स्नान.
स्नान से न केवल तन की शुद्धि होती है, बल्कि यह मन में पवित्र भाव पैदा करता है। तन व मन की ऐसी पवित्रता और ताजगी से कार्य व संकल्प बिना बाधा के पूरे ही नहीं होते, बल्कि बेहतर नतीजे भी देते हैं।
मनुष्य को स्नान करने से दस गुणों की प्राप्ति होती है:-
१- रूप, २- बल, ३- तेज, ४- शुद्धता, ५- आयु, ६- आरोग्य, ७- आलोलुप्तता (स्पष्टता और स्फूर्ति) ८- कुस्वप्ननाश (बुरे सपने का नाश) ९- तप, १०- मेधा (बुद्धि)
जो स्नान आलस्यवश नहीं करता, उसको अनगिनत रोग और विकार घेर लेते हैं.
स्नान के प्रकार.
शास्त्रों में अनेक प्रकार के स्नान बताए गए हैं। जिनमें तीर्थस्नान मन, वचन और कर्म के दोष व पापों को दूर करने वाला माना गया है। वेद स्मृति में स्नान भी सात प्रकार के बताए गए हैं।
१. मंत्र स्नान- मंत्र से.
२. भौम स्नान – मिट्टी से.
३.अग्नि स्नान – भस्म से, यज्ञ में हवन के पश्चात हविष्य की बची बुझी हुई भस्म सर्वकार्य सिद्धि का साधन मानी गई है। इसको पूरे शरीर में लगाकर नहाने से स्वास्थ्य मिलता है तथा त्वचा के रोगों से मुक्ति होती है। ऐसा भी कहा गया है कि यह असाध्य रोगादि दुर्घटनाओं से पीडतजनों को अकाल मृत्यु का भय नहीं होने देती। इस भस्म को भस्मी भी कहा जाता है।
४. वायव्य स्नान- गौखुर की धूल से.
५. दिव्य स्नान या सौर स्नान – सूर्य के प्रकाश में बैठकर सर्वांग पर प्रकाश लेना परन्तु केवल प्रकाश ही नहीं लेना नाम जप करते हुए धूप में बैठना।
६. करुण स्नान- वर्षाजल से.
७. मानसिक स्नान- गंगाजल से और आत्मचिंतन द्वारा किए जाते हैं।
कभी-कभी शारीरिक अस्वस्थता, प्रवास में रहने या पानी के अभाव के कारण स्नान करना संभव नहीं हो पाता। ऎसे में मुख्य स्नान पर गौण स्नान का काफी महत्व है, जो शास्त्रीय पर्याय भी है। इसके अलावा बाहर से घर आने के बाद, भोजन के पूर्व एवं भोजन के बाद, बुरी खबर सुनने के बाद, शोक होने के बाद, रोना-धोना करने के बाद तथा मन अस्वस्थ होने पर भी “गौण स्नान” करें।
इस स्नान के समय चेहरा, हाथों को कोहनियों तक तथा पैरों की घुटनों तक धोकर अच्छी तरह मुंह में पानी लेकर कुल्ले करें। गौण स्नान के चार प्रकार सर्वमान्य हैं-
पहला “उपस्नान” (कटि स्नान)-गीले वस्त्र से अंग पोंछकर,
दूसरा “मंत्र स्नान”- मंत्र द्वारा,
तीसरा “गायत्री स्नान” – गायत्री मंत्र द्वारा,
और चौथा “तीर्थ स्नान”- तुलसी, बिल्व, दूर्वा एवं दर्भ आदि वृक्षों द्वारा तैयार किए गएजल से।
मानसरोवर आदि की यात्रा के समय कई दिनों तक गौण स्नान करके ही रहना पडता है। संध्या या अन्य नित्य विधि के लिए भी गौण स्नान चलता है किंतु नैमित्तिक व्रत,पूजा एवं श्राद्ध कर्म के लिए मुख्य स्नान करना आवश्यक है।
स्नान और भोजन का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्नान के बिना भोजन करना शास्त्रों में निषिद्ध है। भोजनोपरांत तुरंत कोई भी अनुष्ठान या पुरश्चरण नहीं किया जाता तथापि भोजन के दो घंटे बाद मुख्य स्नान करके सामान्य पूजा एवं पुरश्चरण कर सकते हैं। परंतु गायत्री एवं मृत्युंजय आदि मंत्रों का महापुरश्चरण भोजन के बाद नहीं करना चाहिए।
कैसे और कब करे स्नान –
नदी में स्नान करते हो तो जहाँ से धारा आ रही है (नदी का प्रवाह), उसकी तरफ सिर करके गोता मारना चाहिए। पहले सिर भीगे फिर पैर भीगे अगर पहले पैर भीगते हैं, तो पैरों की गर्मी सिर में चढती है। पहले सिर भीगता है, तो सिर की गर्मी उतर जाती है। लेकिन तालाब, बावड़ी में तो सूर्याभिमुख होकर गोता मारना चाहिए।यह विधि पानी की यथोचित गहराई पर निर्भर करती हैं, अन्यथा आवश्यक हैं कि पहले सिर को गीला करके फिर पानी में उतरे।
गंगाजी को छोडकर दूसरी जगह रात्रि स्नान वर्जित है, गंगाजी में रात्रि स्नान में दोष नहीं लगता है। गंगा जल घर में लाकर उसमे धीरे-धीरे दूसरे पानी की धार डालकर पूरी बाल्टी गंगा जल की बना लें। “गंगे, यमुने च गोदावरी, सरस्वती नर्मदा, सिन्धु, कावेरी जलेस्मिन सिन्धि कुरु” मन्त्र बोलते हुये, पहला लोटा पानी सिर पे डाले। ऐसा करने पर अश्वमेघ यज्ञ करने का फल होता है।
पीढे पर सुखासन (पालथी)बैठकर स्नान करना चाहिये, खडे होकर स्नान करने से हमारे शरीर के मैल के साथ ही भूमि पर गिरने वाला जल का प्रवाह भूमि में काली शक्ति के स्थानों को जागृत करता है। इससे भूमि से काली शक्ति का फुवारा उछलकर पुनः हमारे देह को रज-तमयुक्त बनाता है।
१. “प्रातःस्नान” से तेजोबल व आयु में वृद्धि होती है तथा दुःस्वप्नों का नाश होता है। प्रातःकाल स्नान करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इस समय वायुमंडल सात्त्विक तरंगों से आवेशित होता है। ब्राह्ममुहूर्त पर किया गया स्नान ‘देवपरंपरा’ की श्रेणी में आता है।
२. “दोपहर के समय” वायुमंडल में रज-तमात्मक तरंगों का संचार बढ जाता है। स्नान द्वारा देह बाह्य-वायुमंडल की तरंगें ग्रहण करने में संवेदनशील बनता है, इसलिए दोपहर को स्नान करने से शरीर रज-तमात्मक तरंगें ही ग्रहण करता है। शरीर की बाह्यशुद्धि तो साध्य होती है; अपितु अंतःशुद्धि नहीं होती।
३. “रात्रि का समय” तमोगुणी होने के कारण उस समय स्नान करने से स्थूल व सूक्ष्म दोनों शरीरों की सात्त्विकता कम मात्रा में बढती है तथा अल्पकाल स्थिर रहती है। इस कारण उस व्यक्ति को स्नान का लाभ बहुत कम मात्रा में होता है।
अजीर्ण, उल्टी, बाल काटना, मैथुन, शवस्पर्श, रजस्वलास्पर्श, दुःस्वप्न, दुर्जन, श्वान, चांडाल व प्रेतवाहक इत्यादि से स्पर्श के उपरांत सिर से वस्त्रसहित स्नान करें या जलमें डुबकी लगाएं।
स्नान पूर्व तैयारिया.
१. – पीढे में प्रदीप्त अवस्था में विद्यमान सूक्ष्म-अग्नि के कारण उस अग्निरूपी तेज का, शरीर के चारों ओर सूक्ष्म-वायुमंडल बनने में सहायता होती है। पीढे में सूक्ष्म-अग्नि प्रदीप्त अवस्था में रहती है। इस अग्निरूपी तेज का शरीर के चारों ओर सूक्ष्म-वायुमंडल बनने में सहायता होती है।
२. – सुगंधित तेल अथवा उबटन इत्यादि वस्तुएं सात्त्विक होने के कारण, स्थूल व सूक्ष्म शरीर पर आया हुआ काला आवरण नष्ट होकर शरीर शुद्ध व सात्त्विक बनने में सहायक होकर, शरीर की रज-तम तरंगें कम होती हैं। तेल लगाने से शरीर की कोशिकाओं की चेतना कार्यरत होती है।
३.- उबटन लगाकर स्नान करने से कफ व वसा (चरबी) में कमी आती हैं।
४. – नहाने के जल में एक चम्मच खडा नमक डालें। ‘नमक के जल से स्नान करने से संपूर्ण शरीर के १०६ देह शुद्धिकारी चक्रों पर स्थित काली शक्तियों का संग्रह नष्ट होता है।
गरम जल से स्नान के लिए निषिद्ध तिथियां.
पूर्णिमा और अमावस्या पर उष्णोदक से अर्थात् गरम जल से स्नान करने से गोवध का पाप लगता है। रविवार, सप्तमी तथा ग्रहणकाल में उष्णोदक से स्नान न करें।
नग्न या निर्वस्त्र होकर स्नान न करें.
निर्वस्त्र स्नान करने से जल देवता का अपमान होता है।
स्नान करने के लाभ.
१. “ॐ ह्रीं गंगाय्ये ॐ ह्रीं स्वाहा” ये मंत्र बोलते-बोलते स्नान करें तो घर में ही गंगा स्नान का पुण्य मिलेगा। स्नान के समय अगर “ॐ ह्रीं गंगाए, ॐ ह्रीं स्वाहा” इस मंत्र का जप करते हैं, तो कुम्भ स्नान का फल मिलता है।
२. तेजोबल व आयु में वृद्धि होती है तथा दुःस्वप्नों का नाश होता है।
स्नान कहां करें.
नदी अथवा जलाशय में किया स्नान “उत्तम”, कुएं पर किया गया स्नान “मध्यम” और घर में किया गया स्नान “निकृष्ट” है।
१. – नदी व जलाशय का जल प्रवाही होने के कारण इस जल में प्रवाहरूपी नाद से सुप्त स्तर पर तेजदायी ऊर्जा निर्माण कर उसे घनीभूत करने की क्षमता होती है। इस स्थान पर स्नान करने से जल के तेजदायी स्पर्श से देह की चेतना जागृत होकर वह देह की रिक्तता में संचित एवं घनीभूत रज-तमात्मक तरंगों को जागृत कर बाहर की दिशा में ढकेलती है।
२. – कुएं में किया गया स्नान ‘मध्यम’ माना जाता है क्योकि पानी में अपेक्षाकृत प्रवाह कम होने के कारण, तेज के स्तर पर ऊर्जा निर्माण करने की व उसे घनीभूतता प्रदान करने में जल की क्षमता कम होती है। प्रवाह के अभाव के कारण जल में एक प्रकार का जडत्व निर्माण होता है।
३. – घर में किए गए स्नान को ‘निकृष्ट’ माना जाता है क्योकि घर का वातावरण संकीर्ण, अर्थात् बाह्य वायुमंडल की व्यापकता से कम संबंधित होता है। इसलिए वास्तु में निवासी जीवों के स्वभाव के अनुसार विशिष्ट वास्तु में विशिष्ट तरंगों का भ्रमण भी बढ जाता है। ये तरंगें कालांतर से उसी स्थान पर घनीभूत होती हैं। कलियुग के अधिकांश जीव रज-तमात्मक ही होते हैं।
आज आपाधापी से भरे जीवन की भागदौड़ में धर्म और ईश्वर में आस्था रखने वाले अनेक कामकाजी लोग नियमित रूप से तीर्थ में तो जा नहीं सकते, तीर्थस्नान संभव नहीं हो पाता। सनातन धर्म परंपराओं में बताए कुछ उपाय धर्म पालन की ऐसी ही कामनाओं को पूरा करतें हैं।
इनमें ही एक उपाय है – स्नान मंत्र। जिसे कोई भी व्यक्ति घर पर नियमित रूप से स्नान करते समय मन ही मन बोलते हुये स्मरण करता है, तो उसे वहीं पुण्य और शुभ फल मिलता है, जो तीर्थ में किए स्नान से प्राप्त होता है।
“ब्रह्मकुण्डली, विष्णुपादोदकी, जटाशंकरी, भागीरथी, जाह्नवी”
शास्त्रों में नहाते वक्त पावनता की प्रतीक गंगा को विशेष मंत्र से स्मरण करने का महत्व बताया गया है। मान्यता है कि इससे त्रिदेव, यानी ब्रह्मा, विष्णु व महेश का भी स्मरण हो जाता है। क्योंकि किसी न किसी रूप में गंगा तीनों ही देवताओं की प्रिय है।
स्नान मन्त्र.
“गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु” ॥
अर्थ – हे गंगे, यमुने, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदे, सिंधु व कावेरी, आप सब नदियां मेरे स्नान के जल में आएं।
“गंगागंगेति योब्रूयाद् योजनानां शतैरपि ।
मुच्यते सर्व पापेभ्यो विष्णुलोकं सगच्छति । तीर्थराजाय नमः”
अर्थ : सैकडों मील (योजन) दूर से भी जो ‘गंगा, गंगा, गंगा’, कहते हुए गंगा का स्मरण करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को प्राप्त करता है।
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