वेदांत-आदि शंकराचार्य -भाग-1



 वेदांत...आदि-शंकराचार्य -भाग-1 
 
ब्रह्म, ईश्वर और जीव.

वेदांत के विषय में प्रचलित धारणा यह है कि ईश्वर सृष्टि-कर्ता हैं तथा ब्रम्ह सृष्टि-कर्ता नहीं हैं किन्तु आदि शंकराचार्यजी ने परमब्रह्म को ही सृष्टि का मूल माना हैं| यहाँ कारण का वास्तविक अर्थ अधिष्टान हैं| श्रुति, स्मृति और न्याय से सिद्ध हैं कि परब्रह्म हैं और जगत का कारण हैं| परमात्मा से ही सृष्टि होती हैं| संसारी ईश्वर में सृष्टि की स्तिथि, संहार और ग्यान की सामर्थ्य नहीं हैं| परमात्मा के बिना संसारी ईश्वर हैं ही नहीं| वास्तव में, ईश्वर में सृष्टि की सामर्थ्य मानना तथा ब्रह्म में इस शक्ति का अभाव दिखाना, यह सिद्ध करता हैं कि ईश्वर, ब्रह्म से अधिक शक्तिशाली हैं पर जब ब्रह्म को ईश्वर का मूल माना गया हैं, तब उस परब्रह्म में सृष्टि की सामर्थ्य का अभाव कैसे माना जा सकता हैं? यहीं कारण हैं कि शंकराचार्यजी के अनुसार परमब्रह्म ही सृष्टि का मूल हैं| उसी का ग्यान परम श्रेय हैं|

ब्रह्म वास्तव में निर्विकल्प और सभी विशेषों से रहित हैं पर उपाधिवश उपासना के कारण, वह उपास्य-उपासक के रूप में प्रकट होता हैं| एक ही ब्रह्म के दो रूप हैं- नाम रूप उपाधियो से भिन्न ब्रह्म जो निर्विकल्प अनुभूति का विषय हैं तथा दूसरी और वह ब्रह्म जिसमें नाम, रूप, इत्यादि उपाधियाँ पाई जाती हैं| ब्रह्म और ईश्वर वास्तव में दो नहीं, वरन एक ही हैं| ब्रह्म को जब हम सृष्टि से सम्पन्नं देखते हैं तो ईश्वर रूप व्यक्त होता हैं| ईश्वर नित्य, शुद्ध, बुद्ध. स्वन्त्रत और सर्वत्र हैं| वह माया के सत्व गुण से अविछिन्न हैं| वह भोक्ता भी नहीं हैं| वह केवल नित्य साक्षी के रूप मे जीवों के सुख दुःख को देखते रहता हैं, पर वह स्वयं उससे प्रभावित नहीं होता|

इश्वरीय शक्ति को माया कहते हैं| यद्दपि ईश्वर माया के सत्व गुण से अविछिन्न हैं पर वह उससे बिलकुल प्रभावित नहीं होता| जिस प्रकार कोई जादूगर अपने जादू से दूसरे लोगो को प्रभावित कर लेता हैं पर वह स्वयं अपने जादू से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार ईश्वर अज्ञानियों को अपनी माया से प्रभावित तो करता हैं पर वह स्वयं उससे प्रभावित नहीं होता क्योकि माया स्वयं इश्वर की ही शक्ति हैं|

ईश्वर जगत की सृष्टि, स्तिथि और लय तीनो का कारण हैं| वह जगत का उपादान और निमित्त कारण दोनों हैं| ब्रह्म, कारक ब्रह्म हैं, ईश्वर कार्य-ब्रह्म हैं| ब्रह्म निष्क्रिय हैं पर ईश्वर सक्रीय हैं| ब्रह्म तुरीय अवस्था में प्राप्त होता हैं, ईश्वर सुषुप्ति की अवस्था हैं| सुषुप्ति की अवस्था अग्यान की अवस्था होते हुये भी, उसमें स्वप्न एवं जागृत अवस्थाएं सम्मिल्लित हैं| इसी प्रकार ईश्वर एक होते हुये भी नाना प्रकार के रूपों को उत्पन्न करता हैं|

ब्रह्म चार रूपों में हमारे समक्ष उत्पन्न होता हैं| इन रुपों का चार प्रकार के चैतन्य की अवस्थाओ एवं चार प्रकार के शरीरों के साथ सीधा सम्बन्ध होता हैं:-

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­­­­­­चैतन्य की अवस्थाये............शरीर...............आत्मा का  रूप..........ब्रह्म का  रूप 

१.जागृत ...........................स्थूल शरीर ......विश्व.............................विराट 
२.स्वप्न .............................सूक्ष्म शरीर ......तैजस ..........................हिरण्यगर्भ 
३.सुषुप्ति ..........................कारण शरीर ...प्राज्ञ ............................ईश्वर
४.तुरीय ............................X…………….आत्मा..........................ब्रह्म



ईश्वर के विषय में अद्वेत वेदांत में तीन प्रकार के मत प्रचलित हैं:-

१.अवच्छेदवाद:- इसके अनुसार माया द्वारा अविछिन्न ब्रह्म ही ईश्वर हैं तथा अविद्या के द्वारा अविछिन्न ब्रह्म, जीव कहा जाता हैं| पर इस सिद्धान्त के विपरीत यह आरोप लगाया जाता हैं कि ब्रह्म जो चैतन्य स्वरूप हैं, उसकी उपाधि माया कैसे हो सकती हैं?

२.प्रतिबिम्बवाद:- ब्रह्म जब माया में प्रतिबिंबित होता हैं तो उसे ईश्वर कहते हैं पर जब वहीं ब्रह्म अविद्या में प्रतिबिंबित होता हैं तो उसे जीव कहते हैं पर इस सिद्धान्त के विरुद्ध यह आरोप लगाया जाता हैं कि माया और ब्रह्म दोनों अरुपवान हैं अत: एक दूसरे के भीतर प्रतिबिम्ब कैसे पड़ सकता हैं?

३.आभासवाद:- ईश्वर ब्रह्म का ही एक विलक्षण आभाष हैं| शंकराचार्यजी के बाद के वेदान्तियो ने व्यर्थ ही ईश्वर के विषय में बाल की खाल निकालने की चेष्टा की हैं| शंकराचार्यजी ने जो सूर्य का चंद्रमा के जल में प्रतिबिम्बों का उदाहरण दिया हैं, उन्हें उपमा के ही रूप में लिया जाना चाहिये| वे, ईश्वर और जीवों के स्वभाव की व्याख्या के लिए आभासवाद पर ही विशेष बल देते हैं जिसके अनुसार ईश्वर और जीव , ब्रह्म के विलक्षण विवर्त हैं| माया या अविद्या क्यों और कैसें ब्रह्म को आच्छादित कर ईश्वर और विभिन्न जीवो को उत्पन्न करती हैं, ये सभी प्रश्न वेदांत में अस्वीकार प्रश्न हैं| जब तक हम माया और अविद्या से ग्रस्त रहेंगे, तब तक हम इस रहस्य को नहीं जान सकते| किन्तु जब हम माया और अविद्या से मुक्त हो जायेंगे, उस समय ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहेगा| ईश्वर व जीव, सभी कुछ ब्रह्म में लीन हो जायेंगे|

आदि शंकराचार्यजी के अनुसार ईश्वर, जगत का उपादान कारण एवं निमित्त कारण दोनों हैं पर कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर और जगत के स्वभाव में इतनी विलक्षणता हैं कि वह जगत का कारण हो ही नहीं सकता| ईश्वर चेतन हैं और जगत अवचेतन हैं| अचेतन जगत का कारण चेतन ईश्वर कैसे हो सकता हैं?

शंकराचार्यजी यहाँ लोकानुभव का सहारा लेते हैं| लोक में चेतन से अवचेतन की उत्पत्ति देखी जाती हैं| जैसे पुरुष से अचेतन नख, बाल उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार चेतन ब्रह्म से अचेतन संसार की उत्पत्ति हो सकती हैं| इसी प्रकार हम, लोक में अचेतन से भी चेतन की श्रृष्टि देखते हैं| गोबर जो अचेतन हैं, वह बिच्छुओं को उत्पन्न करता हैं| यदि यह कहा जाय कि पुरुष और नख-बाल में पृथ्वी तत्व समान्य हैं तो शंकर का कथन हैं कि ईश्वर जगत में भी सत्ता सामान्य हैं| अत: चेतन ईश्वर से अचेतन जगत की श्रृष्टि में कोई आश्चर्य नहीं हैं|

कुछ लोग आक्षेप करते हैं कि यदि ईश्वर से जगत की उत्पत्ति होती हैं और अंत में वह उसी में समा जाता हैं तो जगत का स्थौल्य, अचेतनत्व, परिच्छिन्नत्व और उसकी अशुद्धि ईश्वर को अशुद्ध बना देगी| इस आक्षेप के उत्तर में शंकराचार्यजी कहते हैं कि जब कार्य, कारण में विलीन होता हैं तो अपनी विशेषता का परित्याग कर देता हैं| अत: उसके द्वारा कारण के अशुद्ध होने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता| जब घडा टूटकर मिटटी में लींन हो जाता हैं तब वह अपनी विशेषताओ का परित्याग कर देता हैं| आभूषण गलने पर धातु में विलीन हो जाता हैं और उसे अशुद्ध नहीं करता| इसी प्रकार जगत भी ईश्वर को अशुद्ध नहीं करता|

यदि यह कहा जाये की प्रलयवस्था में जगत, ईश्वर में विलीन हो जाता हैं और वह कारण से तदाकार हो जाता हैं तो पुन: भेदात्मक जगत की उससे किस प्रकार उत्पत्ति हो सकती हैं? अभेद से तो केवल अभेद की ही उत्पत्ति हो सकती हैं? इस कथन के उत्तर में शंकराचार्यजी जी कहते हैं कि जिस प्रकार जीवात्मा सुषुप्ति की अवस्था में अभेद को प्राप्त होने पर भी जागृत और स्वप्न की भेदावस्था को लौट आता हैं, उसी प्रकार ईश्वर से भी भेदात्मक जगत की उत्पत्ति हो जाती हैं|

कुछ लोग शंकराचार्यजी के अद्वेतवाद के विरुद्ध यह आरोप लगाते हैं कि ईश्वर को जगत का उपादान कारण मान लिया जाय तो वह भेदभाव व पक्षपात के दोष से मुक्त नहीं हो सकते? ईश्वर ने कुछ लोगो को सुखी बनाकर उनके प्रति पक्षपात किया हैं और अन्य लोगो को दुखी बनाकर भेदभाव किया हैं किन्तु श्रुतियों में ईश्वर को निष्पक्ष रूप में वर्णित किया गया हैं| इस आक्षेप का उत्तर देते हुये शंकराचार्यजी का कथन हैं कि मनुष्यों के इस जीवन का सुख-दुःख पूर्व जन्मों के कृत्य का परिणाम हैं| ईश्वर ने उनके कर्मो के आधार पर ही कुछ को सुखी और कुछ को दुखी बनाया हैं| वे अपने सुख-दुःख के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं| ईश्वर उनके सुख-दुःख का कारण नहीं हैं| उदाहरण के लिए वर्षा, वनस्पतियों का साधारण कारण हैं पर विभिन्न प्रकार के बीज बनस्पतियो के असाधारण कारण हैं| इसी प्रकार मनुष्यों का सुख-दुःख उनके स्वयं के कर्मों का परिणाम हैं| इसके लिए ईश्वर पर दोषारोपण करना उचित नहीं हैं|

यदि यह कहा जाय की कर्म शरीरों पर निर्भर होते हैं और श्रृष्टि के पूर्व शरीर होते नहीं, तो श्रृष्टि के पूर्व कर्म किस प्रकार संभव हो सकते हैं? कर्मभाव के कारण भेदात्मक जगत की श्रृष्टि किस प्रकार हो सकती हैं? इस प्रश्न के उत्तर में शंकराचार्यजी कहते हैं कि संसार अनादि हैं| पूर्व जन्म के न भोगे हुये कर्म आगे आने वाले जन्म के भाग्य को निर्धारित करते हैं| बिना संस्कारो के क्षय के सृष्टि चक्र से मुक्ति संभव नहीं हैं| जैसे बीज से बृक्ष और बृक्ष से बीज या अंडे से मुर्गी और मुर्गी से अंडे प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार संस्कार से शरीर और शरीर से संस्कार प्राप्त होते रहते हैं| यदि संसार को आदि मान लिया जाय तो संसार की असमनाताये अकारण मान ली जाएँगी जो कर्मवाद के सिध्दांत के विरुद्ध होगा| ईश्वर को तो उनका दोषी माना नहीं जा सकता क्योकि ईश्वर न्यायी और दयालु हैं| अविद्या को भी उसका कारण नहीं माना जा सकता क्योकि वह सब जगह समान रूप से विधमान हैं| आत्मा को भी इन असमानताओ का कारण नहीं माना जा सकता क्योकि आत्मा बिना कर्मो के शरीर धारण नहीं कर सकती और शरीर के बिना कर्म संभव नहीं हैं| इन सम्पूर्ण समस्याओ का समाधान तभी हो सकता हैं जब संसार को अनादि मान लिया जावे| इसी कारण शंकराचार्यजी संसार को अनादि मानते हैं|

अविद्या अवस्था में जीव जो कर्म सम्पादित करते हैं, उन कर्मों के वास्तविक कारण वे जीव ही हैं| ईश्वर उनका केवल निर्देशक कारण हैं| निर्देशक कारण होते हुये भी ईश्वर ने जीवों को सकल्प की स्वतंत्रता प्रदान की हैं|

जगत ब्रह्म का विवर्त हैं.

ईश्वर सर्व शक्तिसंपन्न होने के कारण बिना उपकरणों के ही जगत का निर्माण करते हैं| जिस प्रकार दूध स्वभाव से ही दही का रूप धारण कर लेता हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी स्वभावत: जगत का रूप धारण कर लेता हैं| ईश्वर पूर्ण शक्तिमान हैं| उसे किसी प्रकार के उपकरणों की आवश्यकता नहीं हैं| जिस प्रकार ॠषि-महर्षि केवल ध्यान से ही भौतिक वस्तुओ का निर्माण कर देते हैं, उसी प्रकार पूर्ण ईश्वर स्वयं अपने से ही जगत को उत्पन्न कर देते हैं|

उपर्युक्त कथन का तात्पर्य यह कदापि नहीं हैं कि जगत, ईश्वर या ब्रह्म का परिणाम हैं| जगत, ईश्वर का परीणाम नहीं हैं| वास्तविक अन्यथा भाव को तो परिणाम कहते हैं पर अवास्तविक या अतात्विक अन्यथा भाव को विवर्तवाद कहते हैं| यदि ईश्वर जगत रूप में परिणित हो जाता हैं तो जगत की उत्पत्ति के बाद उसकी सत्ता समाप्त हो जाना चाहिये, जो असंभव हैं| यदि वह केवल आंशिक रूप से ही परिणित हो जाता हैं तो वह विभाज्य हो जायेगा और इस प्रकार वह शाश्वत नहीं रह जायेगा| पुन: ब्रह्म, चेतन, अमिश्रित व अयोगिक तत्व हैं, उसका परिणाम कभी हो ही नहीं सकता| परिणाम उन्हीं वस्तुओ का होता हैं जो योगिक होती हैं तथा जिनका संस्थान होता हैं| अमिश्रित या अयोगिक तत्व होने के कारण ब्रह्म का केवल विवर्त हो सकता हैं, परीणाम नहीं| प्रकृति परिणाम वाद के विरुद्ध शंकराचार्य जी का यही ब्रह्म विवर्तवाद हैं|

जगत ब्रह्म का विवर्त हैं| जगत के मिथ्या होने के कारण ब्रह्म में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता | जगत केवल नाम-रूपात्मक हैं| उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं हैं| ईश्वर जगत की श्रृष्टि भी क्यों करेगा? श्रृष्टि में उसकी कोई इच्छा भी नहीं हो सकती| वह पूर्ण और परितृप्त हैं| शंकराचार्य जी के अनुसार श्रृष्टि, ईश्वर की लीला हैं| उसके सभी कार्य लीलावत, स्वभावत: होते रहते हैं|

कुछ लोगो के अनुसार जगत, ईश्वर श्रृष्ट न होकर जीव श्रृष्ट हैं पर शंकराचार्य जी इस बात से सहमत नहीं हैं| जगत, जीव श्रृष्ट इसलिए नहीं हैं कि कोई भी जीव अपने बन्धन के लिए जेल का निर्माण नहीं करेगा|

अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता हैं कि ईश्वर और जगत के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध हैं| अद्वेत वेदांत में अन्यत्व का एक विशिष्ट अर्थ हैं| जिस प्रकार कारण से कार्य अन्य नहीं हैं, वैसे ही जगत, ईश्वर से अन्य नहीं हैं| कारण और कार्य एक दूसरे से अनन्य हैं अर्थात कार्य, कारण के बराबर हैं पर कारण, कार्य के बराबर नहीं हैं| यहीं अनन्य का वास्तविक अर्थ हैं| अनन्य का यह भी अर्थ नहीं हैं कि ईश्वर और जगत में अभेद सम्बन्ध हैं| इसी बात को ध्यान में रखकर वाचस्पति मिश्र ने कहा था कि वे ईश्वर और जगत के बीच अभेद का प्रतिपादन नहीं कर रहे हैं, प्रत्युत भेद का निराकरण कर रहे | शंकराचार्य जी ने अपने दर्शन में तीन प्रकार के संबंधो की चर्चा की हैं- [१] अभेद सम्बन्ध, [२] तादात्म्य सम्बन्ध, और [३] अनन्य सम्बन्ध| जीव व जीव तथा जीव व ईश्वर का सम्बन्ध अभेद सम्बन्ध हैं| जीव व जड का सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध हैं| ईश्वर व जगत का सम्बन्ध अनन्य सम्बन्ध हैं| इसे तादात्म्य संबंध भी माना जा सकता हैं क्योकि ईश्वर जगत का साक्षी हैं|

क्रमश:....

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