वेदांत....आदि-शंकराचार्य-भाग-७



वेदांत....आदि-शंकराचार्य-भाग-७ 

सद्योमुक्ति या क्रममुक्ति.

मुक्ति के विषय में एक दूसरा विवाद हैं| मुक्ति, तात्कालिक होती हैं अथवा क्रमिक| सद्योमुक्ति वह मुक्ति हैं, जो ग्यान प्राप्त होते ही हो जाती हैं| कर्म मुक्ति, वह मुक्ति हैं जो क्रमश: प्राप्त होती हैं| देवयान मार्ग से चलने वाले मनुष्य, जिस ब्रह्म लोक को प्राप्त होते हैं, वही क्रम मुक्ति, सापेक्षिप मुक्ति हैं क्योकि वह प्रलय पर्यन्त ही रहती हैं| प्रलय के बाद जब पुन: श्रृष्टि होती हैं तब ब्रह्मलोक के निवासी पुन: म्रत्युलोक में आ जाते हैं| इसके विपरीत सद्योमुक्ति, वास्तविक मुक्ति हैं क्योकि उसको पाने वाला, संसार चक्र से मुक्त हो जाता हैं| सद्योमुक्ति ही वास्तविक मुक्ति हैं|

एक मुक्ति और सर्वमुक्ति.

मोक्ष के सम्बन्ध में जो अंतिम प्रश्न उठाया जाता हैं, वह यह हैं कि एक जीवात्मा की मुक्ति से क्या अन्य जीवात्माओ की भी मुक्ति हो जाती हैं अथवा एक जीवात्मा की मुक्ति के पश्चात् अन्य जीवात्माओ की मुक्ति शेष रहती हैं? सर्व का ग्यान, अग्यान -जन्य हैं| मुक्ति से वह अग्यान दूर हो जाता हैं| अत: एक मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति हैं| नाना जीववादी वेदांती कहते हैं कि प्रत्येक जीव केवल अपना मोक्ष प्राप्त करता हैं| एक जीव की मुक्ति दूसरे जीवों को मुक्ति प्रदान नहीं करता| अत: एक मुक्ति होने पर भी सर्व मुक्ति नहीं होती|

मोक्ष मार्ग.

१.ग्यान= अद्वेत वेदांत के अनुसार केवल ग्यान से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती हैं| बिना ग्यान के मोक्ष की प्राप्ति नहीं की जा सकती| इसे ज्ञानमार्ग की संज्ञा दी गई हैं| श्रवण, मनन और निदिध्यासन, ज्ञानमार्ग के तीन सोपान हैं| पर श्रवण के सभी अधिकारी नहीं हो सकते| श्रवण का अधिकारी वहीं हो सकता हैं जिसके भीतर साधन-चतुष्टय विधमान हों| साधन-चतुष्टय, साधक की योग्यताएं हैं जो निम्न प्रकार से बताई गई हैं:-

[१] नित्यानित्य वस्तु विवेक= प्रत्येक साधक के भीतर नित्य और अनित्य वस्तुओ के बीच भेद का ग्यान होना चाहिये| जो सदा विधमान हो अथवा जो एक रूप से सदेव व्यवस्तिथ हो, वह नित्य हैं| जो इससे भिन्न हो, वह अनित्य हैं|

[२] इहामुत्रार्थभोग विराग= साधक के मन में इहलोक तथा परलोक के भोगों के प्रति वैराग्य होना चाहिये| पर हमारे मन में सांसारिक एवं पारलौकिक भोगो के प्रति वैराग्य तभी हो सकता हैं जब हम आत्मा को श्रेष्ट समझे| अन्य सभी वस्तुये आत्मा के लिए हैं, पर आत्मा साक्ष्य मूल हैं| आत्मा रूपी नि:श्रेयस को प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार के श्रेयस का परित्याग, वैराग्य हैं|

[३] शमदमादि साधन संपत= शम, दम. उपरति, तितिक्षा, समाधान तथा श्रृध्दा-इन छह गुणों का अर्जन, साधक को करना चाहिये| मानसिक नियंत्रण ही शम हैं, इन्द्रीओं का नियंत्रण दम हैं, विषय-वासना से दूर हटना उपरति हैं, संसारिक द्वंदों के प्रति सहिष्णुता, तितिक्षा हैं, शंकाओ का समन्वय, समाधान है ऐसा स्वभाविल विश्वास जिसका तर्क द्वारा खंडन न किया जा सके, श्रृध्दा हैं|

[४] मुमुक्षत्व= मोक्ष पाने की उत्कृष्ट इच्छा को मुमुक्षत्व कहा जाता हैं| जब तक साधक के भीतर मुमुक्षत्व नहीं होगा, तब तक उसे वेदांत का लाभ नहीं मिल सकता| मुमुक्षत्व का वास्तविक अर्थ हैं=समस्त बन्धनों का उच्छेद कर स्वराज्य प्राप्त करने की इच्छा| संक्षेप में, प्रभु या परमात्मा होने की इच्छा को ही मुमुक्षत्व कहा जाता हैं|

उपर्युक्त चार सोपानों से युक्त साधक को उपनिषद का नित्य स्वाध्याय या श्रवण करना चाहिये| श्रवण के बाद मनन आता हैं| मनन का अर्थ हैं, युक्तिओं, ब्रह्मवाद का प्रतिपादन करना| मनन के लिए अद्वेत वेदांत में अनेक विधिओ का वर्णन किया गया हैं जिनमें अध्यारोप-अपवाद विधि प्रमुख हैं| इस विधि के द्वारा ही हमें प्रपंच रहित ब्रह्म का ग्यान होता हैं| यह विधि अद्वेद वेदांत की एक विशिष्ट प्रणाली हैं| इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य आत्मा के अस्तित्व से परिचित तो हैं, पर वह उसके सामान्य रूप को ही जानता हैं अर्थात वह आत्मा के केवल “इदमंश” को जनता हैं, वह उसके “किमंश” को नहीं जनता| वह आत्मा के विषय में अनेक प्रकार की कल्पनाये करता हैं और विचार करता हैं कि आत्मा पुत्र हैं, शरीर हैं, मन हैं, बुद्धि हैं, अंत:करण हैं, कर्ता हैं, भोक्ता हैं, इत्यादि| इसके उपरांत वह इन पर पुनर्विचार करके निष्कर्ष निकलता हैं कि आत्मा केवल “इदमंश” ही अनिवार्य और अव्यभिचारी [अपरीवर्तनीय] हैं , पर उसका “किमंश” आगन्तुक और व्यभिचारी हैं| इसके बाद वह आत्मा के आगन्तुक और व्यभिचारी का अपवाद या निराकरण करता हैं| अध्यारोपण-अपवाद की यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती हैं, जब तक कि हम अनिराकृत तत्व तक नहीं पहुच जाते| वास्तव में अध्यारोप-अपवाद न्याय, यह प्रदर्शित करता हैं कि तत् सभी प्रपंचों से मुक्त हैं| उसका कोई किमंश हैं ही नहीं| वह सदा केवल उद्देश्य हैं, विधेय नहीं हैं| वह ब्रह्माण्ड का एक मात्र और अंतिम उद्देश्य हैं| शेष सब विधेय हैं|

मनन के बाद निदिध्यासन का स्थान हैं| निदिध्यासन से तात्पर्य ब्रह्मात्म के स्वरूप का सतत ध्यान करना हैं| ध्यान ज्यों-ज्यो दीर्घकाल तक अभ्यास पूर्वक किया जायेगा, त्यों-त्यों आत्मज्ञान का प्रगटीकरण होगा| इसी पद्धति से अग्यान की निवृति तथा ग्यान की प्राप्ति होती हैं| वाचस्पति मिश्र, तत्वग्यान के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन तीनों का प्रतिपादन करते हैं| उनके अनुसार श्रुतिज्ञान से जीव, परमात्मा को जनता हैं फिर वह युक्ति से उस ज्ञान को व्यवस्थित करता हैं और पुन: वह शंका रहित इस श्रुतिज्ञान का सतत ध्यान करता हैं| इस प्रकार, श्रुति से जीव का परोक्ष ग्यान, अपरोक्ष ग्यान में केवल परिणित हो जाता हैं| विवरण प्रस्थानवादी पद्य्पाद के अनुसार श्रुतिज्ञान के आधार पर ही अपरोक्ष ग्यान की प्राप्ति हो सकती हैं| इस सम्बन्ध में एक आख्यायिका प्रसिद्ध हैं| एक बार दस आदमियों ने नदी पार किया| नदी पार करने के बाद सभी दसो आदमियों की गिनती होने लगी| गिनती में कुल नौ आदमी ही आते थे| इसका कारण था कि प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तिओ की गणना तो करता था किन्तु अपने आप को छोड़ देता था| इसका परिणाम यह हुआ कि उन सभी ने यह निष्कर्ष निकाला कि उनका एक आदमी नदी में डूब गया हैं और उसके लिए रोने लगे| भाग्य से वहाँ एक महात्मा पहुचे और उन आदमियों से रोने का कारण पुछा| उन्होंने सारी कथा सुना दी| इस पर महात्मा ने एक आदमी को लिया और अपने समक्ष गिनने को कहा| उस आदमी ने गिनती की, फिर से संख्या नौ ही आई| इस पर महात्मा ने कहा कि “दसवा तू ही हैं, “दशमस्त्वमसी”| यह सुनते ही सबको अपने अग्यान का बोध हो गया और वे सब आश्वस्त हो गये कि उनके साथियो से कोई मरा नहीं हैं| यहीं बात श्रुति वाक्यों पर भी लागू होती हैं| ज्योही कोई व्यक्ति “तत्वमसि” कहता हैं, सुनने वाले को ब्रह्मात्म-भाव का ग्यान प्राप्त हो जाता हैं| इसके लिए उसे मनन और निदिध्यासन की कोई आवश्कता नहीं पडती| पर यह ध्यान में रखने की बात हैं कि शब्द-श्रवण के पूर्व श्रोता का मन, मनन और निदिध्यासन द्वारा संस्कृत होना चाहिये| अत: हम निष्कर्ष निकालते हैं कि मनन और निदिध्यासन चाहे वे श्रवण पूर्व हो या श्रवणोत्तर, ग्यान मार्ग के आवश्यक अंग हैं| विवरण प्रस्थान में शब्द को ही मोक्ष के लिए प्रधान हेतु माना गया हैं तथा मनन और निदिध्यासन को उसमें केवल उपकारक ही समझा गया हैं|

क्रमश....

कोई टिप्पणी नहीं: