शास्त्र और गुरू का सम्मान, भगवान का सम्मान है.


शास्त्र और गुरू का सम्मान,
भगवान का सम्मान है.
(सुधांशु जी महाराज)

दुनिया में एक सद्गुरु हजारों- लाखों सुपात्र शिष्यों को ज्ञानामृत और आशीष देकर अपने जैसे तमस् का तिरोहण करने वाले सूर्य बना सकते हैं, लेकिन अनेक शिष्य मिलकर एक सद्गुरु का स्वरूप तैयार नहीं कर सकते। लाखों-करोड़ों वर्षों की तपस्या के बाद किसी व्यक्ति के भीतर गुरुतत्व प्रकट होता है।

गुरु एक ऐसा प्रथम दीप है जिससे असंख्य दीप प्रज्ज्वलित हो सकते हैं। धरती पर विवेकानन्द बन जाना तो इतना कठिन नहीं है, जितना रामकृष्ण परमहंस बनकर विवेकानन्द को जन्म देना मुश्किल कार्य है। गुरु ज्ञानीजनों की सभा में स्थान मिल जाए तो मनुष्य को अपना सौभाग्य समझना चाहिए।

गुरु के प्रति श्रद्घा-आस्था सदा-सर्वदा बनी रहनी चाहिए। गुरु वचनों का श्रवण, चिन्तन-मनन और उन पर अमल करने से मनुष्य को अभीष्ट और प्रीति की प्राप्ति होती है। उसका इहलोक और परलोक संवर जाता है। गुरु चरणों में शिष्य का स्वर्ग है।

गुरु चरणों का ध्यान, उनका पूजन, वंदन, सेवा और सत्कार करते समय मन में जितनी श्रद्घा-आस्था और प्रेम भाव होगा उतनी ही शीघ्रता से कल्याण के कपाट खुलते जाएंगे। गुरु अपने शिष्य को एक ऐसी सुदृष्टि प्रदान करते हैं जिससे उसकी सृष्टि बदल जाती है, ऐसी सुदिशा प्रदान करते हैं, जिससे उसके जीवन की दशा बदल जाती है।

गुरू सद्प्रेरणा देकर शिष्य को सुमार्ग का ऐसा राही बनाते हैं, जिससे उसे मंजिल मिल ही जाती है। गुरु तो ज्ञानामृत बनकर बरसते हैं, उस अमृत को अपनी अंजुली में समेटना शिष्य का काम है। गुरु जो राह दिखाए उस पर अनवरत बेखौफ चलना शिष्य का कार्य है।

राह में अवरोध जरूर आते हैं, संशय की स्थिति भी आती है, असमंजस में इंसान न चाहते हुए भी कई बार फंस जाता है। लेकिन जो शिष्य अपनी श्रद्घा-आस्था और विश्वास को कम नहीं होने देते वे ही परम धम तक पहुंचने में सपफल होते हैं। शास्त्रों में गुरु के प्रति शिष्यों को किस प्रकार सम्मान का भाव रखना चाहिए यह बताया गया है।

पुराणों में वर्णन है कि गुरु की आज्ञा ईश्वर आज्ञा के समान होती है। क्योंकि गुरु कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा कारण विशेष के लिए कोई आज्ञा नहीं देते। वे समाज के उत्थान के लिए, मानवता की भलाई के लिए, धर्म के प्रचार के लिए, दीन दुःखियों की पीड़ा हरने के लिए, सभ्य संस्कृति एवं सुसंस्कारों की अभिवृति के लिए, विचारों की शुद्घि के लिए, प्राणी मात्र की भलाई के लिए, अन्याय-अत्याचार, भ्रष्टाचार के समापन के लिए, दुर्गुण-दुर्व्यसनों से मानवमात्र को बचाने के लिए, अच्छाई को बढ़ाने के लिए और बुराई को भगाने के लिए ही सद्आज्ञा प्रदान करते हैं।

ईश्वरीय आज्ञा भी ऐसी ही तो है। भक्ति और आराधना से तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि हम केवल हाथ में माला ही पकड़े रहें। भगवान की प्रार्थना, उपासना, स्तुति का मतलब भी इतना ही नहीं है कि हम केवल अपने लिए और अपनों की सलामती के लिए ही कामना करते रहें, भगवान के नाम की माला हाथ में थामे हुए अगर केवल अपने विषय में, मालामाल होने की प्रार्थना करते रहें तो यह अनुचित हो जाएगा और इंसान आध्यात्मिक सम्पत्ति से कंगाल हो जाएंगे।

वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि भगवान की भक्ति का सीध सा अर्थ है उसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना और वही ईश्वरीय आज्ञाएं इंसान को सदगुरु प्रदान करते हैं। इसलिए गुरु आज्ञा का कभी उलंघन न करें, सत्पुरुषों की न स्वयं निन्दा करें और न किसी के द्वारा किए जाने पर श्रवण करें, भगवान के अनेक नाम हैं और स्वरूप हैं।

उनमें कभी भेद न करें। जैसे शिव और विष्णु, राम और कृष्ण आदि उनमें कोई भेदभाव की दृष्टि न रखें, वैदिक विचारों की भी निन्दा अनुचित है, शास्त्रों का सम्मान करें और गुरु ज्ञानीजनों के प्रति अगाध श्रद्घा बनाए रखें। इससे जीवन जगमगा उठता है।

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