(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का
हिन्दी अनुवाद
अष्टांगयोग की विधि
आरम्भ में बायें नासिका से पूरक, कुम्भक और रेचक करे, फिर इसके विपरीत दाहिनी नासिका से प्राणायाम करके प्राण के मार्ग का शोधन करे-जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाये। जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राण वायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है। अतः योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करने वाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे। जब योग का अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाये, तब नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान् की मूर्ति का ध्यान करे। भगवान् का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम हैं; हाथों में शंख, चक्र और गदा धारण किये हैं। कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है, वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न है और गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वनमाला चरणों तक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्ध से मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अंग-प्रत्यंग में महामूल्य हार, कंकण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं। कमर में करधनी की लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनक दर्शनीय श्यामसुन्दरस्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है।
साभार krishnakosh.org
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें