राष्ट्र-संत आदरणीय श्री विनोबा भावे जी का गीता पर दिया
गया प्रवचन क्रमश: पोस्ट किया जा रहा हैं|
तेरहवां अध्याय-आत्मानात्म-विवेक....67. कर्मयोग के लिए उपकारक देहात्म-पृथक्करण.
गीता प्रवचन-भाग–११
(राष्ट्रसंत श्री विनोवाजी भावे)
2. हम जो गीता की बात कर रहे हैं, उसका मुख्य उद्देश्य यह है कि जीवन में जब-जब हमें किसी सहायता की आवश्यकता प्रतीत हो, तब-तब वह गीता से हमें मिलती रहे। और वह हमें सदैव मिलने जैसी भी है। गीता जीवनोपयोगी शास्त्र है और इसीलिए उसमें स्वधर्म पर इतना जोर दिया है। मनुष्य के जीवन की बड़ी नींव अगर कोई है, तो वह स्वधर्माचरण ही है। उसकी सारी इमारत इस स्वधर्माचरणरूपरी नींव पर खड़ी करनी है। यह पाया जितना मजबूत होगा, इमारत उतनी ही टिकाऊ होगी। इस स्वधर्माचरण को गीता ‘कर्म‘ कहती है। इस स्वधर्माचरणरूप कर्म के इर्द-गिर्द गीता में विविध बातें खड़ी कर दी गयी हैं। उसकी रक्षा के लिए अनेक विकर्म रचे गये हैं। स्वधर्माचरण को सजाने के लिए, उसे सुंदर बनाने के लिए, और सफल करने के लिए जिन-जिन आधारों की और सहायता की जरूरत है, वह सारी मदद इस स्वधर्माचरणरूप कर्म को देना जरूरी है। इसलिए अब तक ऐसी बहुतेरी चीजें हमने देखीं। उनमें बहुत-सी भक्ति के रूप में थीं। आज तेरहवें अध्याय में जो चीज हमें देखनी है, वह भी स्वधर्माचरण में बहुत उपयोगी है। उसका संबंध विचार-पक्ष से है।
चौदहवां अध्याय गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 75. प्रकृति का विश्लेषण 1.
भाइयो, आज का चौदहवां अध्याय एक अर्थ में पिछले अध्यायों का पूरक ही है। सच पूछो तो आत्मा को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। वह स्वयं पूर्ण है। हमारी आत्मा की गति स्वभावतः ही ऊर्ध्वगामी है; परंतु किसी वस्तु के साथ कोई भारी वजन बांध दिया जाता है, तब जैसे वह नीचे खिंचती चली जाती है, उसी तरह शरीर का यह बोझ आत्मा को नीचे खींच ले जाता है। पिछले अध्याय में हमने यह देखा कि किसी भी उपाय से यदि देह और आत्मा को हम पृथक कर सकें, तो हमारी प्रगति हो सकती हैं यह बात भले ही कठिन हो, पर इसका फल महान है। आत्मा के पांव की यह देह रूपी बेड़ी यदि हम काट सकें, तो हमें भारी आनंद प्राप्त होगा। फिर मनुष्य देह के दुःख से दुःखी नहीं होगा। वह स्वतंत्र हो जायेगा। इस देह रूपी वस्तु को मनुष्य जीत ले, तो फिर संसार में कौन उस पर सत्ता चला सकता है? जो स्वयं पर राज्य करता है, वह विश्व का सम्राट हो जाता है। अतः आत्मा पर देह की जो सत्ता हो गयी है, उसे हटा दो। देह के ये जो सुख-दुःख है, सब विदेशी हैं। सब विजातीय हैं। आत्मा से उनका तिल मात्र भी संबंध नहीं है। 2. इस सब सुख-दुःखों को किस अंश तक देह से अलग किया जाये, इसकी कल्पना मैंने भगवान ईसा के उदाहरण द्वारा बतायी है। उन्होंने दिखा दिया कि देह टूट रही हो, फिर भी हम किस तरह शांत और आनंदमय रहें; परंतु इस तरह देह को आत्मा से अलग रखना जैसे एक ओर से विवेक का काम है, वैसे ही दूसरी ओर से वह निग्रह का भी काम है। विवेकासहित वैराग्याचें बळ, ‘विवेक के साथ वैराग्य का बल’- ऐसा तुकाराम ने कहा है। विवेक और वैराग्य, दोनों बातों की जरूरत है। वैराग्य ही एक प्रकार से निग्रह, तितिक्षा है। इस चौदहवें अध्याय में निग्रह की दिशा दिखायी गयी है। नाव को खेने का काम डांड़ करते हैं, परंतु दिशा दिखाने का काम पतवार करती है। डांड़ और पतवार, दोनों चाहिए। उसी तरह देह के सुख-दुःख से आत्मा को अलग रखने के लिए विवेक और निग्रह, दोनों की आवश्यकता है।
साभार krishnakosh.org
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