चिंता और चैन में शत्रुता.

चिंता और चैन में शत्रुता.

एक महात्मा नदी के किनारे एकांत में अपनी कुटियाँ में रहते थे। उन्होंने कुटियाँ के चारों ओर हरे भरे बृक्ष लगा रखे थे, जिन पर सुबह-शाम पक्षियों का कलरव गूंजता रहता था। प्रकृति का यह मधुर सानिध्य महात्मा को सदैव आनंदित रखता था। पक्षी और पेड़ पोधें तो मानो उनका परिवार ही बन गया था। एक दिन महात्मा प्रात:कालीन पूजन कर उठे ही थे कि द्वार पर उन्हें एक सेठजी खड़े नजर आये। उन्हें चिंता ग्रस्त देख, महात्मा ने उनसे समस्या जाननी चाही। सेठजी, बोले, “महाराज! मेरे पास विशाल सम्पदा हैं, भरा-पूरा परिवार हैं और मुझे कोई रोग भी नहीं हैं। फिर भी मुझे नीद नहीं आती, रात भर करवटे ही बदलता रहता हूँ।”

महात्मा आत्मीयता से सेठजी के सिर पर हाथ फेरकर बोले, ‘सेठ! तुम्हारे पास सब कुछ भले ही हो, किन्तु वह नहीं हैं, जो नींद के लिये आवश्यक हैं।’

सेठ ने पुछा, वह क्या हैं, महाराज?

महात्मा बोले, ‘तुम चारों ओर चिताओं से घिरे हों। धन संपत्ति की चिंता, व्यापार-व्यवसाय की चिंता, परिवार की चिंता। स्मरण रखों कि चिंता और चैन में शत्रुता हैं।’

सेठ ने इससे बचने का उपाय पुछा तो उन्होंने कहा, ‘तुम प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करों। पेड़, पौधे, फल, पानी और प्रकाश के रूप में उसकी अनन्त सम्पदा चारो ओर बिखरी हुई हैं, किन्तु वह चिंता मुक्त हैं। अपनी इस दौलत को पूरी दुनिया पर दोनों हाथो से सतत लुटाती रहती हैं। यदि तुम उससे प्रेरणा लेकर अपना जीवन भी उसके अनुरूप बना लोगे, तो तुम्हे न केवल नींद आएगी बल्कि अतीव शांति महसूस होगी।

सेठ ने महात्मा की बात का महत्त्व समझा और लोक कल्याण की राह पर चल पड़ा। धन और ग्यान देने से बढ़ते ही हैं। इसलिए इनके संग्रह के साथ-साथ इनके दान की वृत्ति भी रखनी चाहिए।

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