(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ
अध्यायः श्लोक 46-53
का हिन्दी अनुवाद
जो महानुभाव आपके चरणों में अपने को समर्पित कर देते हैं, जो समस्त प्राणियों में आपकी ही झाँकी करते हैं और समस्त जीवों को अभेद दृष्टि से आत्मा में ही देखते हैं, वे पशुओं के समान प्रायः क्रोध के अधीन नहीं होते। जो लोग भेदबुद्धि होने के कारण कर्मों में ही आसक्त हैं, जिनकी नीयत अच्छी नहीं है, दूसरों की उन्नति देखकर जिनका चित्त रात-दिन कुढ़ा करता है और जो मर्मभेदी अज्ञानी अपने दुर्वचनों से दूसरों का चित्त दु:खाया करते हैं, आप-जैसे महापुरुषों के लिये उन्हें भी मारना उचित नहीं हैं; क्योंकि वे बेचारे तो विधाता के ही मारे हुए हैं।
देवदेव! भगवान् कमलनाभ की प्रबल माया से मोहित हो जाने के कारण यदि किसी पुरुष की कभी किसी स्थान में भेदबुद्धि होती है, तो भी साधु पुरुष अपने परदुःखकातर स्वभाव के कारण उस पर कृपा ही करते हैं; दैववश जो कुछ हो जाता है, वे उसे रोकने का प्रयत्न नहीं करते।
प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, परम पुरुष भगवान् की दुस्तर माया ने आपकी बुद्धि का स्पर्श भी नहीं किया है। अतः जिनका चित्त उसके वशीभूत होकर कर्ममार्ग में आसक्त हो रहा है, उनके द्वारा अपराध बन जाये, तो भी उन पर आपको कृपा ही करनी चाहिये।
भगवन्! आप सबके मूल हैं। आप ही सम्पूर्ण यज्ञों को पूर्ण करने वाले हैं। यज्ञभाग पाने का भी आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्षयज्ञ के बुद्धिहीन याजकों ने आपको यज्ञभाग नहीं दिया। इसी से यह आपके द्वारा विध्वंस हुआ। अब आप इस अपूर्ण यज्ञ का पुनरुद्धार करने की कृपा करें।
प्रभो! ऐसा कीजिये, जिससे यजमान दक्ष फिर जी उठे, भगदेवता को नेत्र मिल जायें, भृगु के दाढ़ी-मूँछ आ जायें और पूषा के पहले के ही समान दाँत निकल आयें। रुद्रदेव! अस्त्र-शस्त्र और पत्थरों की बौछार से जिन देवता और ऋत्विजों के अंग-प्रत्यंग घायल हो गये हैं, आपकी कृपा से वे फिर ठीक हो जायें। यज्ञ सम्पूर्ण होने पर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका भाग होगा। यज्ञविध्वंसक! आज यह यज्ञ आपके ही भाग से पूर्ण हो।
साभार krishnakosh.org
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