साधन चार हैं-विवेक, वैराग्य, षट-सम्पति और मुमुक्ष|
१. विवेक.
सत्य-असत्य और नित्य-अनित्य वस्तु के विवेचन का नाम विवेक हैं| विवेक इसका भलीभांति पृथ्थकरण कर देता हैं| विवेक का अर्थ हैं, तत्व का यथार्थ अनुभव करना| सव अवस्थाओं में और प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा-आनात्मा का विश्लेषण करते करते, यह सिध्दी प्राप्त होती हैं|
२. वैराग्य.
विवेक के द्वारा सत-असत और नित्य-अनित्य का पृथ्थकरण हो जाने पर असत और अनित्य से सहज ही राग हट जाता हैं, इसी का नाम वैराग्य हैं| मन में भोगो की अभिलाषायें बनी हुई हैं और वाह्य रूप में संसार से द्वेष और घृणा कर रहे हैं, इसका नाम वैराग्य नहीं हैं| वैराग्य में राग का सर्वथा आभाव होता हैं| वैराग्य यथार्थ में आभ्यंतरिक अनासक्ति का नाम हैं|
३. षट-सम्पति.
इस विवेक और वैरग्य के फलस्वरूप साधक को छह विभागों वाली एक परिसंपति मिलती हैं, वह पूरी न मिले तब यह समझना चाहिए कि विवेक और वैराग्य में कसर हैं| विवेक और वैराग्य से संपन्न हो जाने पर ही साधक को इस सम्पति का प्राप्त होना सहज हैं| इस सम्पति का नाम षट-सम्पति हैं और इसके छह विभाग हैं:-
(१)-शम.
मन का पूर्ण रूप से निगृहीत, निश्चल और शांत हो जाना ही “शम” हैं|
(२)-दम.
इन्द्रियों का पूर्णरूप से निगृहीत और विषयों के रसास्वाद से रहित हो जाना ही “दम” हैं|
(३)-उपरति.
विषयों से चित्त का उपरत हो जाना ही “उपरति” हैं|
(४)-तितिक्षा.
तितिक्षा का अर्थ होता हैं “सहन-शक्ति”| द्वंदों का सहन करने का नाम तितिक्षा हैं| सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि का सहन करना भी तितिक्षा हैं परन्तु विवेक, वैराग्य और शम, दम. उपरति के अनन्तर प्राप्त होने वाली तितिक्षा तो इससे विलक्षण ही होनी चाहिए| संसार में न तो द्वंदों का नाश हो सकता हैं और न ही कोई इससे बच सकता हैं| किसी तरह इनको सह लेना ही उत्तम हैं, परन्तु सर्वोत्तम तो हैं-द्वंदों जगत से उपर उठकर साक्षी भाव होकर द्वंदों को देखना| यही वास्तविक “तितिक्षा” हैं|
(५-)श्रधा.
आत्मसत्ता में प्रत्यक्ष की भांति अखंड विश्वास का नाम श्रधा हैं| पहले शास्त्र, गुरु और साधन में श्रधा होती हैं, उससे आत्म-श्रधा बढती हैं, परन्तु जब तक आत्म-स्वरूप में पूर्ण श्रधा नहीं होती, तब तक एक मात्र निष्कलंक, निरंजन, निराकार, निर्गुण ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर, उसमें बुध्दी स्थिर नहीं हो सकती|
(६)-समाधान.
मन और बूढी का परमात्मा में पूर्णतया समाहित हो जाना- जैसे अर्जुन को गुरु द्रोण के सामने परीक्षा देते समय वृक्ष पर रखे हुए नकली पक्षी का केवल गला ही दिख पड़ता था-वैसे ही मन और बूढी को निरंतर एक मात्र लक्ष-वस्तु ब्रह्म के ही दर्शन होते रहना, यही “समाधान” हैं|
४. मुमुक्ष.
इस प्रकार जब विवेक, वैराग्य और षट-सम्पति की प्राप्ति हो जाती हैं, तब साधक स्वाभाविक ही अविद्या के बंधन से सर्वथा मुक्त होना चाहता हैं और वह ओर से चित्त हटाकर किसी ओर भी न ताककर, एक मात्र परमात्मा की ओर ही दौड़ता हैं| उसका यह अत्यंत वेग से दौड़ना अर्थात तीव्र साधन ही उसकी परमात्मा को पाने की तीव्रतम लालसा का परिचय देता हैं, यही “मुमुक्षत्व” हैं|
3 टिप्पणियां:
अति उत्तम
I appreciate your efforts to make us aware of such a valuable spiritual knowledge to achieve salvation.
👍best
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