वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-२


वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-२ 

ग्यान मीमांशा.

अद्वेत वेदांत, सांख्य योग की तरह ग्यान के प्रतिनिधित्ववाद [Representative Theory] में विश्वाश करता हैं| वैसे तात्विक दृष्टी से ग्यान परम तत्व का स्वरूप हैं, पर व्यवहारिक दृष्टी से हम ग्यान को एक प्रक्रियां के रूप में ले सकते हैं जिसे जीव संपन्न करता हैं| विशुध्द आत्मा तो ग्यान से अभिन्न हैं, पर जीवात्मा को वाह्य संसार जानने के लिए प्रक्रियां की आवश्यकता होती हैं| जीव एक इकाई न होकर दो घटकों का समुच्चय हैं- प्रथम अंत:करण और द्वितीय साक्षी|

१.अंत:करण= इन दोनों में अंत:करण भौतिक हैं जो पांच तत्वों से मिलकर बना हैं| सत्व, रज, व तमस तीनों से संपन्न होने पर भी इसमें तैजस गुण की विशेषता हैं| इसी कारण इसके भीतर भिन्न भिन्न आकार ग्रहण करने की क्षमता पाई जाती हैं| तैजस- अंत:करण, चक्षु, इन्द्रियो के द्वारा शरीर से बाहर निकलकर घटादि विषय तक जाता हैं और घटादि विषयों के आकार में परिणित हो जाता हैं|

२.साक्षी= जीव का दूसरा पक्ष साक्षी हैं जो कि चेतन तत्व हैं और अंत:करण से भिन्न होते हुये भी उसे प्रकाशित करने में सहायता देता हैं| साक्षी को अंत:करण से बिलकुल भिन्न भी नहीं कहा जा सकता, क्योकि अद्वेत वेदांत के अनुसार तत्व दो नहीं वरन एक हैं| अत: सांख्य दर्शन के द्वेतवाद की अपेक्षा यहाँ साक्षी और अंत:करण के संयोग में कोई कठिनाई नहीं हैं| साक्षी और अंत:करण दोनों सापेक्षिक हैं- एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती| निष्क्रिय साक्षी और सक्रीय अंत:करण, दोनों के योग को ही जीव कहते हैं| जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती, साक्षी और अंत:करण का संयोग किसी न किसी रूप में बना रहता हैं| मोक्ष के समय उनका संयोग भंग हो जाता हैं| संयोग के भंग होने पर साक्षी, ब्रह्म में तथा अंत:करण माया में विलीन हो जाता हैं|

साक्षी और जीव समान नहीं हैं, पर साथ साथ दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न भी नहीं हैं| जीव, आत्म चेतन्य का विषय हो सकता हैं क्योकि इसके भीतर अंत:करण का अंश विद्धमान हैं किन्तु साक्षी किसी भी प्रकार के ग्यान का विषय नहीं हो सकता| साक्षी, विषयी हैं, अत: उसके किसी ग्यान के विषय होने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता| इसी कारण अंत:करण विशिष्ट चेतन्य को जीव व अंत:करण से उपहित चेतन्य को साक्षी कहा जाता हैं|

३.ग्यान= अब यहाँ प्रश्न, यह उत्पन्न होता हैं कि ग्यान किसे कहते हैं? अद्वेत वेदांत में ग्यान से तात्पर्य न केवल अंत:करण की वृत्ति से हैं और न केवल साक्षी से हीं वरन साक्षी से प्रेरित वृत्ति से हैं| यह वृत्ति तत्व का ग्यान आपातिक अंश हैं तथा साक्षी तत्व का ग्यान शाश्वत तत्व से हैं| आत्मा जब अंत:करण कि वृत्तियो के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता हैं तो वह परिवर्तनशील दिखाई देता हैं| वास्तव में आत्मा अपरिवर्तनशील तत्व हैं पर वृत्तियो में परिवर्तन के कारण अज्ञानवश वह अपने को परिवर्तनशील समझ बैठता हैं| जब साक्षी को, साक्षी या विषयी के रूप में ग्यान होता हैं तो उसे साक्षी ग्यान कहते हैं पर जब साक्षी को वृत्ति के माध्यम से वाह्य पदार्थो का ग्यान होता हैं, तो उसे वृत्ति ग्यान कहते हैं| साक्षी ग्यान विषयी का ग्यान हैं पर वृत्ति ग्यान विषय का ग्यान हैं|

४.ग्यान के भेद=अद्वेत वेदांत के अनुसार ग्यान दो प्रकार का होता हैं-प्रथम अपरोक्ष ग्यान और द्वितीय परोक्ष ग्यान|

अपरोक्ष ग्यान= वास्तव में शाश्वत चेतन्य केवल एक ही हैं जिसे ब्रह्म कहते हैं किन्तु उपाधियो के भेद के कारण वह अनेक प्रकार का प्रतीत होता हैं| उदाहरण के लिए घटादि विषयों से अविछिन्न चेतन्य, विषय चेतन्य, अंत:करण की वृत्ति से अविछिन्न चेतन्य, प्रमाण चेतन्य तथा स्वयं अंत:करण से अविछिन्न चेतन्य प्रभास-चेतन्य कहा जाता हैं| वाह्य प्रत्यक्ष में तेजस मन, इन्द्रिय छिद्रों के बाहर निकल कर विषय या प्रमेय के पास पहुचकर, उसका आकार ग्रहण कर लेता हैं| इन आकारों में होने वाला अंत:करण का परीणाम ही अंत:करण की बृत्ति कहा जाता हैं| इस प्रकार प्रमाण चेतन्य और विषय चेतन्य का तादात्म्य स्थापित हो जाता हैं| पुन: अंत:करण में नित्य चेतन्य का प्रतिबिम्ब पड़ता हैं जिसे चित्ताभास कहते हैं| अंत:करण वह अधिष्टान हैं जहाँ प्रमेय चेतन्य, प्रमाण चेतन्य यथा प्रभास-चेतन्य के बीच तादातम्य स्थापित होता हैं| तभी अपरोक्ष ग्यान की उत्पत्ति होती हैं| अपरोक्ष ग्यान और एन्द्रिक ग्यान दोनों समान नहीं हैं| इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ग्यान के अतिरिक्त भी अपरोक्ष ग्यान की प्राप्ति हो सकती हैं| उदाहरण के लिए हमें जीवात्मा का ग्यान भी अपरोक्ष ग्यान से प्राप्त होता हैं पर इसे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ग्यान की संज्ञा नहीं दी जा सकती| इसे समझने के लिए अपरोक्षता का लक्षण जानना होगा| इसके उत्तर में वेदान्तिक कहते हैं कि इन्द्रिय जन्य होना अपरोक्षता का लक्षण नहीं हैं वरन प्रमाण-चेतन्य व प्रमेय चेतन्य का तादात्म्य ही अपरोक्षता का लक्षण हैं|

वेदांत के अनुसार अपरोक्ष-ग्यान का तीन...वर्गीकरण हैं–[क].योग्यता, [ख]. वर्तमानता, एवं [ग].संनिकृष्टता.

[क] योग्यता= जब तक किसी वस्तु में हमारे अपरोक्ष ग्यान के विषय होने की क्षमता नहीं हैं, तब तक वह वस्तु हमारे ग्यान का विषय नहीं बन सकती| यह अपरोक्ष या प्रत्यक्ष ग्यान को श्रुति-ग्यान से पृथक करती हैं| मेज और कुर्शी में प्रत्यक्ष ग्यान के विषय होने की योग्यता हैं पर धर्म और अधर्म हमारे प्रत्यक्ष ग्यान के विषय नहीं हो सकते क्योकि उनमें प्रत्यक्ष ग्यान के विषय होने की योग्यता नहीं हैं| वे श्रुति ग्यान के विषय हो सकते हैं, जो इन्द्रियातीत विषयों से सम्बंधित हैं|

[ख] वर्तमानना= प्रत्यक्ष के विषय में वर्तमानत्व होना चाहिये| भूतकाल या भविष्यकाल के विषय का प्रत्यक्ष या अपरोक्ष ग्यान प्राप्त, नहीं किया जा सकता| यह लक्षण प्रत्यक्ष को स्मृति से पृथक करता हैं|

[ग] संनिकृष्टता= प्रत्यक्ष ग्यान तभी संभव हो सकता हैं जबकि विषयी और विषय के बीच परस्पर सन्निकर्ष हों| जिस वस्तु के माध्यम से विषयी और विषय के बीच परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता हैं, उसे वृत्ति कहते हैं|

बही वस्तुओ के ग्यान में विषयी और विषय भिन्न भिन्न स्थान में स्थित होते हैं और बृत्ति दोनों का सामान्य अधिष्टान होती हैं| जब बृत्ति और वस्तु का तादात्म्य होता हैं, तभी प्रत्यक्ष ग्यान की उत्पत्ति होती हैं अर्थात वाह्य वस्तुओ के ग्यान में उपर्युक्त तीनों प्रागप्रेक्षाओ- योग्यता, वर्तमानता, संनिकृष्टता. की उपस्थिति होनी चाहिए पर आंतरिक वस्तुओ जैसे सुख-दुःख इत्यादि के ग्यान के लिए यदि प्रथम दो प्रागप्रेक्षाये विधमान हैं तो तीसरी प्रागप्रेक्षा विधमान होगी| प्रथम दो प्रागप्रेक्षाये विधमान रहने पर आंतरिक अनुभवो के अपरोक्ष ग्यान में कोई कठिनाई प्रस्तुत नहीं होगी|

परोक्ष ग्यान= अपरोक्ष ग्यान की उपरोक्त तीन प्रागप्रेक्षाओ में यदि एक या अधिक प्रागप्रेक्षाओ की अनुपस्तिथि होती हैं तो वह परोक्ष ग्यान कहा जायेगा| उदाहरण के लिए- दीवाल की उस पर वस्तुओ का ग्यान परोक्ष ही होगा क्योकि हमारी बृत्ति या अंत:करन दीवाल के उस पार जाकर उसका स्वरूप ग्रहण नही कर सकता| उनमें योग्यता और बर्तमानता तो हैं पर संनिकृष्टता का अभाव हैं| इसलिए उनका ग्यान परोक्ष ग्यान कहा जायेगा|

चेतन्य की अवस्थाएं= हमें केवल जागृत अवस्थाओ में ही ग्यान की प्राप्ति नहीं होती| चेतन्य की हर अवस्थाओ में भी हमें किसी न किसी प्रकार के ग्यान की प्राप्ति होती हैं| आत्मा कभी भी ग्यान से रहित नहीं होती| वेदांत में चेतन्य की चार अवस्थाओ का वर्णन मिलता हैं|

१.जागृत अवस्था= इस अवस्था में हमें व्यवहारिक जगत का ग्यान प्राप्त होता हैं| इसमें अंत:करन, वाह्य इन्द्रियो के द्वारा बाहर निकल कर वाह्य वस्तुओ का रूप धारण कर लेता हैं जिसे बृत्ति कहते हैं| इस वृत्ति के द्वारा ही जीवात्मा वाह्य वस्तुओ का ग्यान प्राप्त करती हैं| जागृत अवस्था में हमारा स्थूल शरीर काम करता हैं|

२.स्वप्न अवस्था= जागृत अवस्था की तरह स्वप्न-अवस्था में भी हमें वर्तमान वस्तुओ का ग्यान होता हैं| स्वप्न केवल “पुनरुज्जीवित संस्कार” मात्र नहीं हैं, वह एक नवीं सृष्टि हैं जिसमें हमें प्रतिभासित सत्ताओ का ग्यान प्राप्त होता हैं| यहाँ अंत:करन, वाह्य इन्द्रियो की सहायता लिए बिना ही स्वयं कार्य करता हैं| यहाँ हमारा स्थूल शरीर कार्य नहीं करता| केवल सूक्ष्म शरीर ही कार्य करता हैं|

३.सुषुप्तावस्था= इस अवस्था में अंत:करन अव्यक्त होकर अपने कारण माया में लीं हो जाता हैं| इसमें केवल साक्षी और अविद्या शेष रहते हैं| अविद्या को ही कारण शरीर कहते हैं| अंत:करन के अभाव के कारण इस स्तिथि में जागृत और स्वप्न कि तरह वाह्य वस्तुये प्रत्यक्ष करने को नहीं होती| यहाँ जीव का व्यक्तित्व तो रहता हैं पर वह व्यक्तित्व अंत:करन द्वारा सीमित न होकर साक्षी व अविद्या के द्वारा निर्धारित होता हैं| सुषुप्तावस्था में अविद्या केवल आंशिक रूप में ही कार्य करती हैं| अविद्या अपनी अवधारण शक्ति के द्वारा तत्व के वास्तविक स्वरूप को ढ़क लेती हैं, पर उसे विभिन्न नाम-रूपों में प्रदर्शित नहीं करती| सुषुप्ति में तीन चीजें पाई जाती हैं:-

[१] नामरूप का अभाव [२] व्यक्तित्व का सत्यत्व [३] आनंद की अनुभूति|

४.तुरीय अवस्था=चेतन्य की यह चतुर्थ अवस्था हैं जिसे मोक्ष की अवस्था कह सकते हैं| इसमें प्रत्येक प्रकार के शरीर का अभाव पाया जाता हैं| यहाँ अविद्या न आवरण रूप में और न विक्षेप रूप में ही कार्य करती हैं| किसी भी प्रकार के अग्यान के कर्ण यह पूर्ण मोक्ष या आनंद की अवस्था हैं|

गौंडपाद जी ने इन अवस्थाओ का वर्णन करते हुये लिखा हैं कि “रज्जू, सर्प की भांति तत्व से विपरीत ग्रहण होने पर स्वप्न होता हैं और केवल तत्व को न जानने से निद्रा होती हैं| पर इन दोनों विपर्यय के क्षीण हो जाने पर साधक तुरीय अवस्था को प्राप्त होता हैं| इस प्रकार जीव, जब अनादि माया से सोया हुआ तत्वबोध के द्वारा भली भांति प्रकार से जग जाता हैं, तभी उसे जन्म, निद्रा तथा स्वप्न से रहित अद्वेत आत्म तत्व का बोध प्राप्त होता हैं|

क्रमश....

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