वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-३
ग्यान के निहितार्थ.
ग्यान के निहितार्थ के संबंध में भारतीय दर्शन में दो प्रकार की विचार-धराये पाई जाती हैं:-
१.प्रथम विचारधारा बौध्द दार्शनिको की हैं जिसके अनुसार कोई भी ग्यान आत्मा के बाहर किसी वाह्य विषय की ओर संकेत नहीं करता| इसे आत्मनिष्टवाद (Subjectivism) कह सकते हैं|
२.दूसरी विचारधारा नैयायिक दार्शनिको की हैं जिसके अनुसार प्रत्येक ग्यान आत्मा के बाहर किसी वाह्य वस्तु की ओर अवश्य संकेत करता हैं| इसे वस्तुनिष्टवाद (Objectiveism) कह सकते हैं|
अद्वेत वेदांत एक वस्तुवादी (Realistic) सिध्दांत हैं जिसके अनुसार प्रत्येक ग्यान का कोई कोई न स्वतंत्र विषय अवश्य होता हैं| ग्यान के विषय, केवल संस्कार नहीं हैं| यदि उन्हें संस्कार मात्र मान लिया जाय तो यथार्त और अयथार्थ ग्यान का भेद ही समाप्त हो जायेगा| यदि ग्यान के विषय को ही अस्वीकार कर दिया जाय तो वाह्य ग्यान प्राप्त करने का कोई अर्थ ही नहीं होगा| पुन: जब हमारा ग्यान यथार्त हो तो वाह्य विषय के अस्तित्व को स्वीकार करना आत्म-व्याघातक होगा| या दोनों अवस्थाओ में वाह्य विषयों के अस्तित्व को स्वीकार किया जाय अथवा वाह्य विषयों के अस्तित्व को अस्वीकार किया जाय किन्तु दोनों अवस्थाओ में वाह्य वस्तु को अस्वीकार किया जाता हैं तो अयथार्त और यथार्थ ग्यान का भेद ही समाप्त हो जायेगा| इस कठिनाई से बचने का केवल एक ही उपाय हैं और वह यह हैं कि ग्यान की प्रत्येक अवस्था में वाह्य ग्यान के अस्तित्व को स्वीकार किया जाय| अद्वेत वेदांत का यही मत हैं|
शंकराचार्य जी के अनुसार हमारा प्रत्येक ग्यान एक वाह्य विषय और विषयी की ओर संकेत करता हैं| ऐसा कोई ग्यान नहीं हो सकता जो विषय और विषयी इन दोनों वस्तुओ की और संकेत न करता हों| यदि “बंध्या-पुत्र” की तरह हमारे ग्यान का कोई विषय नहीं हैं तो ग्यान संभव नहीं हो सकता|
प्रश्न यह हैं कि यदि हमारा प्रत्येक ग्यान संसार की किसी वस्तु की ओर संकेत करता हैं तो भ्रम की स्थिति किस प्रकार उत्पन्न होती हैं? अद्वेत वेदांत इस समस्या का हल अर्थापति प्रमाण द्वारा करने की चेष्टा करता हैं| यदि देवदत्त दिन में भोजन न करने पर भी मोटा और स्वस्थ्य रहता हैं तो उससे हम यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकालते कि मोटा और स्वस्थ्य रहने के लिए भोजन की आवश्यकता नहीं हैं| यह असंभव हैं कि बिना भोजन किए ही कोई व्यक्ति स्वस्थ रह सकता हैं| हमारे समक्ष दो विरोधी परिस्थितिया हैं- देवदत्त का दिन में भोजन न करना और साथ-साथ उसका मोटा और स्वस्थ्य रहना| इन परस्पर विरोधी परिस्थितियो के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए हम कल्पना कर लेते हैं कि देवदत्त रात को भोजन करता होगा|
यही बात ग्यान के विषय में भी लागू होती हैं| जिस प्रकार यथार्थ ग्यान का एक वाह्य विषय होता हैं, उसी प्रकार अयथार्त ग्यान या भ्रम का भी एक स्वत्रंत वाह्य विषय होता हैं| बिना वाह्य विषय के किसी ग्यान की उत्पत्ति हो, यह अकल्पनीय हैं| प्रत्येक ग्यान का, चाहे वह यथार्त हो या अयथार्त, एक वाह्य विषय अवश्य होता हैं| फिर प्रश्न यह हैं कि यथार्थ और अयथार्त दोनों प्रकार के ग्यान का एक वाह्य विषय होता हैं तो फिर दोनों के बीच अंतर किस प्रकार स्पस्ट किया जा सकता हैं| इस प्रश्न का उत्तर देते हुये अद्वेत वेदांत कहता हैं कि यथार्थ और अयथार्त(भ्रम) ग्यान के बीच यह अंतर नहीं हैं कि प्रथम ग्यान एक स्वतंत्र विषय होता हैं तथा द्वितीय ग्यान का कोई स्वन्त्रत वाह्य विषय नहीं होता| उनके बीच अंतर उनके विषयों के स्वभाव के अंतर होने के कारण होता हैं| यथार्त या व्यवहारिक ग्यान का विषय सार्वजनिक (Pubkic) होता हैं, इसके विपरीत भ्रम या प्रतिभासित ग्यान का विषय वैयक्तिक (Private) होता हैं|
यहाँ ध्यान देने की बात यह हैं कि यद्दपि भ्रम के विषय वैयक्तिक होते हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं हैं कि वे संस्कार मात्र हैं| यदि उन्हें संस्कार मात्र मान लिया जाय तो अद्वेत वेदांत का योगाचार, विज्ञानवाद के बीच कोई भेद ही न रह जायेगा| पर ऐसी बात नहीं हैं| शंकराचार्य जी ने योगाचार बौद्धों की कटु आलोचना की हैं| यदि भ्रम के विषय संस्कार मात्र होते तो उनके निवारण के लिए किसी वाह्य वस्तु के प्रत्यक्ष की आवश्यकता नहीं होती| वर्कले के लिए ‘सत्ता, अनुभव मूलक’ हैं किन्तु शंकराचार्य जी के लिए ‘अनुभव, सत्ता मूलक’ हैं| यही दोनों में भेद हैं|
अनुभव, तर्क, श्रुति एवं अपरोक्षानुभूति.
आदि शंकराचार्य जी का यह निश्चित मत हैं कि तत्व ग्यान केवल अपरोक्षानुभूति द्वारा ही संभव हो सकता हैं| पर इस अपरोक्षानुभूति पर विचार करने के पहले यह देख लिया जाय कि उनका विभिन्न प्रमाणों के प्रति क्या दृष्टिकोण हैं? उनके अनुसार श्रुति आदि प्रमाणों के द्वारा ग्यान की प्राप्ति की जा सकती हैं| प्रमाणों के द्वारा ही ग्यान की उत्पत्ति होती हैं| इनका सम्बन्ध वस्तुओ के अध्यात्म से होता हैं| यह न विधि निषेध और न किसी व्यक्ति पर ही आधारित होता हैं | श्रुति द्वारा ही ब्रह्म ग्यान की प्राप्ति की जा सकती हैं| शंकराचार्यजी के इन कथनों का क्या तात्पर्य हैं? इन विभिन्न कथनों के बीच किस प्रकार समन्वय स्थापित हैं? वह इस प्रकार हैं|
शंकराचार्यजी ने “ग्यान” शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में किया हैं, जो “ग्यान” के साधारण अर्थ से सर्वथा भिन्न हैं| साधारण ग्यान जिसके भीतर सभी प्रमाण जन्य ग्यान आ जाते जाते हैं, ज्ञाता-गेह्य-ग्यान के भेद पर आधारित हैं, जो अविद्याजन्य हैं, पर ब्रह्म-ग्यान, सभी प्रकार के भेदों से रहित हैं| यह ठीक हैं कि साधारण ग्यान हमें ब्रह्म-ग्यान की ओर अग्रसर करता हैं पर दोनों के स्वभाव में पर्याप्त अन्तर हैं| इस भेद को समझ लेने पर शंकराचार्यजी की उक्तिओं में जो विरोध दिखाई देता हैं, वह स्वत: समाप्त हो जाता हैं| उन्होंने जो श्रुति प्रमाण को महत्व इसलिए दिया हैं कि श्रुति प्रमाण के द्वारा ब्रह्म साक्षात्कार में पर्याप्त सहायता मिलती हैं| उन्होंने एक स्थल पर लिखा हैं कि नैयायिकों के लिये जो प्रत्यक्ष हैं, वहीं उनके लिए स्मृति का महत्व हैं| इस प्रकार हम देखते हैं कि शंकराचार्यजी के अनुसार यदि प्रमाणों का सदुपयोग किया जाय तो उनसे ब्रह्म-साक्षात्कार की प्रेरणा प्राप्त हो सकती हैं पर उनके भीतर साध्य मूल न होकर साधन ही मूल हैं|
१. ग्यान और कर्म.
शन्कराचार्य जी के अनुसार साधारण लौकिक-ग्यान, ग्यान न होकर एक प्रकार का कर्म ही हैं क्योकि वहाँ ‘विधि-क्रिया’ होती हैं| ग्यान और कर्म में आंतरिक विरोध होता हैं| उनके बीच अन्धकार और प्रकाश का विरोध हैं| यहाँ ग्यान और कर्म का वास्तिवक अर्थ समझ लेना आवश्यक हैं| ग्यान का अर्थ तात्विक ग्यान या अपरोक्षानुभूति हैं तथा कर्म का अर्थ कम्य और निषिद्ध कर्मों से हैं| साधारण ग्यान और कर्म, दोनों कर्म ही हैं| उनके बीच कोई विरोध नहीं हैं| वास्तिवक विरोध तो अपरोक्षानुभूति रूप ग्यान व काम्य या निषिद्ध कर्मों के बीच हैं|
ग्यान और कर्म में क्यों इतना विरोध हैं कि ब्रह्म साक्षात्कार कर्म द्वारा न होकर केवल ग्यान द्वारा ही हो सकता हैं? इसके उत्तर में शंकराचार्य जी कहते हैं कि धर्म-जिज्ञासा के फल व विषय में महान अंतर हैं| धर्म, ग्यान का फल अभ्युदय होता हैं तथा उसके लिए अनुष्ठान की आवश्यकता होती हैं| पर ब्रह्म-ग्यान का फल नि:श्रेयस की प्राप्ति होती हैं तथा उसके लिए किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होती| इसी प्रकार धर्म-जिज्ञासा और ब्रह्म-जिज्ञासा के विषयों में भी महान अंतर होता हैं| धर्म-जिज्ञासा का विषय भव्य होता हैं तथा ग्यान के समय उसका अस्तित्व नहीं होता क्योकि उसका पुरुष-तंत्र होता| पर ब्रह्म-जिज्ञासा का विषय नित्य होता हैं क्योकि उसे पुरुष व्यापार की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती| ब्रह्म, एक परिनिष्टित वस्तु हैं, उसके लिए किसी कर्म की आवश्यकता नहीं हैं| इसके अतिरिक्त वैदिक या लौकिक कर्म किए जा सकते हैं, नहीं भी किए जा सकते अन्यथा रूप में भी किए जा सकते हैं| ये पुरुष तंत्र होते हैं| किन्तु वस्तु का यथार्त ग्यान, पुरुष तंत्र न होकर वस्तु-तंत्र ही होता हैं| इसमें बुद्धि विकल्पों का कोई हाथ नहीं होता|
यथार्त ग्यान प्रमाणों द्वारा उत्पन्न होता हैं और वह बस्तुओ के स्वभाव के अनुसार होता हैं| सैकड़ों विधियों के द्वारा न तो इसे उत्पन्न किया जा सकता हैं और न तो सैकड़ों निषेधों के द्वारा इसका निवारण ही किया जा सकता हैं| ग्यान कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं हैं| यह मन पर आधारित न होकर, वस्तु जगत पर आश्रित होता हैं|
ब्रह्म, कर्म से इतना असम्बध्द हैं कि “विधि-क्रिया” का भी कर्म नहीं हैं, क्योकि यह ग्यान और अज्ञात दोनों से भिन्न हैं| ब्रह्म, विधि-क्रिया का कर्म इसलिए भी नहीं हैं क्योकि ब्रह्म सभी प्रकार के ज्ञानों का अधिष्टान हैं| उसे ग्यान द्वारा नहीं जाना जा सकता| ब्रह्म “उपस्ति-क्रिया का भी कर्म नहीं हैं क्योकि वह मन और वाणी का विषय नहीं है वाणी स्वयं ब्रह्म द्वारा प्रेरित होती हैं| इसी प्रकार ब्रह्म न उत्पाध्य हैं, न विकारी हैं, न प्राप्य हैं और न संस्कार्य ही हैं| ब्रह्म भाव या मोक्ष “घट” के समान उत्पाध्य नहीं हैं क्योकि विकार मानने से वह अनित्य हो जायगा| ‘ग्राम-गच्छति’ के समान ब्रह्म भाव प्राप्य भी नहीं हैं क्योकि वह नित्य प्राप्त आत्मा का स्वरूप ही हैं| मोक्ष संस्कार कर्म भी नहीं हैं, क्योकि संस्कार पदार्थ में संस्कार दो प्रकार का होता हैं: एक गुणाधानरूप संस्कार और दूसरा दोषापनयन संस्कार| उसमे गुणाधानरूप संस्कार इसलिए संभव नहीं हैं क्योकि मोक्ष अनाधियतीशय ब्रह्म स्वरूप हैं और न उसमें दोषापनयन संस्कार ही हो सकता हैं क्योकि मोक्ष नित्य स्वरूप हैं|
क्रमश:...
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