क्यों मृत्यु नहीं है, जीवन का अंत.
(स्वामी शिवानंद)
हर आत्मा एक चक्र है। इस चक्र की परिधि कहीं भी खत्म नहीं होती लेकिन इसका केन्द्र हमारा शरीर है। तो फिर, मौत से क्यों डरना चाहिए? परमात्मा या सर्वोच्च आत्मा मृत्युरहित, कालातीत, निराधार और असीम है। यह शरीर, मन और पूरे संसार के लिए एक केन्द्र है। मृत्यु केवल भौतिक शरीर को प्राप्त होती है, जो पांच तत्वों से बना है। मृत्यु शाश्वत आत्मा को कैसे मार सकती है जो समय, स्थान और कर्म से परे है? अगर आप जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना चाहते हैं तो आपको शरीर-विहीन होना होगा। शरीर हमारे कर्मों का परिणाम है। आपको कोई भी कार्य फल की उम्मीद किए बिना ही करना चाहिए। अगर आप खुद को राग-द्वेष या पसंद और नापसंद से मुक्त कर लेते हैं, तो आप खुद को कर्म से भी मुक्त कर लेंगे। आप केवल अहंकार को ही खत्म कर खुद को ‘राग’ और ‘द्वेष’ से मुक्त कर सकते हैं। जब अविनाशी ज्ञान के द्वारा अज्ञानता का अंत हो सकता है, तो आप अहंकार का भी विनाश कर सकते हैं। इसलिये इस शरीर के जड़ का कारण यह अज्ञानता है। जिसने भी उस अमर आत्मा का एहसास कर लिया जो सभी ध्वनि, दृश्य, स्वाद और स्पर्श से परे है, जो निराकार और निर्गुण है, जो प्रक़ृति से परे है, जो तीन शरीर और पांच तत्वों से परे है, जो अनंत और अपरिवर्तनीय है, उसने खुद को मौत के मुंह से आजाद कर लिया।
जीव या व्यक्तिगत आत्मा अपने कार्यों को प्रदर्शित करने के लिए और अनुभव प्राप्त करने के लिए अनेक शरीर धारण करती है। वो शरीर में प्रवेश करती है और फिर जब वह शरीर जीने लायक नहीं रहता, तो उसे त्याग देती है। वह फिर से एक नए शरीर का निर्माण करती और पुन: वही प्रक्रिया दोहराती है। यह प्रक्रिया स्थानांतर-गमन कहलाती है। किसे नये शरीर में आत्मा का प्रवेश करना ‘जन्म’ कहलाता है। शरीर से आत्मा का अलग हो जाना ‘मृत्यु’ कहलाता है। अगर शरीर में आत्मा न हो तो वह शरीर मृत शरीर है और इसे प्राकृतिक मृत्यु कहते हैं। एक कोशकीय जीवों के लिए प्राकृतिक मृत्यु अज्ञात है। जब पृथ्वी पर ऐसे जीवों को जीवन मिलता है, तो उनकी मृत्यु अज्ञात होती है। यह घटना केवल बहु कोशकीय जीवों के साथ ही होती है। प्रयोग शालाओं के शोधों से पता चला है कि किसी के जीवन की समाप्ति के बाद भी उसके अंग काम कर सकते हैं। मृत्यु के बाद भी कई महीनों तक सफेद रक्त कण शरीर में जीवित रहते हैं। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। यह महज एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व की समाप्ति है। जीवन संसार पर विजय पाने के लिए चलती रहती है। यह तब तक चलती रहती है जब तक यह अनंत में विलीन नहीं हो जाती।
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