गीता प्रवचन-भाग–१० (राष्ट्रसंत श्री विनोवाजी भावे)


राष्ट्र-संत आदरणीय श्री विनोबा भावे जी का गीता पर दिया गया प्रवचन क्रमश: पोस्ट किया जा रहा हैं
दसवां अध्याय-विभूति-चिंतन...49. गीता के पूर्वार्ध पर दृष्टि.
गीता प्रवचन-भाग–१०
(राष्ट्रसंत श्री विनोवाजी भावे)

1. मित्रों, गीता का पूर्वार्ध समाप्त हो गया। उत्तरार्ध में प्रवेश करने के पहले जो भाग हम समाप्त कर चुके, उसका थोड़े में सार देख लें, तो अच्छा होगा। पहले अध्याय में बताया गया कि गीता मोह-नाश के लिए और स्वधर्म में प्रवृत्त कराने के लिए है। दूसरे अध्याय में जीवन के सिद्धांत, कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ का दर्शन हमें हुआ। तीसरे, चौथे और पांचवें अध्याय मे कर्म, विकर्म और अकर्म का स्पष्टीकरण हुआ। कर्म का अर्थ है- स्वधर्माचरण करना। विकर्म का अर्थ है- वह मानसिक कर्म जो बाहर से स्वधर्माचरण का कर्म करते हुए उसकी सहायता के लिए किया जाता है। कर्म और विकर्म, दोनों के एकरूप होने पर जब चित्त की पूर्ण शुद्धि हो जाती है, सब प्रकार के मैल धुल जाते हैं, वासना जाती रहती है, विकास शांत हो जाते हैं, भेद-भाव मिट जाता है, तब अकर्म-दशा प्राप्त होती है। यह अकर्म-दशा भी दो प्रकार की बतायी गयी है। इसका एक प्रकार तो यह कि दिन-रात कर्म करते हुए भी मानो लेशमात्र कर्म न कर रहे हों, ऐसा अनुभव होना। इसके विपरीत दूसरा प्रकार यह कि कुछ भी न करते हुए, सतत कर्म करते रहना। इस तरह अकर्म-दशा दो प्रकारों से सिद्ध होती है। ये दो प्रकार यों अलग-अलग दिखायी देते हैं, तथापि हैं पूर्णरूप से एक ही। इन्हें कर्म-योग और संन्यास, ऐसे दो नाम दिये गये हैं, फिर भी भीतर की सारवस्तु दोनों में एक ही है। अकर्म-दशा अंतिम साध्य, आखिरी मंज़िल है। इस स्थिति को ही ‘मोक्ष’ संज्ञा दी गयी है। अतः गीता के पहले पांच अध्यायों में जीवन का सारा शास्त्र पूरा हो गया।

2. उसके बाद अकर्मरूपी साध्य प्राप्त करने के लिए विकर्म के जो अनेक मार्ग हैं, मन को भीतर से शुद्ध करने के जो अनेक साधन हैं, उनमें से कुछ मुख्य साधन बताने की छठे अध्याय से शुरूआत की गयी है। छठे अध्याय में चित्त का एकाग्रता के लिए ध्यान-योग बताकर अभ्यास और वैराग्य का सहारा उसे दिया गया है। सातवें अध्याय में विशाल भक्तिरूपी उच्च साधन बताया गया है। ईश्वर की ओर चाहे प्रेम-भाव से जाओ, जिज्ञासु-बुद्धि से जाओ, विश्व-कल्याण की व्याकुलता से जाओ या व्यक्तिगत कामना से जाओ- किसी भी तरीके से जाओ, परन्तु एक बार उसके दरबार में पहुँच जरूर जाओ। इस अध्याय का नाम मैंने ‘प्रपत्ति-योग’ अर्थात ‘ईश्वर की शरण जाने की प्रेरणा करने वाला योग’ दिया है। सातवें में प्रपत्ति-योग बताकर आठवें में ‘सातत्य-योग’ बताया हैं मैं जो ये नाम बता रहा हूं, वे पुस्तक में नहीं मिलेंगे। अपने लिए जो उपयोगी नाम मालूम हुए, वही मैं दे रहा हूँ। सातत्य-योग का अर्थ है- अपनी साधना को अंतकाल तक सतत चालू रखना। जिस रास्ते पर एक बार चल पड़े, उसी पर लगातार कदम बढ़ाते जाना। कभी चले, कभी नहीं ऐसा करने से मंज़िल पर पहुँचने की आशा नहीं हो सकती। ऊबकर निराशा से कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि कहाँ तक साधना करते रहें? जब तक फल न मिले, तब तक साधना जारी रखनी चाहिए।

बारहवां अध्याय सगुण-निर्गुण-भक्ति 59. अध्याय 6 से 11 एकाग्रता से समग्रता 1. गंगा प्रवाह यों तो सभी जगह पावन और पवित्र है; परंतु हरिद्धार‚ काशी‚ प्रयाग जैसे स्थान अधिक पवित्र हैं। उन्होंने सारे संसार को पवित्र बना दिया है। भगवद्गीता का यही हाल है। भगवद्गीता आदि से अंत तक सभी जगह पवित्र है। परंतु बीच में कुछ अध्याय ऐसे हैं‚ जो तीर्थ-क्षेत्र बन गये हैं। आज जिस अध्याय के संबंध में हमें कहना है‚ वह बड़ा पावन तीर्थ बन गया है। स्वयं भगवान ही उसे 'अमृतधारा' कहते हैं- ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। है तो यह छोटा-सा बीस श्लोकों का ही अध्याय‚ परंतु अमृत की धारा है। अमृत की तरह मधुर है‚ संजीवन-दायी है। इस अध्याय में भगवान ने श्रीमुख से भक्तिरस की महिमा का तत्त्व गाया है। 2. वास्तव में छठे अध्याय से भक्ति-तत्त्व प्रारंभ हो गया है। पांचवें अध्याय के अंत तक जीवन-शास्त्र का प्रतिपादन हुआ। स्वधर्माचरण रूप कर्म‚ उसके लिए सहायक मानसिक साधनारूप विकर्म‚ इन दोनों की साधना से संपूर्ण कर्मों को भस्म करने वाली अंतिम अकर्म की भूमिका, इतनी बातों का विचार पहले पांच अध्यायों तक हुआ। इतने में जीवनशास्त्र समाप्त हो गया। फिर छठे अध्याय से ग्यारहवें अध्याय के अंत तक एक तरह से भक्ति तत्त्व का ही विचार चला। एकाग्रता से आरंभ हुआ। छठे अध्याय में यह बताया गया है कि चित्त की एकाग्रता कैसे हो सकती है‚ उसके क्या-क्या साधन हैं और उसकी क्यों आवश्यकता है? ग्यारहवें अध्याय में समग्रता बतायी गयी है। अब देखना यह है कि एकाग्रता से लेकर समग्रता तक की लंबी मंजिल हमने कैसे तय की? चित्त की एकाग्रता से शुरूआत हुई। एकाग्रता होने पर किसी भी विषय का विचार मनुष्य कर सकता है। चित्त की एकाग्रता उपयोग- मेरा प्रिय विषय लें तो गणित के अध्ययन में हो सकेगा। उससे अवश्य फल-लाभ होगा। परंतु यह चित्त की एकाग्रता सर्वोत्तम साध्य नहीं है। गणित के अध्ययन से एकाग्रता की पूरी परीक्षा नहीं होती। गणित में अथवा ऐसे ही किसी ज्ञान–प्रांत में चित्त की एकाग्रता से सफलता तो मिलेगी; परंतु यह सच्ची परीक्षा नहीं है। इसलिए सातवें अध्याय में यह बतलाया कि हमारी दृष्टि भगवान के चरणों की ओर होना चाहिए। आठवें अध्याय में कहा गया कि भगवान के चरणों में एकाग्रता सतत बनी रहे। हमारी वाणी‚ कान‚ आंख सतत उसी में लगी रहें‚ इसलिए आमरण प्रयत्न करना चाहिए। हमारी सभी इंद्रियों को ऐसा अभ्यास हो जाना चाहिए। पडिलें वळण इंद्रियां सकळां। भावतो निराळां नाही दुजा– 'सब इंदियों को आदत पड़ गयी‚ अब दूसरी भावना नहीं रही।' ऐसा हो जाना चाहिए। सब इंद्रियों को भगवान की धुन लग जानी चाहिए। हमारे समीप चाहे कोई विलाप कर रहा हो या भजन गा रहा हो‚ कोई वासना का जाल बुन रहा हो या विरक्त सज्जनों का‚ संतों का समागम हो रहा हो‚ सूर्य हो या अंधकार हो‚ मरणकाल में परमेश्वर ही चित्त के सामने खड़ा रहेगा। इस तरह का अभ्यास जीवन भर सब इंद्रियों से कराना‚ यह सातत्य की शिक्षा आठवें अध्याय में दी गयी है। छठे अध्याय में एकाग्रता‚ सातवें में ईश्वराभिमुख एकाग्रता यानि ‘प्रपत्ति‘‚ आठवें में सातत्ययोग और नवें में समर्पणता सिखायी है। दसवें में क्रमिकता बतायी है। एक-एक कदम आगे चलगकर ईश्वर का रूप कैसे हृदयंगम किया जाये‚ चींटी से लेकर ब्रह्मदेव तक में व्याप्त परमात्मा धीरे-धीरे कैसे आत्मसात किया जाये‚ यह बताया गया। ग्यारहवें अध्याय में समग्रता बतायी गयी। विश्वरूप-दर्शन को ही मैं 'समग्रता-योग' कहता हूँ। विश्वरूप-दर्शन यानि यह अनुभव करना कि मामूली रज-कण में भी सारा विश्व समाया हुआ है। यही विराट दर्शन है। छठे अध्याय से लेकर ग्यारहवें तक भक्ति-रस की ऐसी यह भिन्न-भिन्न प्रकार से छानबीन की गयी है।

साभार krishnakosh.org

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