वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-४
श्री शंकराचार्य जी ने अपने दर्शन में अनुभव, तर्क एवं श्रुति को स्थान दिया हैं| उनका दर्शन अनुभव के विपरीत नहीं हैं| उनका सम्पूर्ण दर्शन अनुभवों पर आश्रित हैं| शारीरिक भाष्य में “अध्यास” को परिभाषित करते हुये वे लोकानुभव की ओर संकेत करते हैं| साधारण जीवन का अनुभव हैं कि शुक्तिका चांदी के समान दिखाई पडती हैं तथा एक चंद्रमा, दूसरे चंद्रमा के समान दिखाई पड़ता हैं| उनका स्पस्ट मत हैं कि दृष्ट के आधार पर ही अदृष्ट की व्याख्या की जा सकती हैं| किसी दृष्ट वस्तु में अविश्वास करना मुर्खता हैं| दृष्ट वस्तु कभी भी अनुत्पन्न नहीं होती हैं| ऐसी कोई कल्पना नहीं हैं जो दृष्ट वस्तु के विपरीत हैं तो उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता| इस प्रकार हम देखते हैं कि शंकराचार्य जी ने अनुभूतियो की कभी अवहेलना नहीं की हैं| सच पूछा जाये तो उनका सारा दर्शन ही जीवन के सामान्य अनुभवो पर आश्रित हैं|
अब इस पर विचार किया जा रहा हैं कि शंकराचार्य जी का ‘अनुभव’ से क्या तात्पर्य हैं? क्या अनुभव से उनका तात्पर्य केवल लौकिक प्रत्यक्ष से हैं या उसके भीतर अलौकिक प्रत्यक्ष को भी शामिल किया जा सकता हैं| क्या दोनों के अनुभवों में किसी प्रकार का विरोध हैं? शंकराचार्य जी के अनुसार लौकिक प्रत्यक्ष और अलौकिक प्रत्यक्ष के बीच किसी प्रकार का विरोध नहीं हो सकता, क्योकि दोनों के क्षेत्र प्रथक प्रथक हैं| प्रत्येक का अपने अपने क्षेत्र में उच्चतम स्थान हैं| सैकड़ों श्रुतियां भी पदार्थो को भिन्न भिन्न स्थानों और कालों में अपने स्वभाव को त्यागने में बाध्य नहीं कर सकती| इसी प्रकार सैकड़ों श्रुतियां अग्नि को शीतल या प्रकाश रहित होने के लिए विवश नहीं कर सकती और न उन्हें कभी प्रमाणित ही माना जा सकता हैं| प्रत्येक प्रमाण उसी क्षेत्र कि वस्तुओ को प्रकाशित करता हैं जिन्हें अन्य प्रमाण प्रकाशित नहीं करते|| अत: उनके बीच किसी प्रकार के विरोध की संभावना ही नहीं हैं| व्यवहारिक, जगत की वस्तुओ के लिए लौकिक प्रत्यक्ष का प्राधान्य हैं, पर पारमार्थिक जगत के लिए तो श्रुति ही एक मात्र प्रमाण हैं|
ब्रह्म न तो प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जा सकता हैं, न अनुमान द्वारा और न तर्क द्वारा ही जाना जा सकता हैं| साधारण जनों के लिए ब्रह्म को जानने का एक मात्र उपाय श्रुति प्रमाण ही हैं| शंकराचार्य जी इसके कई कारण प्रस्तुत करते हैं:-
१. रुपादि के कारण ब्रह्म प्रत्यक्ष का विषय नहीं हैं|
२. लिंगादि के अभाव के कारण ब्रह्म अनुमान का भी विषय नहीं हैं|
३. ब्रह्म को तर्क के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता| शंकराचार्य जी के अनुसार विशुद्ध तर्क अनवस्थित होता हैं तथा वह भ्रान्ति को भी उत्पन्न करता हैं| तर्क क्यों अनवस्थित होता हैं इस विषय पर उनके विचार हैं कि यथार्त ग्यान के सम्बन्ध में मन वैभिन्य के लिए कोई अवकाश नहीं हैं| पर यह सर्व विदित हैं कि तर्क पर आधारित ग्यान परस्पर विरोधी होते हैं| यदि एक तार्किक किसी ग्यान को सम्यक ग्यान कहता हैं तो दूसरा तार्किक उसी ग्यान को असिद्ध घोषित के देता हैं| संसार के भूत, वर्तमान एवं भविष्य के सभी तार्किकों को एक काल में और एक स्थान पर एकत्रित कर किसी वस्तु के विषय में एक निश्चित मत प्राप्त कर, सम्यक ग्यान को स्थापित करना असंभव कार्य हैं| अत: तर्क द्वारा प्राप्त ग्यान कभी यथार्त नहीं हो सकता| इन सब कारण से शंकराचार्य जी इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि ब्रह्म को हम केवल श्रुतियो द्वारा ही जान सकते हैं|
३.अपरोक्षानुभूति.
यदि ब्रह्म न तो प्रत्यक्ष द्वारा, न अनुमान द्वारा, न तर्क द्वारा और न श्रुति द्वारा ही जाना जा सकता हैं तो ब्रह्म को जानने का साधन क्या हैं? शंकराचार्य जी के अनुसार अपरोक्षानुभूति ही ब्रह्म साक्षात्कार करा सकती हैं| ब्रह्म ज्ञाता हैं, ज्ञेय नहीं हैं कि उसका ग्यान किसी अन्य प्रमाण द्वारा हो सकता हैं| अनुभूति के अतिरिक्त जितने भी प्रमाण हैं , वे सब अनुभव की प्राप्ति के साधन मात्र हो सकते हैं| उनके भीतर साध्य मूल न होकर साधन मूल हैं| स्वानुभूति के अतिरिक्त जितने प्रमाण हैं, उनका कार्य, ब्रह्म साक्षात्कार कराना नहीं वरन अविद्या-कल्पित भेदो कि निवृति करना ही हैं| अन्य प्रमाणों की अपेक्षा श्रुति ग्यान हमें अनुभव के पास जल्दी ला देती हैं| उन्होंने अंत में घोषित किया हैं कि सभी ग्यान का लक्ष्य अनुभव ही हैं| प्रत्यक्ष अनुमान या श्रुति इत्यादि प्रमाणों का कार्य, केवल इतना ही हैं कि वे प्रदर्शित करे कि आत्मा, अनात्म वस्तुओ से बिलकुल प्रथक हैं| अनादि, अनंत तथा नैसर्गिक अभ्यास को दूर करना ही श्रुति आदियो का कार्य हैं| अत: हम यह कह सकते हैं कि आत्म ग्यान को प्राप्त करने की अपेक्षा अनात्म बुद्धि की निवृति करना ही प्रमाणों का कार्य होता हैं| ज्योही अनात्म बुद्धि का निराकरण होता हैं, हम आत्म ग्यान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं जो हमारा स्वभाव ही हैं| यहीं अपरोक्षानुभूति हैं|
माया एवं मोक्ष.
चार्वाको को छोडकर भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय मोक्ष के आदर्श पर विश्वाश करते हैं| इन सम्प्रदायों का यह भी विश्वाश हैं कि ग्यान के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती हैं| न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, बौद्ध, शंकर वेदांत इत्यादि सभी इस बात से सहमत हैं| शंकराचार्य जी की यह विशेषता हैं कि वे ग्यान को ब्रम्ह ग्यान के रूप में स्वीकार करते हैं| ब्रह्म चेतन्य रूप हैं| अत: वे ग्यान की विज्ञानवादी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं| इसके विपरीत गौतम, कणाद, कपिल, प्रभाकर एवं कुमारिल भट्ट, ग्यान की वस्तुवादी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं| इन विचारको के अनुसार संसार कि वस्तुओ में आत्मा केवल एक वस्तु हैं| मोक्ष- आदर्श एवं ग्यान साधन के अतिरिक्त एक तीसरी बात भी हैं जिसमें प्राय: सभी भारतीय दार्शनिक एकमत हैं और वह यह हैं, कि मोक्ष शाश्वत हैं| एक श्रुति कहती हैं कि “जो एक बार मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, वे पुन: लौटकर नहीं आते|” इसी प्रकार दूसरी श्रुति कहती हैं कि “ मुक्ति प्राप्त लौटकर नहीं आते”| बौद्धों का निर्वाण, न्यायिको का अपवर्ग, वैशेषिको का नि:श्रेयस, योगिओ का कैवल्य एवं सांख्य और वेदान्तियो की मुक्ति, सभी शाश्वत हैं| उनके बीच मोक्ष के स्वरूप के विषय में भले ही भेद हो, पर इस बात में सभी सहमत हैं कि मोक्ष शाश्वत हैं| वे इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि मोक्ष प्राप्त करने पर हमारे सभी भोतिक बन्धन विनष्ट हो जाते हैं| संसार की ऐसी तीन वस्तुये हैं जिनके साथ यदि आत्मा का साहचर्य हो जाता हैं तो हम बंधन में पड़ जाते हैं| [१] शरीर. [२] इन्द्रियाँ और [३] भोग [विषय]| इनसे मुक्ति पाना ही मोक्ष कहा गया हैं| शंकराचार्य जी के अनुसार ‘कर्तव्यत्व एवं भोगत्व’ की भावना संसारिकता का बन्धन हैं| ज्योही कर्तव्यत्व एवं भोगत्व की भावना का परित्याग कर हम ग्यान्तव प्राप्त कर लेते हैं, हमें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती हैं|
अध्यास-भाष्य का महत्व...[अध्यास=भ्रम].
हम पहिले ही देख चुके हैं कि शंकराचार्यजी, ब्रह्मसूत्र भाष्य प्रारंभ करने के पूर्व अध्यास-भाष्य प्रस्तुत करते हैं| इसका क्या कारण हैं? हम जानते हैं कि श्रुतियां बार-बार घोषित करती हैं कि एक मात्र ग्यान से ही बंधन-मुक्ति मिल सकती हैं| परमपद की प्राप्ति के लिए विद्या के सिवा अन्य मार्ग नहीं हैं| पुन: विद्वान किसी से भयभीत नहीं होता| शंकराचार्यजी का भी यही मत हैं,- अविद्या और उसके कार्य विद्या द्वारा नष्ट किए जा सकते हैं| स्मृति और तर्क भी इसका अनुमोदन करती हैं| उपर्युक्त से स्पस्ट हैं कि ग्यान के द्वारा ही हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती हैं| शंकराचार्यजी का यह निश्चित मत हैं कि जो वस्तुत: सत हैं, उसका कभी अभाव नहीं हो सकता और जो असत हैं, उसका कभी भाव नहीं हो सकता| यदि बन्धन सत हैं तो उसका कभी विनाश नहीं किया जा सकता तथा यदि ग्यान के द्वारा उसका विनाश किया जा सकता हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह सत नहीं हैं| जो मिथ्या वस्तु हैं, उसी का ग्यान के द्वारा निरसन किया जा सकता हैं| वास्तिवक वस्तु का निरसन नही किया जा सकता| श्रुति भी कहती हैं कि “ब्रह्मविद्या भी पारमार्थिक वस्तु का निवारण नहीं कर सकती|” ब्रह्मविद्या के द्वारा केवल संवृति का ही निवारण किया जा सकता हैं| अध्यास भाष्य में शंकराचार्यजी ने अध्यास या भ्रम के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया हैं| उनका विश्वाश हैं कि जब तक हम भ्रम के स्वरूप को अच्छी प्रकार से नहीं समझ लेते तब तक तत्व के स्वरूप को अच्छी प्रकार आत्मसात नहीं कर सकते|
यहाँ एक दूसरी बात की ओर भी शंकराचार्यजी ने निर्देश किया हैं और वह यह हैं कि दुःख [तप्यत्व] और दुःख का कारण [तापक] दोनों न तो स्वाभाविक हैं और न नित्य ही, क्योकि उन्हें स्वाभाविक एवं नित्य मानने पर मोक्ष असंभव हो जायेगा| यहीं बात विवरण प्रमेय संग्रह भी कहता हैं| यदि बन्धन को सत्य मान लिया जाय तो ब्रह्म का ग्यान प्राप्त कर लेने के बाद भी उसका निरसन नहीं किया जा सकता| इन सारे कथनों से स्पस्ट हैं कि बंधन मिथ्या और असत हैं| आगे चलकर विवरण प्रमेय संग्रह एक अन्य बात की ओर भी संकेत करता हैं कि बन्धन सत हैं अथवा असत हैं, इस विषय में श्रुति बिलकुल तटस्थ हैं| विभिन्न श्रुतियो को तर्क संगत बनाने के लिए ही हम कल्पना कर लेते हैं कि बंधन अविद्या हैं|
मायावाद का मूलस्त्रोत्र.
विवरण प्रमेय संग्रह के लेखक ने दो बातो की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया हैं-प्रथम-यह हैं कि बंधन सत नहीं माना जा सकता, द्वितीय बात यह हैं कि बंधन के सत या असत होने में श्रुति तटस्थ हैं| इससे माया के मूल स्त्रोत्र को समझने में हमें आसानी हो सकती हैं| वेदांत दर्शन में इस विषय पर पर्याप्त विवाद हैं कि मायावाद शंकराचार्यजी का कोई मौलिक सिध्दांत हैं| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि शंकराचार्यजी ही वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी प्रतिभा से एक तर्क सम्मत सिध्दांत के रूप में मायावाद को स्थापित किया| वेदों, उपनिषदों एवं गीता में यत्र-तत्र ‘माया’ शब्द का उपयोग मिलता हैं, पर वहाँ इसका प्रयोग एक रह्स्यात्मिका शक्ति के रूप में किया गया हैं| ‘माया’ शब्द के इन विम्भिन्न प्रयोगों को एक सूत्र में ग्रंथित कर उन्हें एक प्रमाणिक सिध्दांत रूप में स्थापित करने का श्रेय शंकराचार्यजी को ही हैं| निम्न उदाहरणों से स्पस्ट हो जायेगा कि मायावाद का बीज वैदिक साहित्य में ढूंढा जा सकता हैं:-
१.एक ही इंद्र अपनी मायाशक्ति के द्वारा अनेक रूपों में प्रतीत होता हैं|
२.ईश्वर [मायी] माया के द्वारा ही श्रष्टि को उत्पन्न करता हैं तथा माया के द्वारा ही जीव बंधन से ग्रस्त हैं|
३.माया को ‘प्रकृति’ समझों तथा माया के अधिष्टाता ब्रह्म को ‘मायावी’ समझों|
४.ईश्वर का ध्यान करने से माया की निर्वृति होती हैं|
५.वहीं ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकते हैं, जो वंचना, अनृत और माया से मुक्त हों|
६.‘मैं अजन्मा और अविनाशी रूप होते हुये भी तथा समस्त प्राणियो का ईश्वर होते हुये भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रगट होता हूँ|’
७.यह अलौकिक त्रिगुणात्मक मेरी माया बड़ी दुस्तर हैं| जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं, इस माया का उल्लघन कर जाते हैं|
८.माया विश्व की श्रृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली शक्ति हैं|
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पस्ट हैं कि मायावाद के बीज, वेद, उपनिषद, गीता और भागवत, सब जगह मिलते हैं पर माया, अविद्या या अध्यास के निहितार्थो की व्याख्या जिस स्पस्ट ढंग से शंकराचार्यजी ने प्रस्तुत की हैं, उसे मौलिक ही कहा जायेगा| मायावाद के बीज, वेदों में भले ही विद्यमान हो पर एक बृक्ष के रूप में उसका आरोपण शंकराचार्यजी की ही देन हैं| मायावाद के द्वारा उन्होंने उपनिषदों की विभिन्न उक्तियों के बीच समन्वय स्थापित किया हैं|
क्रमश:..
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