(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः सप्तम
अध्यायः श्लोक 17-32
का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन ने कहा- श्रीकृष्ण! तुम सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देने वाले हो। जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारने वाले एकमात्र तुम्हीं हो। तुम प्रकृति से परे रहने वाले आदिपुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्त-शक्ति (स्वरूप-शक्ति) से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी माया को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरूप में स्थित हो। वहीं तुम अपने प्रभाव से माया-मोहित जीवों के लिये धर्मादिरूप कल्याण का विधान करते हो। तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिये है।
स्वयंप्रकाशस्वरूप श्रीकृष्ण! क्या है, कहाँ से, क्यों आ रहा है- इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है।
भगवान ने कहा- अर्जुन! यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ, ब्रह्मास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राण संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता। किसी भी दूसरे अस्त्र में इसको दबा देने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र विद्या को भलीभाँति जानते ही हो, ब्रह्मास्त्र के तेज से ही इस ब्रह्मास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा दो।
सूत जी कहते हैं- अर्जुन विपक्षी वीरों को मारने में बड़े प्रवीण थे। भगवान की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान की परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्र के निवारण के लिये ब्रह्मास्त्र का ही सन्धान किया। बाणों से वेष्ठित उन दोनों ब्रह्मास्त्रों के तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्नि के समान आपस में टकराकर सारे आकाश और दिशाओं में फैल गये और बढ़ने लगे। तीनों लोकों को जलाने वाली उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सांवर्तक अग्नि है। उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया।
क्रमश:
साभार krishnakosh.org
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें