राष्ट्र-संत आदरणीय श्री विनोबा भावे जी का गीता पर दिया गया प्रवचन क्रमश: पोस्ट किया जा रहा हैं|
गीता-प्रवचन -विनोबा जी...पांचवा अध्याय....दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास.
गीता प्रवचन- भाग-4
(राष्ट्र-संत श्री विनोबा भावे जी)
2. इस प्रकार यह संसार हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ा है, जिससे स्वधर्माचरण की मर्यादा रहते हुए भी संसार से पिंड नहीं छूटता। बहुतेरा उखाड़-पछाड़ करना छोड़ दिया और झंझटे भी कम कर दीं, अपना संसार-प्रपंच भी छोटा कर दिया, तो भी वहाँ पूरा ममत्व भरा रहता है। राक्षस जैसे कभी छोटे हो जाते तो कभी बड़े, वही हाल इस संसार का है। छोटे हों या बड़े, आखिर वे हैं तो राक्षस ही! चाहे महलों में हो या झोपड़ी में, दुर्निवारत्व एक-सा ही है। स्वधर्म का बंधन डालकर यद्यपि संसार-प्रपंच को मर्यादित रखा, तो भी वहाँ अनेक झगड़े पैदा हो जायेंगे और आपका जी वहाँ से ऊब उठेगा। वहाँ भी अनेक संस्थाओं और अनेक व्यक्तियों से आपका सम्बन्ध आयेगा और आप त्रस्त हो जायेंगे। लगेगा, ‘कहां इस आफत में आ फंसे!’ लेकिन आपका मन कसौटी पर भी तभी चढ़ेगा। केवल स्वधर्माचरण को अपनाने से ही अलिप्तता नहीं आ जाती। कर्म की व्याप्ति को कम करना ही अलिप्त होना नहीं है।
3. फिर अलिप्तता कैसे प्राप्त हो? उसके लिए मनोमय प्रयत्न जरूरी है। मन का सहयोग जब तक न हो, तब तक कोई भी बात सिद्ध नहीं हो सकती। मां-बाप किसी संस्था में अपना लड़का भेज देते हैं। वह वहाँ सबेरे उठता है, सूर्य-नमस्कार करता है, चाय नहीं पीता। परन्तु घर आते ही दो-चार दिनों में वह सब कुछ छोड़ देता है; ऐसे अनुभव हमें आते हैं। मनुष्य कोई मिट्टी का ढेला तो है नही। उसके मन को हम जो आकार देना चाहते हैं, वह उसके मन में बैठना तो चाहिए न ? मन यदि वह आकार स्वीकारता नहीं, तो कहना होगा कि बाहर की वह सारी तालीम व्यर्थ गयी, इसलिए साधना में मानसिक सहयोग की बहुत आवश्यकता है।
(साभार krishnakosh.org)
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