(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः षोडश
अध्यायः श्लोक 1-14
का हिन्दी अनुवाद
एक बार दिग्विजय करते समय उन्होंने देखा कि शूद्र के रूप में कलियुग राजा का वेष धारण करके एक गाय और बैल के जोड़े को ठोकरों से मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक पकड़कर दण्ड दिया।
शौनक जी ने पूछा- महाभाग्यवान् सूत जी! दिग्विजय के समय महाराज परीक्षित ने कलियुग को दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया-मार क्यों नहीं डाला? क्योंकि राजा का वेष धारण करने पर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिसने गाय को लात से मारा था? यदि वह प्रसंग भगवान श्रीकृष्ण की लीला से अथवा उनके चरणकमलों के मकरन्द-रस का पान करने वाले रसिक महानुभावों से सम्बन्ध रखता हो तो अवश्य कहिए। दूसरी व्यर्थ की बातों से क्या लाभ। उसमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है।
प्यारे सूत जी! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होने के कारण मृत्यु से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याण के लिये भगवान यम का आवाहन करके उन्हें यहाँ शान्तिकर्म में नियुक्त कर दिया गया है। जब तक यमराज यहाँ इस कर्म में नियुक्त हैं, तब तक किसी की मृत्यु नहीं होगी। मृत्यु से ग्रस्त मनुष्य लोक के जीव भी भगवान की सुधातुल्य लीला-कथा का पान कर सकें; इसीलिये महर्षियों ने भगवान यम को यहाँ बुलाया है। एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्था में संसार के मन्द भाग्य विषयी पुरुषों की आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है-नींद में रात और व्यर्थ के कामों में दिन।
सूत जी ने कहा- जिस समय राजा परीक्षित कुरुजांगल देश में सम्राट् के रूप में निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेना द्वारा सुरक्षित साम्राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है। इस समाचार से उन्हें दुःख तो अवश्य हुआ; परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करने का अवसर हाथ लगा, वे उतने दुःखी नहीं हुए। इसके बाद युद्धवीर परीक्षित ने धनुष हाथ में ले लिया। वे श्यामवर्ण के घोड़ों से जुते हुए, सिंह की ध्वजा वाले, सुसज्जित रथ पर सवार होकर दिग्विजय करने के लिये नगर से बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षों को जीतकर वहाँ के राजाओं से भेंट ली। उन्हें उन देशों में सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओं का सुयश सुनने को मिला। उस यशोगान से पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की महिमा प्रकट होती थी। इसके साथ ही उन्हें यह भी सुनने को मिलता था कि भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र की ज्वाला से किस प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवों में परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवों की भगवान श्रीकृष्ण में कितनी भक्ति थी।
क्रमश:
साभार krishnakosh.org
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