राष्ट्र-संत आदरणीय श्री विनोबा भावे जी का गीता पर दिया गया प्रवचन क्रमश: पोस्ट किया जा रहा हैं|
गीता-प्रवचन -विनोबा जी...दूसरा अध्याय...सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि.
1.भाइयो, पिछली बार हमने अर्जुन के विषाद-योग को देखा। जब अर्जुन के जैसी ऋजुता (सरल भाव) और हरिशरणता होती है, तो फिर विषाद का भी योग बनता है। इसी को ‘हृदय-मंथन’ कहते हैं। गीता की इस भूमिका को मैंने उसके संकल्पकारके अनुसार ‘अर्जुन-विषाद-योग’ जैसा विशिष्ट नाम न देते हुए ‘विषाद-योग’ जैसा सामान्य नाम दिया है, क्योंकि गीता के लिए अर्जुन एक निमित्त मात्र है। यह नहीं समझना चाहिए कि पंढरपुर (महाराष्ट्र) के पांडुरंग का अवतार सिर्फ पुंडलीक के लिए ही हुआ, क्योंकि हम देखते हैं कि पुंडलीक के निमित्त से वह हम जड़ जीवों के उद्धार के लिए आज हजारों वर्षों से खड़ा है। इसी प्रकार गीता की दया अर्जुन के निमित्त से क्यों न हो, हम सबके लिए है। अतः गीता के पहले अध्याय के लिए ‘विषाद-योग’ जैसा सामान्य नाम ही शोभा देता है। यह गीतारूपी वृक्ष यहाँ से बढ़ते-बढ़ते अंतिम अध्याय में ‘प्रसाद-योग’ रूपी फल को प्राप्त होने वाला है। ईश्वर की इच्छा होगी, तो हम भी अपनी इस कारावास की मुद्दत में वहाँ तक पहुँच जायेंगे।
2. दूसरे अध्याय से गीता की शिक्षा का आरम्भ होता है। शुरू में ही भगवान जीवन के महासिद्धान्त बता रहे हैं। इसमें उनका आशय यह है कि यदि शुरू में ही जीवन के वे मुख्य तत्त्व गले उतर जायें, जिनके आधार पर जीवन की इमारत खड़ी करनी है, तो आगे का मार्ग सरल हो जायेगा। दूसरे अध्याय में आने वाले ‘सांख्य-बुद्धि’ शब्द का अर्थ मैं करता हूँ- जीवन के मूलभूत सिद्धान्त। इन मूल सिद्धान्तों को अब हमें देख जाना है। परन्तु इसके पहले यदि हम इस ‘सांख्य’ शब्द के प्रसंग से गीता के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का थोड़ा स्पष्टीकरण कर लें, तो अच्छा होगा।
‘गीता’ पुराने शास्त्रीय शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त करने की आदी है। पुराने शब्दों पर नये अर्थ की कलम लगाना विचार-क्रांति की अहिंसक प्रक्रिया है। व्यासदेव इस प्रक्रिया में सिद्धहस्त हैं। इससे गीता के शब्दों को व्यापक सामर्थ्य प्राप्त हुआ और वह तरोताजा बनी रही, एवं अनेक विचारक अपनी-अपनी आवश्यकता और अनुभव के अनुसार उसमें से अनेक अर्थ ले सके। अपनी-अपनी भूमिका पर से ये सब अर्थ सही हो सकते हैं, और उनके विरोध की आवश्यकता न पड़ने देकर हम स्वतंत्र अर्थ भी कर सकते हैं, ऐसी मेरी दृष्टि है।
3. इस सिलसिले में उपनिषद में एक सुन्दर कथा है। एक बार देव, दानव और मानव, तीनों प्रजापति के पास उपदेश के लिए पहुँचे। प्रजापति ने सबको एक ही अक्षर बताया- ‘द’। देवों ने कहा- ‘‘हम देवता लोग कामी हैं, हमें विषयभोगों की चाट लग गयी है। अतः हमें प्रजापति ने ‘द’ अक्षर के द्वारा ‘दमन’ करने की सीख दी है।’’ दानवों ने कहा- ‘हम दानव बड़े क्रोधी और दयाहीन हो गये है। हमे ‘द’ अक्षर के द्वारा प्रजापति ने यह शिक्षा दी है कि ‘दया’ करो।’’ मानवों ने कहा- ‘‘हम मानव बड़े लोभी और धन-संचय के पीछे पड़े हैं, हमें ‘द’ अक्षर के द्वारा ‘दान’ करने का उपदेश प्रजापति ने दिया है।’’ प्रजापति ने सभी के अर्थों को ठीक माना, क्योंकि सबने उनको अपने अनुभवों से प्राप्त किया था। गीता की परिभाषा का अर्थ करते समय उपनिषद की यह कथा हमें ध्यान में रखनी चाहिए।
तीसरा अध्याय कर्मयोग 11. फलत्यागी को अनंत फल मिलता है 1. भाइयों, दूसरे अध्याय में हमने सारे जीवन-शास्त्र पर निगाह डाली। अब तीसरे अध्याय में इसी जीवन-शास्त्र का स्पष्टीकरण है। पहले हमने तत्त्वों को विचार किया, अब उनकी तफसील में जायेंगे। पिछले अध्याय में कर्मयोग-सम्बन्धी विवेचन किया था। कर्मयोग में महत्त्व की वस्तु है फल-त्याग। कर्मयोग में फल-त्याग तो है, परन्तु प्रश्न यह उठता है कि फिर फल मिलता भी है या नहीं? अतः तीसरे अध्याय में कहते हैं कि कर्म फल को छोड़ने से कर्मयोगी उल्टा अनंतगुना फल प्राप्त करता है। यहाँ मुझे लक्ष्मी की कथा याद आती है। उसका था स्वयंवर। सारे देव-दानव बड़ी आशा बांधे आये थे। लक्ष्मी ने अपना प्रण पहले प्रकट नहीं किया था। सभा-मंडप में आकर वह बोली-‘‘मै उसी के गले में वरमाला डालूंगी, जिसे मेरी चाह न होगी।’’ वे सब तो लालच से आये थे। लक्ष्मी निःस्पृह वर खोजने निकल पड़ी। शेषनाग पर शांत भाव से लेटी हुई भगवान विष्णु की मूर्ति उसे दिखायी दी। उनके गले में वरमाला डालकर वह अब तक उनके चरण दबाती हुई बैठी ही है। न मागे तयाची रमा होय दासी- 'जो नहीं चाहता, उसकी रमा दासी बनती है।' यही तो खूबी है। 2. साधारण मनुष्य अपने फल के आसपास बाड़ लगाता है। पर इससे मिलने वाला अनंत फल वह खो बैठता है। सांसारिक मनुष्य अपार कर्म करके अल्प फल प्राप्त करता है; पर कर्मयोगी थोड़ा-सा करके भी अनंतगुना प्राप्त करता है। यह फर्क सिर्फ एक भावना के कारण होता है। टॉलस्टॉय ने एक जगह लिखा है- "लोग ईसामसीह के त्याग की बहुत स्तुति करते हैं। परन्तु ये संसारी जीव तो रोज न जाने अपना कितना खून सुखाते हैं, दौड़-धूप करते हैं! पूरे दो गधों का बोझ अपनी पीठ पर लादकर चक्कर काटने वाले ये संसारी जीव, इन्हें ईसा से कितना गुना ज्यादा कष्ट, कितनी ज्यादा इनकी दुर्गति! यदि ये इनसे आधे भी कष्ट भगवान के लिए उठायें, तो सचमुच ईसा से भी बढ़ जायेंगे।" 3. संसारी मनुष्य की तपस्या सचमुच बड़ी होती है, परन्तु वह होती है क्षुद्र फलों के खातिर। जैसी वासना, वैसा फल। अपनी चीज की जो कीमत हम आंकते हैं, उससे ज्यादा कीमत संसार में नहीं आंकी जाती। सुदामा चिउड़ा लेकर भगवान के पास गये। उस मुठ्ठी भर चिउड़े की कीमत एक धेला भी शायद न हो, परन्तु सुदामा को वे अनमोल मालूम होते थे; क्योंकि उनमें भक्तिभाव था। वे अभिमंत्रित थे। उनके कण-कण में भावना भरी थी। चीज भले ही क्षुद्र क्यों न हो, मंत्र से उसका मोल, उसका सामर्थ्य बढ़ जाता है। नोट का वजन भला कितना होगा? उसे सुलगायें, तो एक बूंद पानी भी शायद ही गरम हो! लेकिन उस पर मुहर लगी रहती है। उसी से उसकी कीमत होती है। कर्मयोग में यही सारी खूबी है कर्म को नोट ही समझो। भावना रूपी मुहर की कीमत है, कर्मरूपी कागज के टुकड़े की नहीं। एक तरह से यह मैं मूर्ति-पूजा का ही रहस्य बतला रहा हूँ। मूर्ति-पूजा की कल्पना में बड़ा सौंदर्य है। इस मूर्ति को कौन तोड़ सकता है ? यह मूर्ति पहले एक टुकड़ा ही तो थी। मैंने इसमें प्राण डाला। अपनी भावना डाली। भला इस भावना के कोई टुकड़े कर सकता है ? टुकड़े पत्थर के हो सकते हैं, भावना के नहीं। जब में अपनी भावना मूर्ति में से निकाल लूंगा, तब वहाँ पत्थर बच रहेगा और तभी उसके टुकड़े हो सकते हैं।
गीता-प्रवचन -विनोबा जी...दूसरा अध्याय...सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि.
गीता प्रवचन- भाग-3
(राष्ट्र-संत श्री विनोबा भावे जी)
1.भाइयो, पिछली बार हमने अर्जुन के विषाद-योग को देखा। जब अर्जुन के जैसी ऋजुता (सरल भाव) और हरिशरणता होती है, तो फिर विषाद का भी योग बनता है। इसी को ‘हृदय-मंथन’ कहते हैं। गीता की इस भूमिका को मैंने उसके संकल्पकारके अनुसार ‘अर्जुन-विषाद-योग’ जैसा विशिष्ट नाम न देते हुए ‘विषाद-योग’ जैसा सामान्य नाम दिया है, क्योंकि गीता के लिए अर्जुन एक निमित्त मात्र है। यह नहीं समझना चाहिए कि पंढरपुर (महाराष्ट्र) के पांडुरंग का अवतार सिर्फ पुंडलीक के लिए ही हुआ, क्योंकि हम देखते हैं कि पुंडलीक के निमित्त से वह हम जड़ जीवों के उद्धार के लिए आज हजारों वर्षों से खड़ा है। इसी प्रकार गीता की दया अर्जुन के निमित्त से क्यों न हो, हम सबके लिए है। अतः गीता के पहले अध्याय के लिए ‘विषाद-योग’ जैसा सामान्य नाम ही शोभा देता है। यह गीतारूपी वृक्ष यहाँ से बढ़ते-बढ़ते अंतिम अध्याय में ‘प्रसाद-योग’ रूपी फल को प्राप्त होने वाला है। ईश्वर की इच्छा होगी, तो हम भी अपनी इस कारावास की मुद्दत में वहाँ तक पहुँच जायेंगे।
2. दूसरे अध्याय से गीता की शिक्षा का आरम्भ होता है। शुरू में ही भगवान जीवन के महासिद्धान्त बता रहे हैं। इसमें उनका आशय यह है कि यदि शुरू में ही जीवन के वे मुख्य तत्त्व गले उतर जायें, जिनके आधार पर जीवन की इमारत खड़ी करनी है, तो आगे का मार्ग सरल हो जायेगा। दूसरे अध्याय में आने वाले ‘सांख्य-बुद्धि’ शब्द का अर्थ मैं करता हूँ- जीवन के मूलभूत सिद्धान्त। इन मूल सिद्धान्तों को अब हमें देख जाना है। परन्तु इसके पहले यदि हम इस ‘सांख्य’ शब्द के प्रसंग से गीता के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का थोड़ा स्पष्टीकरण कर लें, तो अच्छा होगा।
‘गीता’ पुराने शास्त्रीय शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त करने की आदी है। पुराने शब्दों पर नये अर्थ की कलम लगाना विचार-क्रांति की अहिंसक प्रक्रिया है। व्यासदेव इस प्रक्रिया में सिद्धहस्त हैं। इससे गीता के शब्दों को व्यापक सामर्थ्य प्राप्त हुआ और वह तरोताजा बनी रही, एवं अनेक विचारक अपनी-अपनी आवश्यकता और अनुभव के अनुसार उसमें से अनेक अर्थ ले सके। अपनी-अपनी भूमिका पर से ये सब अर्थ सही हो सकते हैं, और उनके विरोध की आवश्यकता न पड़ने देकर हम स्वतंत्र अर्थ भी कर सकते हैं, ऐसी मेरी दृष्टि है।
3. इस सिलसिले में उपनिषद में एक सुन्दर कथा है। एक बार देव, दानव और मानव, तीनों प्रजापति के पास उपदेश के लिए पहुँचे। प्रजापति ने सबको एक ही अक्षर बताया- ‘द’। देवों ने कहा- ‘‘हम देवता लोग कामी हैं, हमें विषयभोगों की चाट लग गयी है। अतः हमें प्रजापति ने ‘द’ अक्षर के द्वारा ‘दमन’ करने की सीख दी है।’’ दानवों ने कहा- ‘हम दानव बड़े क्रोधी और दयाहीन हो गये है। हमे ‘द’ अक्षर के द्वारा प्रजापति ने यह शिक्षा दी है कि ‘दया’ करो।’’ मानवों ने कहा- ‘‘हम मानव बड़े लोभी और धन-संचय के पीछे पड़े हैं, हमें ‘द’ अक्षर के द्वारा ‘दान’ करने का उपदेश प्रजापति ने दिया है।’’ प्रजापति ने सभी के अर्थों को ठीक माना, क्योंकि सबने उनको अपने अनुभवों से प्राप्त किया था। गीता की परिभाषा का अर्थ करते समय उपनिषद की यह कथा हमें ध्यान में रखनी चाहिए।
तीसरा अध्याय कर्मयोग 11. फलत्यागी को अनंत फल मिलता है 1. भाइयों, दूसरे अध्याय में हमने सारे जीवन-शास्त्र पर निगाह डाली। अब तीसरे अध्याय में इसी जीवन-शास्त्र का स्पष्टीकरण है। पहले हमने तत्त्वों को विचार किया, अब उनकी तफसील में जायेंगे। पिछले अध्याय में कर्मयोग-सम्बन्धी विवेचन किया था। कर्मयोग में महत्त्व की वस्तु है फल-त्याग। कर्मयोग में फल-त्याग तो है, परन्तु प्रश्न यह उठता है कि फिर फल मिलता भी है या नहीं? अतः तीसरे अध्याय में कहते हैं कि कर्म फल को छोड़ने से कर्मयोगी उल्टा अनंतगुना फल प्राप्त करता है। यहाँ मुझे लक्ष्मी की कथा याद आती है। उसका था स्वयंवर। सारे देव-दानव बड़ी आशा बांधे आये थे। लक्ष्मी ने अपना प्रण पहले प्रकट नहीं किया था। सभा-मंडप में आकर वह बोली-‘‘मै उसी के गले में वरमाला डालूंगी, जिसे मेरी चाह न होगी।’’ वे सब तो लालच से आये थे। लक्ष्मी निःस्पृह वर खोजने निकल पड़ी। शेषनाग पर शांत भाव से लेटी हुई भगवान विष्णु की मूर्ति उसे दिखायी दी। उनके गले में वरमाला डालकर वह अब तक उनके चरण दबाती हुई बैठी ही है। न मागे तयाची रमा होय दासी- 'जो नहीं चाहता, उसकी रमा दासी बनती है।' यही तो खूबी है। 2. साधारण मनुष्य अपने फल के आसपास बाड़ लगाता है। पर इससे मिलने वाला अनंत फल वह खो बैठता है। सांसारिक मनुष्य अपार कर्म करके अल्प फल प्राप्त करता है; पर कर्मयोगी थोड़ा-सा करके भी अनंतगुना प्राप्त करता है। यह फर्क सिर्फ एक भावना के कारण होता है। टॉलस्टॉय ने एक जगह लिखा है- "लोग ईसामसीह के त्याग की बहुत स्तुति करते हैं। परन्तु ये संसारी जीव तो रोज न जाने अपना कितना खून सुखाते हैं, दौड़-धूप करते हैं! पूरे दो गधों का बोझ अपनी पीठ पर लादकर चक्कर काटने वाले ये संसारी जीव, इन्हें ईसा से कितना गुना ज्यादा कष्ट, कितनी ज्यादा इनकी दुर्गति! यदि ये इनसे आधे भी कष्ट भगवान के लिए उठायें, तो सचमुच ईसा से भी बढ़ जायेंगे।" 3. संसारी मनुष्य की तपस्या सचमुच बड़ी होती है, परन्तु वह होती है क्षुद्र फलों के खातिर। जैसी वासना, वैसा फल। अपनी चीज की जो कीमत हम आंकते हैं, उससे ज्यादा कीमत संसार में नहीं आंकी जाती। सुदामा चिउड़ा लेकर भगवान के पास गये। उस मुठ्ठी भर चिउड़े की कीमत एक धेला भी शायद न हो, परन्तु सुदामा को वे अनमोल मालूम होते थे; क्योंकि उनमें भक्तिभाव था। वे अभिमंत्रित थे। उनके कण-कण में भावना भरी थी। चीज भले ही क्षुद्र क्यों न हो, मंत्र से उसका मोल, उसका सामर्थ्य बढ़ जाता है। नोट का वजन भला कितना होगा? उसे सुलगायें, तो एक बूंद पानी भी शायद ही गरम हो! लेकिन उस पर मुहर लगी रहती है। उसी से उसकी कीमत होती है। कर्मयोग में यही सारी खूबी है कर्म को नोट ही समझो। भावना रूपी मुहर की कीमत है, कर्मरूपी कागज के टुकड़े की नहीं। एक तरह से यह मैं मूर्ति-पूजा का ही रहस्य बतला रहा हूँ। मूर्ति-पूजा की कल्पना में बड़ा सौंदर्य है। इस मूर्ति को कौन तोड़ सकता है ? यह मूर्ति पहले एक टुकड़ा ही तो थी। मैंने इसमें प्राण डाला। अपनी भावना डाली। भला इस भावना के कोई टुकड़े कर सकता है ? टुकड़े पत्थर के हो सकते हैं, भावना के नहीं। जब में अपनी भावना मूर्ति में से निकाल लूंगा, तब वहाँ पत्थर बच रहेगा और तभी उसके टुकड़े हो सकते हैं।
(साभार krishnakosh.org)
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