।

आत्म संकेत दिया करें। शान्त चित्त से मन में पुनः पुनः इस प्रकार के विचारों को प्रचुरता से स्थान दें कि “मैं बलवान हूँ। दृढ़ संकल्प हूँ। सब कुछ करने में समर्थ हूँ। मैं जिन पदार्थों की आशा−अभिलाषा करता हूँ, वह अवश्य प्राप्त करूंगा। मैं दृढ़ता से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हो रहा हूँ। मुझ में मानसिक धैर्य है। मेरा मानसिक संस्थान आत्म−विश्वास से परिपूर्ण है। मैं धैर्य पूर्वक अपने उद्देश्य की ओर पाँव उठा रहा हूँ। मैं विघ्न बाबाओं से विचलित नहीं होता हूँ।”

शक्तिशाली आत्म संकेत में अद्भुत शक्ति है। जिन विचारों के संपर्क में हम रहते हैं, जिनमें पुनः पुनः रमण करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। ये संकेत हमारे मानसिक संस्थान के एक अंग बन जाते हैं। प्रकाशमय विचार धारा से कंटकाकीर्ण और अन्धकारमय पथ भी आलोकित हो उठता है।

जब आप दृढ़ता से कहते हैं, ‘मैं बलवान हूँ, दृढ़ संकल्प हूँ, गौरवशाली हूँ।” तो इन विचारों से हमारा आत्म विश्वास जागृत हो उठता है। हम साहस और पौरुष से भर जाते हैं और आत्म गौरव को समझने लगते हैं। हमारी शक्तियाँ वैसा ही काम करती हैं जैसी हम उन्हें आज्ञा देते हैं।

आत्म विश्वास पाने के लिए सफलता जादू जैसा प्रभाव डालती है। एक सफलता से मनुष्य दूसरी सफलता के लिए प्रेरणा पाता है। आप पहले एक साधारण कार्य चुन लीजिए और दृढ़ता से उसे पूर्ण कीजिए। जब यह पूर्ण हो जाय, तो अधिक बड़ा काम हाथ में लीजिए। इसे पूरा करके ही छोड़िए। तत्पश्चात् अधिक बड़े और दीर्घकालीन अपेक्षाकृत कष्ट साध्य कार्य हाथ में लीजिए और अपनी समस्त शक्ति से उसे पूर्ण कीजिए।

इस प्रकार क्रमानुसार बड़े बड़े कार्य हाथ में लेते जाइए। शर्त यह है कि ये सब काम पूर्ण ही हों, अपूर्ण न छूट जायं। अपूर्ण प्रयत्न आत्म−विश्वास के घातक हैं। अतः आप जो कुछ हाथ में लें उसे पूर्ण करके ही छोड़ें। अधूरा प्रयास न रह जाय। दस सफलताओं के पश्चात् एक असफलता भी आ गई तो वह हमें संशय से भर देती है। क्लेश मात्र भी संशय घातक सिद्ध होगा। एक बार कार्य हाथ में लेकर उसे पूर्ण करने में हर प्रयत्न कर देखें।

आपका मन कर्त्तव्य से, कठोर मेहनत से दूर भागेगा, उस कार्य को बीच में ही छोड़ने की ओर प्रवृत्त होगा। इस पलायन प्रवृत्ति से आपको सावधान रहना होगा। मन से लगातार लड़ना चाहिए और जब यह निश्चित मार्ग से च्युत होना चाहे, तुरन्त सावधानी से कार्य लेना चाहिए। कभी आपको आलस्य आयेगा, अपना कार्य मध्य ही में छोड़ देने को जी करेगा, लालच मार्ग में दिखलाई देंगे लेकिन आप छोटे लाभ के लिए बड़े फायदे को मत छोड़िए। भूल कर भी चञ्चल मन के कहने में मत आइए, प्रत्युत विवेक को जागृत कर उसके संरक्षण में अपने आपको रखिए। जाग्रत समय में मन को निरन्तर कार्य में लगाये रखिए। जब तक जागते हैं किसी उत्तम कार्य में अपने आपको संलग्न रखें, तत्पश्चात् सोयें। सुप्तावस्था में भी आप मन की चञ्चलता से दूर रह सकेंगे। धीरे धीरे धैर्य पूर्वक अभ्यास से मन चंचलता दूर होती है।

गीता में मन को वश में करने के लिये बड़ी सुन्दर तरकीब बताई गई है:—

शनैः शनै रूपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्म संस्थं मन कृत्वा न किञ्चिदपि चिंतयेत्॥
(गीता 6। 15)


“धीरे धीरे अभ्यास करता हुआ उपरामता को प्राप्त हो, धैर्ययुक्त बुद्धि से मन को परमात्मा में स्थिर करके और किसी भी विचार को मन में न आने दे।”
अपने कार्य में समस्त शक्तियाँ लगाएँ। धैर्य पूर्वक निज उद्देश्य की प्राप्ति में मन को एकाग्र किए रहें। स्थिर मन आपकी शक्तियों का भण्डार है।

व्रत, उपवास, स्नान, पूजन, मन को सदैव सत्कार्य में लगाये रखना, सारे कार्य नियम पूर्वक करना, अनिष्टकर चिन्तन से बचना, मन के विपरित कार्य करना—ये अन्य साधन हैं जिनका पालन करने से आत्म विश्वास बढ़ता रहता है। नवरात्रि में नौ दिन का व्रत संयम का एक अच्छा साधन है। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय इन सप्त व्रतों के निरन्तर अभ्यास से दृढ़ता आती है।

माता पिता को चाहिए कि बच्चों के शुभ संकल्पों को न तोड़ें। बार बार उन पर अपना गन्तव्य लादने से उनमें पराजयवाद की दुर्बलता आ जाती है। उन्हें निरन्तर अच्छे कार्यों में प्रोत्साहन देना चाहिए। प्रोत्साहन से बच्चों में अपनी शक्तियों के प्रति विश्वास उत्पन्न हो जाता है। किसी बच्चे को प्रताड़ित कर उसकी उमंगों को कुचल डालना बड़ा भारी पाप है।

आत्म विश्वास की एक आन्तरिक प्रेरणा है। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य बाह्य जगत से प्रेरणा का सहारा देखा करता है। जब बाहर से प्रोत्साहन प्राप्त नहीं होता, तो निराश हो जाता है। यह स्थिति बड़ी चिंतनीय है। आप बाहर से प्रेरणा की आशा क्यों करते हैं? स्मरण रखिये किसी दूसरे को आप में दिलचस्पी नहीं है। स्वयं आपको अन्दर से प्रेरणा लेनी होगी। आपका आत्म विश्वास स्वयं आपकी ही विकसित चीज है। आपके संकल्पों और मन्तव्यों की दृढ़ता किसी बाह्य व्यक्ति में आधारित न होकर आन्तरिक प्रेरणा पर टिकनी चाहिए। आत्म विश्वास में भी स्वावलम्बन से काम लें।

पलायन की कुप्रवृत्ति अर्थात् अपने काम को मध्य में ही छोड़ भागना और पूरा न करना आत्म विश्वास—विरोधिनी शक्ति है। पलायन की वृत्ति जैसे ही मन में उत्पन्न हो, तो समझ लीजिए कि काम का कठिन भाग आ गया है। इसी स्थिति में सम्हलने की आवश्यकता है। अतः कठिनता को भूल कर चंचल चित्त को अपने कार्य में स्थिर रखना चाहिए।

कभी कभी अपनी सफलता पर फूल कर मनुष्य लम्बी कष्टसाध्य कठिन योजनाएँ बनाता है। वह ऐसे कार्य उठा लेता है जो उसकी शक्ति−सामर्थ्य के बाहर की बात होती है। इन कार्यों में विफल होकर वह आत्म विश्वास का क्षय करता है। कार्य की अपूर्णता अपनी शक्तियों के प्रति अविश्वास उत्पन्न कर देती है। साधक को चाहिए कि ऐसी योजनाएँ ही हाथ में ले जिसमें वह सफल मनोरथ हो सकता हो और जो उसकी आत्म शक्तियों की पहुँच के भीतर हों। शक्ति−सामर्थ्य से अधिक भार वहन करने वाले की सब सफलता इस प्रकार विफलता में बदल सकती है। अपनी शक्ति का पूरा पूरा ज्ञान रखिए और सामर्थ्य के अनुसार ही भार उठाइए।

शक्ति के अनुसार भार उठाने पर अपनी सम्पूर्ण शक्तियों से उसे पूर्ण करने में संलग्न हो जाइए और भविष्य के बारे में अधिक चिन्ता मत कीजिए। व्यर्थ का शक−शुबा, चिन्ता, उथल पुथल आत्म−विश्वास को क्षय करता है।

प्रायः मनुष्य की गुप्त शक्तियों का विकास यकायक नहीं होता है। कुछ व्यक्ति बड़े होकर अपना विकास कर लेते हैं पर यह बात सर्व सिद्ध है कि साधारण योग्यताओं वाला व्यक्ति भी अभ्यास एवं लगन से केवल आत्म−विश्वास के कारण अपनी कार्य शक्तियाँ कई गुनी बढ़ा सकता है। निरन्तर एक ही विषय था तत्व का अभ्यास करते रहने से उसमें उच्चता प्राप्त हो जाती है। जिसे अपने कार्य की लगन है, उसकी कार्यकारिणी शक्तियाँ किसी न किसी दिन अवश्य जागृत होंगी। प्रायः कुछ व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के विरोधी होने की शिकायत किया करते हैं। “हमें अमुक साधन प्राप्त होते, तो हम भी उन्नति कर लेते”—यह उक्ति उन व्यक्तियों की है जिनमें आत्म विश्वास की न्यूनता है। सफलता की जड़ मनुष्य के मन में हैं। उसके आत्म विश्वास से सिंचित होकर सफलता का पौधा उगता है। जिसके अन्दर कार्यकारिणी शक्ति है, जो अपने आत्म विश्वास से किसी काम में तन, मन, आत्मा से जुटा हुआ है, वह एक न एक दिन अवश्य बाह्य साधन एकत्रित कर लेगा। हमारी बाह्य परिस्थितियाँ आन्तरिक कार्यकारिणी शक्ति का अनुसरण करने वाली हैं। जो शक्तियाँ हमें अन्दर से प्राप्त हुई हैं, वे बाह्य जगत में प्रकट होकर रहेंगी।

स्मरण रखिये, आप मनुष्य हैं। मनुष्य जगत नियन्ता की सर्वोत्कृष्ट शक्तिसम्पन्न कलाकृति है। सबसे उत्तम दैवी शक्तियों द्वारा उसके शरीर, मन और आत्मा का निर्माण किया गया है। सभी के लिए सुख समृद्धि की दैवी योजनाएँ बनी हुई हैं। अपने आलस्य, प्रयत्न की कमी और अकर्मण्यता का दोष परमात्मा पर मढ़ना उचित नहीं है। यदि हम अपनी शक्तियों के प्रति पूर्ण विश्वासी बन कर कार्यरत हो जायं तो निश्चय जानिए हम अपनी गुप्त शक्तियों के भण्डार को खोल सकते हैं। प्रत्येक कलाकार अपनी कृति में अपने की गुणों, आदर्शों एवं दृष्टिकोण को प्रकट करता है। कलाशिरोमणि ईश्वर ने मनुष्य में अपनी सम्पूर्ण योग्यताएं, दैवी गुण, विशेषताएँ प्रकट की हैं। आप अपने चरित्रों में इन्हें क्यों नहीं प्रकट करते? क्यों इनका विकास नहीं होने देते? शरीर के भीतर साक्षात् परमात्मा अपनी सम्पूर्ण शक्तियों में प्रकट हो रहा है और अणु में रम रहा है। उसी परम तत्व को अपने कार्यों में प्रकट करो। अपनी देह, प्राण और हृदय को उसी से संजीवित करो। क्या तुमने वेद का यह अमर सन्देश नहीं सुना है कि—

“एको देवः सर्वभूतेषु गूढः, सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥”
(अर्थात् वह एक ही परमात्मा हम सब मनुष्यों (तथा अन्य प्राणियों) के अन्तर में छिपा हुआ है। वही सर्वत्र व्याप्त है। वही हम सब जीवों का अन्तरात्मा है। जो कुछ जगत में कार्य हो रहा है, उसका नियन्ता है। सब प्राणियों के भीतर बस रहा है। सब संसार के कार्यों को वह साक्षी रूप में देखता है। उसका कोई जोड़ नहीं। वह सब दोषों से रहित है।)

आत्म विश्वास द्वारा दैनिक जीवन तथा कार्यों में अपने दैवी स्वरूप को प्रकट करते चलिए। पशुत्व की कोटि से ऊँचा उठने के लिये ईश्वरीय शक्ति का साहचर्य हमारे बड़े काम का तत्व है।

इस संसार में आप एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। संसार को आपकी बेहद जरूरत है। परमेश्वर ने आपको देवदूत बना कर स्वयं प्रसन्न और समृद्ध रहने, जगत से अज्ञान दूर करने, सत्य, न्याय और दया का प्रचार करने के लिये भेजा है। अपने इस स्थान को ग्रहण कीजिए। सच मानिए, इस दैवी सन्देश के लिये, मनुष्यों में परस्पर प्रीति सुख शान्ति वृद्धि के हेतु कार्य करने के लिए आपमें पर्याप्त बुद्धि और शक्ति है।

समाज के लिए उपयोगी बनिये.

आचार्य चाणक्य कहते हैं- 'शांति के समान कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सुख के लिए विश्व में सभी जगह चाहत है, पर सुख उसी को मिलता है, जिसे संतोष करना आता है। एक जिज्ञासा उठती है कि संतोष है क्या? संतोष का अभिप्राय है-इच्छाओं का त्याग।सभी इच्छाओं का त्याग करके अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुख को प्राप्त कर लेना है। जीवन के साथ इच्छाएं, कामनाएं व आकांक्षाएं रहती ही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि सुखी जीवन के लिए हमारी इच्छा-शक्ति पर कहींतो विराम होना चाहिए। इच्छा के वेग में विराम को ही संतोष की संज्ञा दे सकते हैं। संतोष मन की वह वृत्ति या अवस्था है, जिसमें मनुष्य पूर्ण तृप्ति या प्रसन्नता का अनुभव करता है, अर्थात इच्छा रह ही नहीं पाती। जीवन की गति के साथ संपत्ति और समृद्धि की दौड़ से वह सुख नहीं मिलता, जो संतोष रूपी वृक्ष की शीतल छांव में अनायास मिल जाता है। हमें चाहिए कि हम प्रयत्न और परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली प्रसन्नता पर संतोष करना सीखें।

निष्काम कर्म-योग, इच्छाओं का दमन, लोभ का त्याग और इंद्रियों पर अधिकार-यह सभी उपदेश संतोष की ओर ले जाने वाले सोपान ही तो हैं। भारतीय संस्कृति संतोष पर ही आधारित है। श्रम-साधना के अनंतर जिसके मस्तिष्क में संतोष आ समाया है, उसने राज्य और राजमुकुट का वैभव प्राप्त कर लिया। सच तो यह है कि संतोष प्राकृतिक संपदा है, ऐश्वर्य कृत्रिम गरीबी। संतोष का आदर्श यही है कि हम इच्छाओं को सीमित रखकर सत्य व ईमानदारी से श्रम करें और फल की चिंता न करते हुए उसे परमात्मा और परिस्थितियों पर छोड़ दें। प्रत्येक मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए। ऐसी उपयोगिता में हृदय को सरस बनाने की अपारशक्ति है। हमें इस तथ्य का भली भांति बोध होना चाहिए कि सुखी होने का भाव है-दूसरों को सुखी बनाना। आत्मा में सुख-सौंदर्य की विपुल वर्षा के लिए संतोष एक सजीला मेघ है। संतोष मूल है और सुख उसका फल या संतोष मेघ है और सुख उससे बरसने वाला जल। संतोष सुख का सबसे बड़ा साधन है, जो मस्तिष्क के झुकाव पर निर्भर करता है। यदि मन से सुख मान लिया, तो विपुल व्याधियां भी कपूर की भांति उड़ जाती हैं।

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