लक्ष्मीजी और उनकी बड़ी बहन दरिद्ता. रविवार को पीपल की पूजा नहीं करना चाहिए.


लक्ष्मीजी और उनकी बड़ी बहन दरिद्ता.
रविवार को पीपल की पूजा नहीं करना चाहिए.


लक्ष्मी, भगवान विष्णु की पत्नी और धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। दीपावली के त्योहार में उनकी गणेश सहित पूजा की जाती है। देवी की जितनी भी शक्तियाँ मानी गयी हैं, उन सब की मूल भगवती लक्ष्मी ही हैं। ये ही सर्वोत्कृष्ट पराशक्ति हैं। लक्ष्मी जी की अभिव्यक्ति दो रूपों में देखी जाती है-

श्रीरूप,
लक्ष्मी रूप.

ये दो होकर भी एक हैं और एक होकर भी दो हैं। दोनों ही रूपों में ये भगवान विष्णु की पत्नी हैं। इनकी थोड़ी-सी कृपा प्राप्त करके व्यक्ति वैभववान हो जाता है। भगवती लक्ष्मी कमलवन में निवास करती हैं, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठात्री श्रीदेवी शुद्ध सत्त्वमयी हैं। विकार और दोषों का वहाँ प्रवेश भी नहीं है। भगवान जब-जब अवतार लेते हैं, तब-तब भगवती महालक्ष्मी भी अवतीर्ण होकर उनकी प्रत्येक लीला में सहयोग देती हैं। इन्हें धन की देवी माना जाता है और मानव नित्य लक्ष्मी जी का भजन पूजन और लक्ष्मी जी की आरती करते हैं। इनके आविर्भाव (प्रकट होने) की कथा इस प्रकार है-

कथा

महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति के गर्भ से एक त्रिलोक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई। वह समस्त शुभ लक्षणों से सुशोभित थी। इसलिये उसका नाम लक्ष्मी रखा गया। धीरे-धीरे बड़ी होने पर लक्ष्मी ने भगवान नारायण के गुण-प्रभाव का वर्णन सुना। इससे उनका हृदय भगवान में अनुरक्त हो गया। वे भगवान नारायण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये समुद्र तट पर घोर तपस्या करने लगीं। उन्हें तपस्या करते-करते एक हज़ार वर्ष बीत गये। उनकी परीक्षा लेने के लिये देवराज इन्द्र भगवान विष्णु का रूप धारण करके लक्ष्मी देवी के पास आये और उनसे वर माँगने के लिये कहा- लक्ष्मी जी ने उनसे विश्वरूप का दर्शन कराने के लिये कहा। इन्द्र वहाँ से लज्जित होकर लौट गये। अन्त में भगवती लक्ष्मी को कृतार्थ करने के लिये स्वयं भगवान विष्णु पधारे। भगवान ने देवी से वर माँगने के लिये कहा। उनकी प्रार्थना पर भगवान ने उन्हें विश्वरूप का दर्शन कराया। तदनन्तर लक्ष्मी जी की इच्छानुसार भगवान विष्णु ने उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया।

दूसरी कथा.

लक्ष्मी जी के प्रकट होने का दूसरी कथा इस प्रकार है- एक बार महर्षि दुर्वासा घूमते-घूमते एक मनोहर वन में गये। वहाँ एक विद्याधरी सुन्दरी ने उन्हें दिव्य पुष्पों की एक माला भेंट की। माला लेकर उन्मत्त वेशधारी मुनि ने उसे अपने मस्तक पर डाल लिया और पुन: पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे। इसी समय दुर्वासा जी को देवराज इन्द्र दिखायी दिये। वे ऐरावत पर चढ़कर आ रहे थे। उनके साथ अन्य देवता भी थे। महर्षि दुर्वासा ने वह माला इन्द्र को दे दी। देवराज इन्द्र ने उसे लेकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने माला की तीव्र गन्ध से आकर्षित होकर उसे सूँड़ से उतार लिया और अपने पैरों तले रौंद डाला। माला की दुर्दशा देखकर महर्षि दुर्वासा क्रोध से जल उठे और उन्होंने इन्द्र को श्री भ्रष्ट होने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से इन्द्र श्री भ्रष्ट हो गये और सम्पूर्ण देवलोक पर असुरों का शासन हो गया। समस्त देवता असुरों से संत्रस्त होकर इधर-उधर भटकने लगे। ब्रह्मा जी की सलाह से सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गये। भगवान विष्णु ने उन लोगों को असुरों के साथ मिलकर क्षीरसागर को मथने की सलाह दी। भगवान की आज्ञा पाकर देवगणों ने दैत्यों से सन्धि करके अमृत-प्राप्ति के लिये समुद्र मंथन का कार्य आरम्भ किया। मन्दराचल की मथानी और वासुकि नाग की रस्सी बनी। भगवान विष्णु स्वयं कच्छपरूप धारण करके मन्दराचल के आधार बने। इस प्रकार मन्थन करने पर क्षीरसागर से क्रमश: कालकूट विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा नामक अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ, लक्ष्मी, वारुणी, चन्द्रमा, शंख, शांर्ग धनुष, धन्वंतरि और अमृत प्रकट हुए। क्षीरसमुद्र से जब भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं, तब वे खिले हुए श्वेत कमल के आसन पर विराजमान थीं। उनके श्री अंगों से दिव्य कान्ति निकल रही थी। उनके हाथ में कमल था। लक्ष्मी जी का दर्शन करके देवता और महर्षि गण प्रसन्न हो गये। उन्होंने वैदिक श्रीसूक्त का पाठ करके लक्ष्मी देवी का स्तवन किया। सबके देखते-देखते वे भगवान विष्णु के पास चली गयीं।

लक्ष्मी की बहिन दरिद्रा.

मां लक्ष्मी के परिवार में उनकी एक बड़ी बहन भी है जिसका नाम है- दरिद्रा। इस संबंध में एक पौराणिक कथा है कि इन दोनों बहनों के पास रहने का कोई निश्चित स्थान नहीं था इसलिये एक बार माँ लक्ष्मी और उनकी बड़ी बहन दरिद्रा श्री विष्णु के पास गई और उनसे बोली, जगत के पालनहार कृपया हमें रहने का स्थान दो? पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त था कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा अतः श्री विष्णु ने कहा, आप दोनों पीपल के वृक्ष पर वास करो। इस तरह वे दोनों बहनें पीपल के वृक्ष में रहने लगी। जब विष्णु भगवान ने माँ लक्ष्मी से विवाह करना चाहा तो लक्ष्मी माता ने इंकार कर दिया क्योंकि उनकी बड़ी बहन दरिद्रा का विवाह नहीं हुआ था। उनके विवाह के उपरांत ही वह श्री विष्णु से विवाह कर सकती थी। अत: उन्होंने दरिद्रा से पूछा, वो कैसा वर पाना चाहती हैं। तो वह बोली कि, वह ऐसा पति चाहती हैं जो कभी पूजा-पाठ न करे व उसे ऐसे स्थान पर रखे जहां कोई भी पूजा-पाठ न करता हो। श्री विष्णु ने उनके लिए ऋषि नामक वर चुना और दोनों विवाह सूत्र में बंध गए।
अब दरिद्रा की शर्तानुसार उन दोनों को ऐसे स्थान पर वास करना था जहां कोई भी धर्म कार्य न होता हो। ऋषि उसके लिए उसका मन भावन स्थान ढूंढने निकल पड़े लेकिन उन्हें कहीं पर भी ऐसा स्थान न मिला। दरिद्रा उनके इंतजार में विलाप करने लगी। श्री विष्णु ने पुन: लक्ष्मी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मी जी बोली, जब तक मेरी बहन की गृहस्थी नहीं बसती मैं विवाह नहीं करूंगी। धरती पर ऐसा कोई स्थान नहीं है। जहां कोई धर्म कार्य न होता हो। उन्होंने अपने निवास स्थान पीपल को रविवार के लिए दरिद्रा व उसके पति को दे दिया। अत: हर रविवार पीपल के नीचे देवताओं का वास न होकर दरिद्रा का वास होता है। अत: इस दिन पीपल की पूजा वर्जित मानी जाती है। पीपल को विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त है कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी और उसके घर का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होगा। इसी लोक विश्वास के आधार पर लोग पीपल के वृक्ष को काटने से आज भी डरते हैं, लेकिन यह भी बताया गया है कि यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत ज़रूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।

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