वेदांत....आदि-शंकराचार्य -भाग-५
मायावाद की स्थापना.
आदि शन्कराचार्य जी, ब्रह्म को ही एक मात्र तत्व मानते हैं| यदि ब्रह्म ही एक मात्र तत्व हैं, तो माया के लिए किस प्रकार स्थान हो सकता हैं? क्या माया का अस्तित्व स्वीकार करने से शंकराचार्य जी का दर्शन द्वेतवादी नहीं हो जाता? इसका समाधान करना आवश्यक हैं| माया का अस्तित्व स्वीकार करने के पीछे तर्क क्या हैं|
कल्पना कीजिये कि “क” और “ख” दो वस्तुये हैं जिनके बीच हम संबंध स्थापित करना चाहते हैं| यहाँ तीन प्रकार के विकल्प उत्पन्न होते हैं| या तो दोनों वस्तुये एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, या एक-दूसरे पर आश्रित हैं या उनमें से एक स्वत्रंत हैं तथा दूसरी पहली वस्तु पर पूर्ण रूप से आश्रित हैं|
१. यदि दोनों वस्तुएं क और ख, एक दूसरे से पूर्ण स्वतंत्र हैं तो उनके बीच किसी प्रकार के सम्बन्ध की कल्पना नहीं की जा सकती|
२. यदि क और ख एक दूसरे पर आश्रित हैं, तो क और ख के बीच भेद करना हमारे लिए कठिन हो जायेगा| ऐसी स्तिथि में हम उनके बीच किसी सम्बन्ध की कल्पना नहीं कर सकते|
३. तीसरी अवस्थता में क तो बिलकुल स्वतंत्र हैं पर ख, के उपर पूर्ण रूप से आश्रित हैं| यही एक अवस्था हैं जिससे क और ख के बीच किसी सम्बन्ध की कल्पना की जा सकती हैं| आदि शंकराचार्य जी के दर्शन में यहीं क=ब्रह्म हैं तथा ख=माया हैं| माया के, ब्रह्म पर पूर्ण रूप से आश्रित होने के कारण ब्रह्म की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का व्याघात नहीं होता| यहीं ब्रह्म और माया के अस्तित्व में विश्वाश करने का तर्क हैं|
यदि ब्रह्म पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं तथा माया उसके उपर पूर्ण रूप से आश्रित हैं तो उनके बीच कैसा सम्बन्ध हो सकता हैं? इस प्रश्न के उत्तर में शंकराचार्य जी कहते हैं की माया, ईश्वर की बीज शक्ति हैं जिसके द्वारा वह जगत की श्रृष्टि करते हैं| परमेश्वर की यह बीज शक्ति अविद्यात्म्क अव्यक्त शब्द से कहीं गई हैं| इसे महासुषुप्ति कह कहते हैं क्योकि संसारी जीव अपने यथार्त स्वरूप को भूलकर इसकी प्रगाढ़ निद्रा में सोये रहते हैं| यहाँ ध्यान में रखने की बात यह हैं कि यद्दपि जीव, ब्रह्म की माया से ग्रस्त हैं पर ब्रह्म या ईश्वर स्वयं अपनी माया से प्रभावित नहीं होता| जिस प्रकार कोई जादूगर अपनी माया से दर्शकों को तो प्रभावित कर लेता हैं, पर वह स्वयं अपनी माया से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार, ईश्वर अपनी माया से जीवों को तो प्रभावित कर देता हैं पर स्वयं, अपनी माया से तनिक भी प्रभावित नहीं होता|
माया और अविद्या.
१ .शंकराचार्यजी के दर्शन में माया और अविद्या समानार्थक शब्द हैं, पर बाद के वेदान्तियो ने इनके बीच भेद करने की चेष्टा की हैं| शंकराचार्यजी ने माया और अविद्या को समान मानकर उसकी दो शक्तिओ का वर्णन किया हैं-प्रथम आवरण शक्ति जिसके द्वारा माया ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को आच्छादित कर देती हैं, द्वितीय- विक्षेप शक्ति- जिसके द्वारा माया अद्वेत, ब्रह्म के स्थान पर नाना रूपात्मक जगत को उत्पन्न करती हैं| जहाँ विक्षेप शक्ति कार्य करती हैं, वहाँ उसके पूर्व आवरण शक्ति का कार्य आवश्यक हैं क्योकि बिना आवरण के विक्षेप संभव नहीं हैं| शंकराचार्यजी के बाद के वेदान्ति माया को ब्रह्म की भावात्मक (Positive) शक्ति मानते हैं तथा अविद्या को अभावात्मक (Negative) शक्ति के रूप में मानते हैं|
२. माया और अविद्या में दूसरा अंतर यह हैं कि माया ईश्वर की उपाधि (Condition) हैं, किन्तु अविद्या जीव की उपाधि हैं| मायोपाधिक ईश्वर हैं तथा अविद्योपाधिक जीव हैं|
३. दोनों में तीसरा अंतर यह हैं कि माया में सत्वगुण की प्रधानता हैं, पर अविद्या में तमोगुण की प्रधानता हैं|
ध्यान रखने की बात यह हैं कि माया और अविद्या के सम्बन्ध में दोनों सम्प्रदायों में कोई भेद नहीं हैं| चाहे माया और अविद्या को एक मानकर उसकी दो शक्तियों-आवरण और विक्षेप को माने अथवा माया को भावात्मक और अविद्या को अभावात्मक माने, अंतत: दोनों में कोई अंतर नहीं पड़ता|
शंकराचार्यजी के समय माया और अविद्या भले ही समानार्थक शब्द रहें हो, पर शंकरोत्तर काल में माया और अविद्या में अवश्य भेद किया गया था| महादेवानंद सरस्वती ने अग्यान को भाव रूप माना जिसके भीतर सत, रज और तम तीनों गुण पाए जाते हैं| यह अनिवर्चनीय हैं| उन्होंने अग्यान को दो भागों में विभाजित किया हैं-प्रथम माया और द्वितीय अविद्या| माया विशुद्ध तत्व रूप हैं, जो ईश्वर की उपाधि हैं| अग्यान के भीतर ग्यान शक्ति और क्रिया शक्ति दोनों पाई जाती हैं| रजस और तमस से अप्रभावित सत्व ग्यान शक्ति को उत्पन्न करता हैं| यह क्रिया शक्ति दो प्रकार की होती हैं- प्रथम आवरण शक्ति और द्वितीय विक्षेप शक्ति| सत्व और रजस से अप्रभावित तमस, आवरण शक्ति को उत्पन्न करता हैं| माया के भीतर विक्षेप शक्ति की प्रधानता होती हैं| एक ही अग्यान, विक्षेप शक्ति की प्रधानता के कारण माया तथा आवरण शक्ति के कारण अविद्या कहा जाता हैं|
श्री सदानंद जी का विचार श्री महादेवानंद सरस्वती के विचार से मिलता जुलता हैं| वे अग्यान को दो भागो में विभाजित करते हैं- समष्टि अग्यान ओर व्यष्टि अग्यान| समष्टि अग्यान जिसके भीतर विशुद्ध सत्व की प्रधानता हैं-वह ईश्वर की उपाधि हैं-इसे माया कहते हैं| व्यष्टि अग्यान के भीतर अशुध्द सत्व की प्रधानता हैं, वह जीव की उपाधि हैं-इसे अविद्या कहते हैं|
प्रकाशात्मन के पंचपादिका विवरण में लिखा हैं कि माया के भीतर विक्षेप शक्ति की प्रधानता हैं, जो दृश्य-प्रपंच को उत्पन्न करती हैं| इसके विपरीत अविद्या के भीतर आवरण शक्ति की प्रधानता हैं, जो ब्रह्म या सत्व के स्वरूप का आवरण करती हैं|
वाचस्पति मिश्र ने भामती में अग्यान के स्थान पर ‘अविद्या’ शब्द का प्रयोग किया हैं| वे,विद्या को दो भागों में विभाजित करते हैं, प्रथम-मूला अविद्या एवं द्वितीय तूला-अविद्या| मूला-अविद्या, जगत का कारण हैं और ईश्वर की उपाधि हैं| इसके विपरीत तूला-अविद्या, ब्रह्म के स्वरूप का आवरण करती हैं और वह जीव की उपाधि हैं| अविद्या का आश्रय जीव हैं, पर विषय ब्रह्म हैं| माया का आश्रय और विषय दोनों ब्रह्म हैं|
माया की प्रमुख विशेषताएं.
आदि शंकराचार्य जी ने माया की निम्न प्रमुख विशेषताओ का वर्णन किया हैं:-
१. माया ईश्वर की शक्ति हैं जिसके माध्यम से ईश्वर अनन्त रूपात्मक जगत की श्रृष्टि करता हैं|
२. ब्रह्म एवं माया के बीच तादात्म्य सम्बन्ध पाया जाता हैं| इसका तात्पर्य यह हैं कि माया ब्रह्म के उपर पूर्ण रूप से आश्रित हैं, पर ब्रह्म माया से पूर्ण स्वतंत्र हैं| इसे एक पक्षीय आश्रित्व (one sided dependence) की संज्ञा दी जा सकती हैं|
3. माया अनादि हैं| माया के अनादि कहने का तात्पर्य यह हैं कि माया ने कब से जीवों को ग्रस्त किया हैं, इसके विषय में हम कुछ नहीं कह सकते| जिस प्रकार सुषुप्तावस्था में हम यह नहीं कह सकते कि हम कब से सो रहे हैं, उसी प्रकार जीव कब से माया के द्वारा आक्रांत हैं, इसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता| माया अनादि होते हुये भी शांत हैं क्योकि ग्यान द्वारा इसका अंत किया जा सकता हैं|
४. ब्रह्म ही माया का आश्रय हैं और विषय, दोनों हैं- माया का आश्रय होने पर भी ब्रह्म इससे कुछ भी –प्रभावित नहीं होता|
५. माया, भाव-स्वरूप हैं| पर सत नहीं हैं क्योकि ब्रह्म ही एकमात्र सत हैं| माया के भावरूप कहने का तात्पर्य यह हैं कि वह वन्ध्या-पुत्र के समान पूर्ण अभाव रूप नहीं हैं|
६. माया की दो शक्तियाँ हैं-प्रथम आवरण शक्ति एवं द्वितीय विक्षेप शक्ति| अपनी आवरण शक्ति के द्वारा माया तत्व के वास्तिविक स्वरूप का आच्छादन करती हैं तथा विक्षेप शक्ति से वह अद्वय ब्रह्म के स्थान पर नाना रूपात्मक जगत को प्रक्षेपित करती हैं| यह अख्यातिरूप ही नहीं वरन विपरीत ख्यातिरूप हैं|
७. सांख्य की प्रकृति के समान माया जड रूप हैं, यद्दपि प्रकृति के समान ब्रह्म से स्वंतत्र नहीं हैं|
८. माया, सदसदनिर्वचनिया हैं| पर यह सत नहीं हैं| क्योकि इसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैं| यह असत भी नहीं हैं क्योकि यह जगत को प्रेक्षिपत करती हैं| चूँकि यह न तो सत है, और न ही असत ही हैं, इसलिए इसे सदसदनिर्वचनिया कहा जाता हैं|
९ माया मिथ्या हैं क्योकि यह विज्ञान निरस्य हैं| ज्यों ही हमें ब्रह्म या अधिष्टान का ग्यान प्राप्त हो जाता हैं, माया अदृश्य हो जाती हैं|
१०. माया अध्यास रूप हैं| इसके द्वारा हमें एक वस्तु में दूसरी वस्तु का आभास होता हैं|
शंकराचार्य जी के अतिरिक्त अन्य वेदान्तियो ने भी माया के स्वरूप पर प्रकाश डाला हैं| विधारण्य जी ने माया को त्रिविध रूप में प्रतिपादित किया हैं|
१, श्रुती प्रमाण से माया तुच्छ हैं, अर्थात वह अत्यंत असत हैं| जिस प्रकार आकाश-कुसुम पूर्णतया असत होता हैं, उसी प्रकार माया भी पूर्ण असत हैं|
२. युक्ति के आधार पर माया अनिवर्चनीय हैं अर्थात वह सद-सद-विलक्षण हैं|
३. प्रत्यक्ष प्रमाण से माया वास्तविक हैं क्योकि रूपात्मक जगत का प्रत्यक्ष कराती हैं|
मण्डन मिश्र जी के अनुसार माया मिथ्याभास हैं क्योकि यह न तो ब्रह्म का स्वभाव हैं और न ब्रह्म से पृथक ही हैं| माया का आश्रय ब्रह्म नहीं हो सकता क्योकि ब्रह्म विशुद्ध चेतन्य हैं, जीव भी माया या अविधा का आश्रय नहीं ही सकता क्योकि जीव स्वयं माया का परिणाम हैं| अत: अविधा का आश्रय न ब्रह्म हैं और न जीव हैं| पर इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं क्योकि अविधा अनिवर्चनीय हैं| अनूप-पद्दमान होने के कारण ही इसे माया कहा जाता हैं| यहाँ दूसरी बात की ओर भी मिश्र जी ने संकेत किया हैं| उनके अनुसार यदि जीव को अविधा का आश्रय माना जाय तो इसमें कोई हानि नहीं हैं क्योकि अविधा जीव पर आश्रित हैं एवं जीव अविधा पर आश्रित हैं| बीज और बृक्ष के चक्र के समान अविधा और जीव का चक्र भी अनादि काल से चला आ रहा हैं|
वाचस्पति मिश्र के अनुसार जीव ही अविधा का आश्रय हैं| अविधा दो प्रकार की हैं- प्रथम मनोवैज्ञानिक अविधा जो पूर्वा-पूर्व भ्रम-संस्कार रूप हैं तथा द्वितीय भौतिक अविधा जो जीव और जगत का उपादान कारण हैं| इस समस्या के समाधान के लिए कि पहले जीव आता हैं कि अविधा? वाचस्पति मिश्र जी कहते हैं कि मनोवैज्ञानिक भ्रम का आश्रय जीव हैं और यह जीव स्वयं एक पूर्ण मिथ्या भ्रम के कारण उत्पन्न हुआ हैं तथा यह मिथ्या भ्रम किसी दूसरे मिथ्या भ्रम के कारण तथा यह दूसरा मिथ्या भ्रम किसी पूर्व तृतीय मिथ्या भ्रम के कारण उत्पन्न हुआ हैं और यह कर्म अनन्त तक चलता रहेगा|
क्रमश:
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