(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः द्वादश
अध्यायः श्लोक 15-36 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मणों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिर से कहा- ‘पुरुवंशशिरोमणे! काल की दुर्निवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुम लोगों पर कृपा करने के लिये भगवान विष्णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी। इसीलिये इसका नाम 'विष्णुरात' होगा। निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी, भगवान का परम भक्त और महापुरुष होगा’। युधिष्ठिर ने कहा- महात्माओं! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यश से हमारे वंश के पवित्र कीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण करेगा? ब्राह्मणों ने कहा- धर्मराज! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान श्रीराम के समान ब्राह्मणभक्त और सत्य प्रतिज्ञ होगा। यह उशीनर-नरेश शिबि के समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा। धनुर्धरों में यह सहस्राबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा। यह अग्नि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा। यह सिंह के समान पराक्रमी, हिमाचल की तरह आश्रय लेने योग्य, पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता-पिता के समान सहनशील होगा। इसमें पितामह ब्रह्मा के समान समता रहेगी, भगवान शंकर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने में यह लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा। यह समस्त सद्गुणों की महिमा धारण करने में श्रीकृष्ण का अनुयायी होगा, रन्तिदेव के समान उदार होगा और ययाति के समान धार्मिक होगा। धैर्य में बलि के समान और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लाद के समान होगा। यह बहुत से अश्वमेध यज्ञों का करने वाला और वृद्धों का सेवक होगा। इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को यह दण्ड देगा। यह पृथ्वी माता और धर्म की रक्षा के लिये कलियुग का भी दमन करेगा। ब्राह्मण कुमार के शाप से तक्षक के द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान के चरणों की शरण लेगा। राजन्! व्यासनन्दन शुकदेव जी से यह आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्त में गंगा तट पर अपने शरीर को त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा।
ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर को इस प्रकार बालक के जन्म लग्न का फल बताकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये। वही यह बालक संसार में परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भ में जिस पुरुष का दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसी की परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है। जैसे शुक्ल पक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालन से क्रमशः अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया। इसी समय स्वजनों के वध का प्रायश्चित् करने के लिये राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ के द्वारा भगवान की आराधना करने का विचार किया, परन्तु प्रजा से वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने) की रकम के अतिरिक्त और धन न होने के कारण वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये।
उनका अभिप्राय समझकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उनके भाई उत्तर दिशा में राजा मरुत्त और ब्राह्मणों द्वारा छोड़ा हुआ, बहुत-सा धन ले आये।
उससे यज्ञ की सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिर ने तीन अश्वमेध यज्ञों के द्वारा भगवान की पूजा की। युधिष्ठिर के निमन्त्रण से पधारे हुए भगवान ब्राह्मणों द्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये कई महीनों तक वहीं रहे।
शौनक जी! इसके बाद भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी से अनुमति लेकर अर्जुन के साथ यदुवंशियों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका के लिये प्रस्थान किया।
क्रमश:
साभार krishnakosh.org
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