भारत में फांसी के फंदे तक कानूनी कार्यवाही.


भारत में फांसी के फंदे
तक कानूनी कार्यवाही.

नैशनल क्राइम्स रेकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ो के अनुसार भारत में 2001 से लेकर 2011 तक औसत 132 दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी, लेकिन हर साल सुप्रीम कोर्ट मात्र 3-4 दोषियों की ही सजा पर मुहर लगाकर, उन्हें फंदे तक पहुंचाता है। आंकड़ों के अनुसार भारत में करीब 477 दोषियों को मौत की सजा मिली हुई है। फांसी का अंतिम फैसला किन-किन चरणों के बाद लिया जाता है, इसकी जानकारी निम्नानुसार हैं।

सेशन कोर्ट अपनी सुनवाई के बाद किसी आरोपी को दोषी करार देकर, फांसी की सजा सुना सकता है। अगर सेशन कोर्ट ने किसी को फांसी की सजा दी है, तो मामले को हाई कोर्ट द्वारा देखा जाना जरूरी है।

हाई कोर्ट, सेशन कोर्ट द्वारा दी गई मौत की सजा को बरकरार रख सकता है या फिर;

-सजा रद्द कर सकता है।

-नए ट्रायल का आदेश दे सकता है।

-आरोपी को बरी कर सकता है।

सेशन कोर्ट द्वारा दी गई सजा के खिलाफ, आरोपी, अयोग्यता के आधार पर हाई कोर्ट में अर्जी भी दे सकता है। हाई कोर्ट में अपनी सजा को कम करने के लिए भी अर्जी दे सकता है।

अगर हाई कोर्ट आरोपी की याचिका खारिज कर देता है, या उसको मौत की सजा सुनाता है, तो आरोपी के पास अनुच्छेद 134 के तहत अपनी सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने के 30 दिन के अंदर, सुप्रीम कोर्ट में ही फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती है। पुनर्विचार याचिका बिना मौखिक बहस के फैसला सुनाने वाली बेंच को फैसले पर पुनर्विचार के लिए दी जाती है।

रिव्यू पिटिशन खारिज होने के बाद मुजरिम क्यूरेटिव पिटिशन दाखिल कर सकता है। क्यूरेटिव पिटिशन में जजमेंट के तकनीकी पहलुओं पर मुजरिम सवाल उठा सकता है। यह देखा जाता है कि जजमेंट में किसी विशेष पॉइंट को नहीं देखा गया और फिर उस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाया जा सकता है। इसके तहत जजमेंट को वरिष्ठ वकील से आकलन कराया जाता है और उनके रेफरेंस के बाद ही क्यूरेटिव पिटिशन दाखिल होती है।

सुप्रीम कोर्ट से रिव्यू पिटिशन और क्यूरेटिव पिटिशन अगर खारिज हो जाए, उसके बाद राष्ट्रपति के सामने दया याचिका दायर की जा सकती है। राष्ट्रपति के सामने दाखिल दया याचिका पर राष्ट्रपति अनुच्छेद-72 के तहत दया याचिका पर सुनवाई करते हैं, जबकि राज्यपाल 161 के तहत याचिका पर फैसला देते हैं।

यदि दया याचिका भी खारिज हो जाए, तो फांसी के लिए “डेथ वारंट” जारी होता है। निचली अदालत जहां से पहली बार मुजरिम को फांसी की सजा सुनाई गई थी, वह कोर्ट सुनवाई के बाद डेथ वॉरंट जारी करता है, और डेथ वॉरंट जारी करने और फांसी पर लटकाए जाने के बीच कम से कम 15 दिन का गैप होता है, ताकि इस दौरान मुजरिम को ये बताया जा सके कि उसके पास कोई कानूनी उपचार बचा हुआ है, या नहीं।

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