महाविद्या-भाग-3
तीनों लोकों में सर्वाधिक सुन्दर तथा मनोरम, एक सोलह वर्षीय चिर-यौवन युवती, मह- त्रिपुरसुंदरी नामक तृतीय महाविद्या।
सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली महाविद्या, श्रीकुल की अधिष्ठात्री! महा त्रिपुरसुंदरी।
महाविद्या महा-त्रिपुरसुंदरी स्वयं आद्या या आदि शक्ति हैं। इनके षोडशी, राज-राजेश्वरी, बाला, ललिता, मिनाक्षी, कामेश्वरी अन्य नाम भी विख्यात हैं। अपने नाम के अनुरूप देवी तीनों लोकों में सर्वाधिक सुंदरी हैं तथा चिर यौवन युक्त षोढसी युवती हैं, इनका स्वरूप तीनों लोकों को मोहित करने वाला हैं। देवी सोलह कलाओं से पूर्ण हैं और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। श्रीरूप में धन, संपत्ति, समृद्धि दात्री श्रीशक्ति के नाम से विख्यात हैं, इन्हीं महाविद्या की आराधना कर कमला नाम से विख्यात दसवी महाविद्या धन की अधिष्ठात्री हुई तथा श्री की उपाधि प्राप्त की। श्रीयंत्र जो यंत्र शिरोमणि हैं, साक्षात् देवी का स्वरूप हैं; देवी की आराधना-पूजा श्री यंत्र में की जाती हैं। कामाख्या पीठ महाविद्या त्रिपुरसुन्दरी से ही सम्बंधित तंत्र पीठ हैं, जहाँ सती की योनि पतित हुई थीं; योनि के रूप में यहाँ देवी की पूजा-आराधना होती हैं।
देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध पारलौकिक शक्तियों से हैं, समस्त प्रकार की दिव्य, अलौकिक तंत्र तथा मंत्र शक्तिओं (इंद्रजाल) की देवी अधिष्ठात्री हैं। तंत्र मैं उल्लेखित मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन इत्यादि (जादुई शक्ति), कर्म इनकी कृपा के बिना पूर्ण नहीं होते हैं। अपने भक्तों को हर प्रकार की शक्ति देने में समर्थ हैं। राज-राजेश्वरी रूप में देवी ही तीनों लोकों का शासन करने वाली हैं।
देवी शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल-आसन पर बैठी हुई हैं। चार भुजाएं हैं तथा भुजाओं में पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करती हैं। देवी के आसन को ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा यमराज अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं; देवी तीन नेत्रों से युक्त एवं मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं। सहस्रों उगते सूर्य के समान कांति युक्त देवी का शारीरिक वर्ण हैं।
श्री विद्या, महा त्रिपुरसुंदरी की प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।
पौराणिक कथा के अनुसार सती वियोग के पश्चात भगवान शिव सर्वदा ध्यान मग्न रहते थे। उन्होंने अपने संपूर्ण कर्म का परित्याग कर दिया था, जिसके कारण तीनों लोकों के सञ्चालन में बाधा उत्पन्न होने लगी। उधर तारकासुर ब्रह्माजी से वर प्राप्त कर चूका था कि "उसकी मृत्यु शिव के पुत्र द्वारा ही होगी।" वह एक प्रकार से अमर हो गया था, चूंकि सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में देह त्याग कर दिया था जिस कारण शिव जी संसार से विरक्त हो घोर ध्यान में चले गए थे। तारकासुर ने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर, समस्त देवताओं को प्रताड़ित कर स्वर्ग से निष्कासित कर दिया था। देवताओ के भोगो का उपभोक्ता बन चूका था।
सती हिमालय राज के यहाँ पुनर्जन्म ले चुकी थी तथा भगवान शिव को पति रूप में पाने हेतु वे साधनारत थी।
भगवान शिव को समाधि से उठाने के लिए देवताओ ने कामदेव का सहारा लिया। कामदेव सदल वहन पहुचे जहाँ महादेव शिव समाधिस्थ थे। कामदेव ने कुसुम सर नामक मोहिनी वाण से भगवान शिव पर प्रहार किया, परिणामस्वरूप शिव जी का ध्यान भंग हो गया। देखते ही देखते भगवान शिव के तीसरे नेत्र से उत्पन्न क्रोध अग्नि ने कामदेव को जला कर भस्म कर दिया। कामदेव की पत्नी रति द्वारा अत्यंत दारुण विलाप करने पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनः द्वापर युग में भगवान कृष्ण के पुत्र रूप में जन्म धारण करने का वरदान दिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
भगवान शिव के एक गण ने कामदेव के भस्म से मूर्ति निर्मित की। उस निर्मित मूर्ति से एक पुरुष का प्राकट्य हुआ। उस प्राकट्य पुरुष ने भगवान शिव की अति उत्तम स्तुति की, स्तुति से प्रसन्न हो भगवान शिव ने भांड (अच्छा)! भांड! कहा। तदनंतर, भगवान शिव द्वारा उस पुरुष का नाम भांड रखा गया तथा उसे ६० हजार वर्षों का राज दे दिया। शिव के क्रोध से दग्ध होने के कारण भांड, तमो गुण सम्पन्न था। वह धीरे-धीरे तीनों लोकों पर भयंकर उत्पात मचाने लगा। देवराज इंद्र के राज्य के समान ही, भाण्डासुर ने स्वर्ग जैसे राज्य का निर्माण किया तथा राज करने लगा। तदनंतर, भाण्डासुर ने स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर, देवराज इन्द्र तथा स्वर्ग राज्य को चारों ओर से घेर लिया। भयभीत इंद्र, नारद मुनि के शरण में गए तथा इस समस्या के निवारण हेतु उपाय पूछा। देवर्षि नारद ने, आद्या शक्ति की यथा विधि आराधना करने का परामर्श दिया। देवराज इंद्र ने देवर्षि नारद द्वारा बताये हुए साधना पथ का अनुसरण कर देवी की आराधना की और त्रिपुरसुंदरी स्वरूप में प्रकट हो देवी ने भाण्डासुर वध कर समस्त देवताओं को भय मुक्त किया।
कहा जाता हैं, कि भण्डासुर तथा देवी त्रिपुरसुंदरी ने अपने चार-चार अवतारी स्वरूपों को युद्ध करने हेतु अवतरित किया। भाण्डासुर ने हिरण्यकश्यप दैत्य का अवतार धारण किया और देवी-ललिता ने प्रह्लाद स्वरूप में प्रकट हो, हिरण्यकश्यप का अंत किया। भाण्डासुर ने महिषासुर का अवतार धारण किया तब देवी त्रिपुरा ने दुर्गा अवतार धारण कर महिषासुर का वध किया। भाण्डासुर द्वारा रावण का अवतार धारण करने पर देवी के नखों से अवतरित राम ने रावण का संहार किया।
देवी श्रीविद्या त्रिपुरसुंदरी से सम्बंधित अन्य तथ्य।
देवी काली के समान ही देवी त्रिपुरसुंदरी चेतना से सम्बंधित हैं। देवी त्रिपुरा, ब्रह्मा, शिव, रुद्र तथा विष्णु के शव पर आरूढ़ हैं, तात्पर्य, चेतना रहित देवताओं के देह पर देवी चेतना रूप से विराजमान हैं और ब्रह्मा, शिव, विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती द्वारा पूजिता हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, देवी कमल के आसन पर भी विराजमान हैं, जो अचेत शिव के नाभि से निकला हैं शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा यम, चेतना रहित शिव सहित देवी को अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं।
यंत्रों में श्रेष्ठ श्रीयन्त्र साक्षात् देवी त्रिपुरा का ही स्वरूप हैं। देवी त्रिपुरा आदि शक्ति हैं, कश्मीर, दक्षिण भारत तथा बंगाल में आदि काल से ही, श्री संप्रदाय विद्यमान हैं जो देवी आराधक हैं। विशेषकर दक्षिण भारत में देवी श्रीविद्या नाम से विख्यात हैं। मदुरै में विद्यमान मीनाक्षी मंदिर, कांचीपुरम में विद्यमान कामाक्षी मंदिर, दक्षिण भारत में हैं तथा यहाँ देवी श्रीविद्या के रूप में पूजिता हैं। वाराणसी में विद्यमान राजराजेश्वरी मंदिर, देवी श्रीविद्या से ही सम्बंधित हैं।
देवी की उपासना श्रीचक्र में होती है, श्रीचक्र से सम्बंधित मुख्य शक्ति देवी त्रिपुरसुंदरी ही हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त और परा विद्याओं से हैं।
देवी त्रिपुरसुंदरी श्रीकुल की अधिष्ठात्री देवी हैं।
देवी में सभी वेदांतो का तात्पर्य-अर्थ समाहित हैं तथा चराचर जगत के समस्त कार्य इन्हीं देवी में प्रतिष्ठित हैं। देवी में न शिव की प्रधानता हैं और न ही शक्ति की, अपितु शिव तथा शक्ति ('अर्धनारीश्वर') दोनों की समानता हैं। समस्त तत्वों के रूप में विद्यमान होते हुए भी, देवी सबसे अतीत हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘तात्वातीत’ कहा जाता हैं, देवी जगत के प्रत्येक तत्व में व्याप्त भी हैं और पृथक भी हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘विश्वोत्तीर्ण’ भी कहा जाता हैं। देवी ही परा ( जिसे हम देख नहीं सकते ) विद्या भी कही गई हैं, ये दृश्यमान प्रपंच इनका केवल उन्मेष मात्र हैं , देवी चर तथा अचर दोनों तत्वों के निर्माण करने में समर्थ हैं तथा निर्गुण तथा सगुण दोनों रूप में अवस्थित हैं। ऐसे ही परा शक्ति, नाम रहित होते हुए भी अपने साधकों पर कृपा कर, सगुण रूप धारण करती हैं।
भंडासुर की संहारिका, त्रिपुरसुंदरी, सागर के मध्य में स्थित मणिद्वीप का निर्माण कर चित्कला के रूप में विद्यमान हैं। तत्वानुसार अपने त्रिविध रूप को व्यक्त करती हैं, १. आत्म-तत्व, २. विद्या-तत्व, ३. शिव-तत्व, इन्हीं तत्व-त्रय के कारण ही देवी १. शाम्भवी २. श्यामा तथा ३. विद्या के रूप में त्रिविधता प्राप्त करती हैं। इन तीनों शक्तिओं के भैरव क्रमशः परमशिव, सदाशिव तथा रुद्र हैं।
देवी त्रिपुरसुन्दरी के पूर्व भाग में श्यामा और उत्तर भाग में शाम्भवी विराजित हैं तथा इन्हीं तीन विद्याओं के द्वारा अन्य अनेक विद्याओं का प्राकट्य या प्रादुर्भाव हुआ है।
संक्षेप में देवी श्री विद्या त्रिपुरसुंदरी से सम्बंधित मुख्य तथ्य।
मुख्य नाम : महा त्रिपुरसुंदरी।
अन्य नाम : श्री विद्या, त्रिपुरा, श्री सुंदरी, राजराजेश्वरी, ललित, षोडशी, कामेश्वरी, मीनाक्षी।
भैरव : कामेश्वर।
तिथि : मार्गशीर्ष पूर्णिमा।
भगवान के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान परशुराम।
कुल : श्रीकुल ( इन्हीं के नाम से संबंधित )।
दिशा : नैऋत्य कोण।
स्वभाव : सौम्य।
सम्बंधित तीर्थ स्थान या मंदिर : कामाख्या मंदिर, ५१ शक्ति पीठों में सर्वश्रेष्ठ, योनि पीठ गुवहाटी, आसाम।
कार्य : सम्पूर्ण या सभी प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने वाली।
शारीरिक वर्ण : उगते हुए सूर्य के समान।
क्रमश:
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