देवी की उत्पत्ति.



देवी की उत्पत्ति.

हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त सम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है) वेदों में तो दुर्गा का कोई उल्लेख नहीं है, मगर उपनिषद में देवी 'उमा हैमवती' उमा, हिमालय की पुत्री का वर्णन है। पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है।

देवी के इस प्राकट्य का उल्लेख दुर्गा सप्तशती में मिलता है। इसके अनुसार जब असुरराज महिषासुर ने स्वर्गलोक पर आक्रमण कर देवताओं से स्वर्ग छीन लिया तब सभी देवता भगवान शिव व भगवान विष्णु के पास सहायता पाने के लिए गए। (उल्लेखनीय हैं कि असुरराज महिषासुर को यह वर प्राप्त था कि उसकी मृत्यु किसी कुंवारी कन्या के हाथ से होगी) सारा घटनाक्रम जानने के बाद शिवजी  व विष्णुजी  को क्रोध आया इससे उनके व अन्य देवताओं के चेहरे से तेज उत्पन्न हुआ। यह तेज, नारी रूप में परिवर्तित हो गया। शिव के तेज से देवी का मुख बना,अग्नि के तेज से तीनों नेत्र, संध्या के तेज से भृकुटि, वायु के तेज से कान, कुबेर के तेज से नाक, प्रजापति के तेज से दांत, यमराज के तेज से केश बने, चंद्रमा के तेज से देवी का वक्षस्थल बना, विष्णु के तेज से भुजाएं और सूर्य के तेज से पैरों की अँगुलियों की उत्पत्ति हुई।

देवी का स्वरूप बनने के बाद सभी देवताओं ने उन्हें, अपने प्रिय अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित किया। ये अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर देवी ने महाशक्ति का रूप पाया। देवताओं ने देवी को जो अस्त्र-शस्त्र दिए उनका विवरण  इस प्रकारहैं:-


भगवान शंकर ने मां शक्ति को त्रिशूल दिया।
भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र दिया।
भगवान ब्रह्मा ने कमंडल भेंट दिया।
इंद्रदेव ने वज्र और घंटा अर्पित किया।
अग्निदेव ने अपनी शक्ति प्रदान की।
यमराज ने कालदंड भेंट किया।
सूर्य देव ने माता को तेज प्रदान किया।
प्रजापति दक्ष ने स्फटिक माला दी।
पवनदेव ने धनुष और बाण भेंट किए।
वरुण देव ने शंख दिया।

समुद्र ने मां को उज्जवल हार, दिव्य चूड़ामणि, दो दिव्य वस्त्र, अर्धचंद्र, सुंदर हंसली, दो कुंडल, कड़े और अंगुलियों में पहनने के लिए रत्नों की अंगूठियां दी।
सरोवरों ने उन्हें कभी न मुरझाने वाली कमल की माला दी।
पर्वतराज हिमालय ने मां दुर्गा को सवारी करने के लिए शक्तिशाली सिंह भेंट किया।
कुबेर देव ने मधु (शहद) से भरा पात्र दिया।


इन सब वस्तुओं को देवी ने अपनी अठारह भुजाओं में धारण किया।

आदिशक्ति जगदम्बा ने पृथ्वी को आसुरिक शक्तियों से बचाने व असुरों का संहार करने के लिए कई अवतार लिए। सर्वप्रथम वे महादुर्गा के रूप में अवतरित हुई थी और महिषासुर का संहार कर “महिषमर्दिनी” कहलाई। 


दुर्गा नाम.

हिरण्याक्ष दैत्य के वंश में उत्पन्न महा शक्तिशाली दैत्य, जिसका नाम 'दुर्गमासुर' था, जो रुरु दैत्य का पुत्र था। देवताओ का बल तथा शक्ति वेद हैं, ऐसा जानकर  वेदों को प्राप्त  करने की कामना से दैत्य दुर्गमासुर ने  हिमालय पर्वत पर, ब्रह्माजी की तपस्या की। हिमालय पर  १००० वर्षों तक कठिन तपस्या कर अंततः ब्रह्माजी, को प्रसन्न कर समस्त वेद प्राप्त कर लिए।

हव्य-भाग के प्राप्त न होने से देवता, बलहीन हो गए तब  दैत्यराज ने देवलोक में आक्रमण कर दिया। देवों को अपने प्राण रक्षा के लिए पलायन करना पड़ा। पर्वत की कंदराओ एवं गुफाओ में देवताओ ने अपना निवास बनाया। निरंतर पापाचार और वर्षा के न होने से भीषण अकाल पड़ा, तब ब्राह्मणों ने यथा-विधि अनुष्ठान प्रारंभ किया। देवगण भी जो कंदराओ में छुपे थे, आकर आयोजन में सम्मिलित हुए। सामूहिक आवाहन पर देवी प्रकट हुई और कारण जाना तथा संकट निवारण के लिए आश्वस्त किया।

यह बात जब दैत्यराज दुर्गम को पता चली तो उसने देवताओं पर पुन: आक्रमण किया
।  माता भगवती ने देवताओं की ओर से युद्ध किया। सेना का संहार होते देख दुर्गम स्वयं युद्ध करने आया।  माता भगवती ने काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला आदि कई सहायक शक्तियों का आह्वान कर उन्हें भी युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। भयंकर युद्ध में भगवती ने दुर्गम का वध कर दिया। दुर्गम नामक दैत्य का वध करने के कारण भगवती का नाम "दुर्गा" विख्यात हुआ। 

देवी दुर्गा के नौ रूप, जिन्हें नव-दुर्गा के नाम से जाना जाता हैं।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।। (दुर्गा सप्तसती)


१. शैलपुत्री, पर्वत राज हिमालय के कन्या के रूप में उत्पन्न होने के परिणाम स्वरूप शैलपुत्री नाम से विख्यात।
 २. ब्रह्मचारिणी, तपस्या करने वाली।
 ३. चंद्रघंटा, मस्तक पर घंटे के सामान अर्ध चन्द्र होने के कारण।
 ४. कुष्मांडा, ब्रह्म को उत्पन्न करने वाली।
 ५. स्कंदमाता, देवासुर संग्राम के सेनापति जिन्होंने तारकासुर का वध किया 'कुमार कार्तिकेय', जिन्हें स्कन्द नाम से जाना जाता हैं, उनकी माता अर्थात पार्वती।
६. कात्यायनी, महर्षि कात्यायन की कन्या।
७. कालरात्रि, स्वयं काली के समान।  

८. महागौरी, पूर्णतः गौर वर्ण होने के परिणामस्वरूप।
९. सिद्धिदात्री, समस्त प्रकार के सिद्धियो को प्रदान करने वाली।

शक्ति के तीन रूप माने गया हैं जो त्रिगुणात्मक गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं । परा-शक्ति, अपरा-शक्ति तथा अविद्या-शक्ति। प्रथम परा-शक्ति ही महामाया-योगनिद्रा हैं, जो पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार के रूप में विद्यमान हैं। परिणामस्वरूप दुर्गा सप्तशती में तीन बार 'नमस्तस्यै' का प्रयोग किया गया हैं,  जो तीनों शक्तिओं को नमन का संबोधन हैं।

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