धर्म और चमत्कार.
(महात्मा बुद्ध
की डायरी)
उस दिन राजगृह के नगर सेठ को, यही पागलपन सूझा। उसने एक चन्दन का पात्र बनवाकर एक लम्बे बाँस पर लटका दिया और जो कोई भिक्षु आता, उससे कहता-अगर आप अर्हत्* हैं, तो बाँस पर चढ़कर पात्र उतार लीजिए। मानो अर्हत्पन की कसौटी बाँस पर चढ़ने योग्य नट कला हो। ये मूर्ख इतना भी नहीं समझते कि कोई भी नट बाँस पर चढ़कर पात्र उतार सकता है, तो क्या वह अर्हत् हो जायगा? और अर्हत् भी बाँस पर चढ़ने की कला या शक्ति से वंचित हो सकते हैं। तो क्या वे अनर्हत हो जायेंगे। वह सेठ भी मूर्ख, दुनिया भी मूर्ख और मेरे बहुत से शिष्य भी मूर्ख। मेरे शिष्यों में से वह पिंडोल भारद्वाज उस सेठ के यहाँ जा पहुँचा। उसने नट की तरह बाँस पर चढ़कर पात्र उतार लिया। उसने समझा कि बड़ी धर्म प्रभावना हो गई। भीड़ उसके पीछे लग गई, पिंडोल ने समझा मैं सचमुच अर्हत् हो गया।
यदि पिंडोल सरीखे मूर्ख शिष्य धर्म की ऐसी ही प्रभावना करने लगेंगे तो धर्म में सच्चे त्यागियों और समाज सेवकों को स्थान ही न रह जाएगा। धर्म संस्था नटों का अखाड़ा हो जाएगी, इसलिए भिक्षु संघ को बुलाकर मैंने सबके सामने पिंडोल को डाँटा और उसके चन्दन के पात्र के टुकड़े-टुकड़े करवा दिये।
(*अर्हत=उच्च अध्यात्मिकता से परिपूर्ण)
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