कर्म ही सर्वोपरि.
नमस्याओ देवान्नतु हतविधेस्तेऽपि वशगाः, विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियत कर्मैकफलदः ।
फलं कर्मायतं किममरणैं किं च विधिना नमस्तत्कर्मेभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवित ॥
(भतृहरिकृत नीति शतक 75 वाँ श्लोक)
हम सब जिन देव शक्तियों को अर्चना-आराधना के उपायों और विधानों से जानने के लिए उत्सुक रहते हैं, वे देव-सत्ताएँ भी विधि-व्यवस्था से ही बँधी दीखती है। दैवी विधानों की अवहेलना वे भी नहीं करतीं। तो क्या उस सृष्टि-संचालक विधान की और उसके विधाता की ही वन्दना की जाय? पर हमारे भाग्य का निर्धारण तो वह विधि-व्यवस्था हमारे ही कर्मो के अनुसार करती है। यही उसका सुनिश्चित नियम है। हमारे अपने ही कर्मो का फल प्रदान करने की प्रक्रिया, वह चलाता रहता है।
इस प्रकार हमारे भोगों, उपलब्धियों और प्रवृत्तियों के एकमात्र सूत्र संचालक हमारे स्वयं के कर्म ही हैं। तब फिर देवताओं और विधाता को प्रसन्न करने की चिन्ता करते रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? हमारा साध्य और असाध्य तो कर्म ही है। वही वन्दनीय है-अभिनन्दनीय है, वही वरण और आचरण के योग्य है। दैवी विधान भी उससे भिन्न और उसके विरुद्ध कुछ कभी नहीं करता। कर्म ही सर्वोपरि है। परिस्थितियों और मनःस्थितियों का वही निर्माता है। उसी की साधना से अभीष्ट की उपलब्धि सम्भव है।
(अखंड ज्योति-२/१९८०)
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