चैतन्य महाप्रभु
चैतन्य महाप्रभु (जन्म: 18 फ़रवरी सन 1486 - मृत्यु: सन् 1534) भक्तिकाल के प्रमुख संतों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में हिन्दू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया। महाप्रभु चैतन्य के विषय में वृन्दावनदास द्वारा रचित 'चैतन्य भागवत' नामक ग्रन्थ में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण कृष्णदास ने 1590 में 'चैतन्य चरितामृत' शीर्षक से लिखा था। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' 'गीता प्रेस गोरखपुर' ने छापी है। जीवन परिचय चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 18 फ़रवरी सन 1486 की फाल्गुन, शुक्लपक्ष, पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि', 'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के अनुसार इन्होंने केशव भारती नामक सन्न्यासी से दीक्षा ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था।
निमाई (चैतन्य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। सन 1505 में सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया। चैतन्य के बड़े भाई विश्वरूप ने बाल्यावस्था में ही संन्यास ले लिया था, अत: न चाहते हुए भी चैतन्य को अपनी माता की सुरक्षा के लिए चौबीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा। कहा जाता है कि इनका विवाह वल्लभाचार्य की सुपुत्री से हुआ था। चैतन्य महाप्रभु को दण्डवत प्रणाम करते हुए रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी अपने समय में सम्भवत: इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलाचल (कटक) में चले गए और वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। महाप्रभु के अन्तकाल का आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे भारत में पर्याप्त है।
कृष्ण भक्ति चैतन्य को इनके अनुयायी कृष्ण का अवतार भी मानते रहे हैं। सन 1509 में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने बिहार के गया नगर में गए, तब वहाँ इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ किया। हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे नामक सोलह शब्दीय कीर्तन महामन्त्र निमाई की ही देन है। इनका पूरा नाम 'विश्वम्भर मिश्र' और कहीं 'श्रीकृष्ण चैतन्यचन्द्र' मिलता है। चौबीसवें वर्ष की समाप्ति पर इन्होंने वैराग्य ले लिया। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम 'गौडीय वैष्णव मत' भी है। चैतन्य ने अपने जीवन का शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। हिन्दू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। इनके अनुयायी चैतन्य को 'विष्णु का अवतार' मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे दक्षिण भारत, वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण करते रहे। छ: वर्ष मथुरा से जगन्नाथ तक के सुविस्तृत प्रदेश में अपने सिद्धांतों का प्रचार किया तथा कृष्ण भक्ति की ओर लोगों को प्रवृत्त किया।
साभार krishnakosh.org
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