वेदांत....आदि-शंकराचार्य-भाग-९




वेदांत....आदि-शंकराचार्य-भाग-९


भेद उपासना.

भेद उपासना में तीन पदार्थ अनादि माने जाते है-१-माया [प्रकृति], २- जीव और ३-मायापति परमेश्वर| इनका वर्णन उपनिषदों में कई जगह आया हैं| प्रकृति जड हैं और उसका कार्यरूप दृश्यवर्ग जड होते हुये भी क्षणिक, नाशवान और परिणामी भी हैं| जीवात्मा और परमेश्वर दोनों ही नित्य, चेतन और आनन्दस्वरूप हैं, किन्तु जीवात्मा अल्पज्ञ हैं, जीव असमर्थ हैं और परमात्मा सर्व समर्थ हैं; जीव अंश हैं और परमेश्वर अंशी हैं; जीव भोक्ता हैं और परमेश्वर साक्षी हैं एवं जीव उपासक हैं और परमेश्वर उपास्य हैं| वे परमेश्वर समय समय पर प्रकट होकर जीव के कल्याण के लिए उपदेश भी देते हैं|

इस विषय पर केन उपनिषद में एक इतिहास उल्लिखित हैं | एक समय परमेश्वर के प्रताप से स्वर्ग के देवताओ ने असुरों पर विजय प्राप्त की पर देवता अग्यान से अभिमानवश यह मानने लगे कि उनके ही प्रभाव से यह विजय प्राप्त हुई हैं| देवताओ के इस अज्ञानपूर्ण अभिमान को दूर करने के लिए स्वयं परमात्मा उन देवताओ के निकट सगुण-साकार,यक्षस्वरूप में रूप में प्रकट हुये| यक्ष का परिचय जानने के लिए देवताओ ने पहिले अग्नि को भेजा| यक्ष ने अग्नि से पुछा-तुम कौन हों और तुम्हारी क्या सामर्थ्य हैं? उन्होंने उत्तर दिया-“मैं जातवेदा अग्नि हूँ और चाहुँ तो सारे ब्रह्माण्ड को जला सकता हूँ| यक्ष ने एक तिनका रखा और उसे जलाने के लिए कहा; किन्तु अग्नि उसे जला नहीं सके और लौटकर देवताओ से बोले- मैं यह नहीं जान सका कि यह यक्ष कौन हैं? तदन्तर वायुदेव गये| उनसे भी यक्ष ने वहीं प्रश्न किया| वायुदेव ने उत्तर दिया कि “ मैं मातरिक्षा वायु हूँ और चाहुँ तो सारे ब्रह्माण्ड को उड़ा सकता हूँ| तब उनके सामने भी तिनका रखकर उड़ाने को कहा गया| वे भी असमर्थ होकर वापिस हो गये और देवताओ से कहा कि “ मैं नहीं जान सका कि यक्ष कौन हैं| तत्पश्चात स्वयं इंद्र गये, तब यक्ष अन्तर्धान हो गये| इंद्र ने उसी समय आकाश में ‘हेमवती उमादेवी’ को देखकर यक्ष का परिचय पुछा| उमादेवी ने बताया कि “वह ब्रह्म था और उस ब्रह्म की ही इस विजय को तुम अपनी विजय मानने लगे थे| इस कथा से यह सिद्ध हो जाता हैं कि प्रणिओं में जो कुछ भी बल, बुध्दी, तेज, एवं विभूति हैं, सब परमेश्वर से ही हैं| भेद उपासना का यही आधार हैं| यह सगुण उपासना हैं| इसे वैडाली [बिल्ली] बृत्ति भी कहते हैं|

उपासक अपने उपास्य देव की जिस भाव से उपासना करता हैं, उसके उद्देश्य के अनुसार ही उसके कार्य सिद्ध हो जाते हैं| कठोपनिषद में सगुण-निर्गुण रूप ओंकार (ॐ) की उपासना का भेद रूप से वर्णन करते हुये यमराज नचिकेता से कहते हैं कि “ यह अक्षर (ॐ) ही ब्रह्म हैं और अक्षर ही ब्रह्म होते हैं| इसी अक्षर को जानकर जो जिसको चाहता हैं, उसको वही मिल जाता हैं| यही उत्तम आवलम्बन हैं, यही सबका अंतिम आश्रय हैं| इस आवलंबन को जानकर साधक ब्रह्मलोक में महिमामंडित होता हैं|

मनुष्य को इस दुःख स्वरूप संसार-सागर से सदा के लिए पार होकर परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए ही उनकी उपासना करनी चाहिये, सांसारिक पदार्थों के लिए नहीं| वे परमेश्वर इस शरीर के अंदर सबके हृदय में निराकार रूप से सदा-सर्वदा विराजमान हैं, परन्तु उनको न जानने के कारण ही लोग दुखित होते हैं| जो उन परमेश्वर की उपासना करता हैं, वह उन्हें जान लेता हैं, वह सम्पूर्ण शोक समूहों से निवृत होकर परमेश्वर को प्राप्त कर लेता हैं| मुण्डकोपनिषद् में बताया गया हैं कि “एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा-भाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) एक ही बृक्ष (शरीर) पर आश्रय लेकर रहते हैं| उन दोनों में से एक तो उस बृक्ष के कर्मरूप फल का स्वाद ले-लेकर उपभोग करता हैं किन्तु दूसरा उपभोग नहीं करता, वह केवल साक्षी भाव से देखता रहता हैं| इस शरीर-रूपी, समान बृक्ष पर रहने वाला जीवात्मा शरीर की गहरी आसक्ति में डूबा हुआ हैं और असमर्थता रूप, दीनता का अनुभव करता हुआ मोहित होकर शोक करता रहता हैं; किन्तु (वह जीवात्मा) जब कभी भगवान् की अहेतुकी दया से भक्तों द्वारा नित्यसेवित अपने से भिन्न परमेश्वर को और उनकी महिमा को प्रत्यक्ष कर लेता हैं तब सर्वथा शोक रहित हो जाता हैं एवं उस समय, पाप-पुण्य, दोनों से रहित होकर, निर्मल हुआ, वह ज्ञानी भक्त सर्वोत्तम समता को प्राप्त कर लेता हैं|

दुःख से कटते हैं पाप.

हम सबके सब इस संसार में पराधीन होकर आये हैं और यहाँ आकर अपने किए हुये कर्मों के फल भोगते हैं| भोग दो तरह के होते हैं-सुख और दुःख| हमें सुख और दुःख दोनों ही भोगने पड़ते हैं| दुःख के भोगने में एक विलक्ष्ण बात हैं| सुख के भोग में पुण्यों का नाश होता हैं परन्तु दुःख के भोग में पापों का नाश होता हैं और पाप नष्ट होने से मनुष्य पवित्र बनता हैं| सुख भोगने से पुराने पुण्य नष्ट होते हैं और आदते ख़राब होती हैं जिससे आगे फिर सुख भोगने की इच्छा होती हैं| सुख भोगने की इच्छा ही पापो की जड हैं| अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पुछा कि मनुष्य पाप नहीं करना चाहता तब उसको जबर्दस्ती पाप में लगाने वाला कौन हैं? भगवान् ने उत्तर दिया कि सुख भोग और संग्रह की इच्छा ही पापों का कारण हैं|

ज्यों ज्यों मनुष्य अधिक सुख भोगेगा त्यों त्यों उसके भीतर भोगों की इच्छा बढ़ेगी| वह इच्छा ही उससे आगे पाप कराएगी| सुख भोगने से पुराने पुण्य तो नष्ट होते ही हैं, इसके साथ ही सुख भोगने की इच्छा उत्पन्न होने से पापों का बीज, बोया जाता हैं| इसलिए सुख भोग में लाभ नहीं हैं| दुःख भोग में बड़ा भरी लाभ यह हैं, एक तो पुराने पाप नष्ट होते हैं और साथ ही सुख भोग के प्रति उपरति अर्थात वैराग्य की भावना उत्पन्न होती हैं| हम अभी जो सुख भोग रहे हैं, वह तो भोगने से नष्ट हो जायेगा, अब आगे आने वाले दुःख से बचना चाहिये| यदि इस मानव शरीर में हम सावधान रहें, ठीक तरह से आचरण करें और मर्यादा के अनुसार चलें तो आगे दुःख नहीं होगा| जीवन को शुद्ध बनाने के लिए चार बातों का ध्यान रखा जाये तो बहुत लाभ होगा |

सबसे पहली बात हैं-समय की | अपना समय अच्छे से अच्छे काम में लगायें| समय को बर्वाद न करें| ऐसे कामों में न लगाये जिससे न तो परमात्मा मिले या ना हीं संसार का कोई लाभ हों| इस पर समय ही नहीं धन और चरित्र भी नष्ट होता हैं| हमें हमारा समय, निरर्थक न चला जाये इसका ध्यान रखना चाहिये| दूसरी बात सादगी का जीवन हैं| उसका अभ्यास करे| हममे से जिसके पास पैसा हों, वे उन्हें दान-पुण्य , कुटुम्बियो, निराश्रितों, अपंगो अर्थात दीन-दुखियो पर अवश्य खर्च करे.|

तीसरी बात यह हैं कि हम जो भी काम करे, उसमे कारीगरी, चतुराई, होशियारी, बुद्धिमानी बढ़ाते रहे| समझदारी और विद्या को बढाते चले जाये| चौथी बात यह हैं कि दूसरों का अधिकार न छीनना, चौरी डकेती आदि न करना तो बहुत दूर रहा, दुसरो का हक, हमारे पास न आये, इस विषय में खूब सावधान रहना हैं| अपनी खरी कमाई का अन्न खायेंगे तो अंत:करण निर्मल होगा| चोरी, ठगी, धोखेबाजी, अन्याय का अन्न खायेंगे तो अंत:करण अशुद्ध हो जायेगा| दुसरो का हक छीनने वाला चाहे धनी बन जाये, खां-पीकर पुष्ट हो जाये परन्तु वह निर्भय नहीं हो सकता| निर्भयता, चित्त की निर्मलता से आती हैं| अत: हम अपना जीवन निर्मल बनाये|

इति..(समाप्त)

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