सृष्टि का कोई सृजेता, है- अवश्य.


सृष्टि का कोई सृजेताहै अवश्य!


यह एक विचारणीय प्रश्न है कि इस गतिशील विश्व ब्रह्मांड के लिए जो कार्यकारणता, परस्पर सम्बद्धता, सन्तुलन, संकोचन, संरक्षण, प्रसारण, घात-प्रतिघात और क्रिया-प्रतिक्रिया अपेक्षित है और जो युग-युगान्तरों से चलती आ रही है, वह बिना बुद्धि के कैसे सम्भव है? यदि कोई बुद्धिमान सृष्टा नहीं है, जो अपनी सृष्टि के माध्यम से और उसके अन्दर कार्य करे तो ये सब क्रियाएँ समस्त प्रकृति के अन्दर कैसे जारी रह सकती हैं?

थामस डेविड पार्क्स नामक एक गवेषणा रसायनविद् ने विश्व की इसी सूत्रबद्धता के बारे में यह कहा है कि “मेरे चारों ओर जितना भी यह अजैव या इनौर्गेनिक संसार है, मैं उसमें नियम और प्रयोजन देखता हूँ। मैं विश्वास नहीं करता कि वे सब पदार्थ वहाँ अकस्मात हैं या परमाणुओं के आकस्मिक संघात से बने हैं। मेरे लिए तो उस नियम का अर्थ है बुद्धि और इस बुद्धि को मैं परमात्मा कहता हूँ। पार्क्स आगे और कहता है कि शायद किसी रसायनविद् के लिए तत्वों की नियतकालिक व्यवस्था सबसे अधिक आकर्षक विषय हो। रसायनशास्त्र का नया अध्येता सबसे पहले जिस चीज को सीखता है वह है तत्वों में कालक्रम या नियमबद्धता। इस क्रम का अनेक तरह से वर्णन और वर्गीकरण किया गया है किन्तु सामान्यतया इस शताब्दी के रूसी रसायनविद् मेडेलीव को अपनी कालक्रमिक तालिका का श्रेय देते हैं। इस व्यवस्था से न केवल ज्ञात तत्वों और समासों (कम्पाउण्डों) का पता लगता है, किन्तु जिन तत्वों की अभी तक खोज नहीं हुई उनकी गवेषणाओं के लिए भी प्रेरणा मिलती है। तालिका की जो क्रमबद्ध व्यवस्था है उसमें खाली स्थानों को देखकर उन तत्वों की कल्पना पहले से ही कर ली गई है। अज्ञात और नए समासों के गुणों का पूर्वकथन करने में तथा उनकी प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने में सहायता के लिए रसायनविद् आज भी उस कालक्रम तालिका का प्रयोग करते हैं। वे रसायनविद् सफल हुए हैं, यही इस तथ्य की सबल साक्षी है कि अजैव या इनौर्गेनिक संसार में सुन्दर क्रम विद्यमान है। अपने चारों ओर हमें जो क्रमबद्धता दृष्टिगोचर होती है वह अन्धाधुन्ध और विवेकहीन ढंग से सर्वव्यापक नहीं है। उसमें कल्याण और हित की भावना भी समाविष्ट है- जो इस तथ्य की साक्षी है कि उस दिव्य बुद्धिमान सत्ता को भलाई और सुख की भी उतनी ही चिन्ता है जितनी प्रकृति के अचल नियमों की। यदि आपको अपने चारों ओर इस बात के कहीं अपवाद नजर आते हैं तो वे आपकी बुद्धिमत्ता के नियमों को ही चुनौती दे सकते हैं।

उदाहरण के लिए पानी को ही ले लीजिए। फार्मूला के अनुसार उसका जो भार है- 18। इससे हरेक यह कहेगा कि इसे सामान्य तापमान और दबाव में गैस होना चाहिए। अमोनिया का फार्मूला के अनुसार भार है 17 और वह -33 सेन्टीग्रेड जितने कम तापमान पर भी वायुमण्डल के वर्तमान दबाव में गैस ही है-कालक्रम तालिका में स्थिति के हिसाब से हाइड्रोजन सल्फाइड का पानी से घनिष्ठ संबंध है और उसका फार्मूला भार है- 34 और वह - 59 सेन्टीग्रेड तापमान पर भी गैस ही है किन्तु सामान्य तापमान पर भी पानी सर्वथा द्रव ही रहता है। यह ऐसी बात है जिस पर किसी को भी रुककर सोचने को बाधित होना पड़ेगा। विश्व-प्रसिद्ध जीव भौतिकीविद् फ्रैंक ऐलन ने इसी “पानी के बारे में कहा कि “पानी के चार विशिष्ट गुण हैं। कम तापमान पर भी आक्सीजन की भारी मात्रा जज्ब करने की पानी में ताकत है। जमने से पहले पानी का अधिकतम घनत्व 4 सेन्टीग्रेड पर होता है जिसके कारण झीलें और नदियाँ तरल बनी रहती हैं और पानी की अपेक्षा कम घनता वाला होने के कारण बर्फ पानी की ही सतह पर तैरती रहती है और जब पानी जमने लगता है तब ताप की भारी मात्रा छोड़ता है जिसके कारण भी भरी सर्दियों में समुद्रों, झीलों और नदियों में जीवधारियों का जीवन सुरक्षित रहता है।” इस तथ्य से सुस्पष्ट है कि परमात्मा ने समस्त विश्व की रचना के पीछे अपना भद्र और शिवतर स्वरूप प्रकट किया है।

फ्रैंक ऐलन ने संसार का उद्भव अकस्मात् हुआ अथवा सप्रयोजन, इस तथ्य पर बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण विचार प्रकट किया है। वे कहते हैं कि, “कभी-कभी यह ख्याल प्रकट किया जाता है कि इस भौतिक विश्व के किसी सिरजनहार की जरूरत नहीं है। किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि विश्व की सत्ता है। इसके उद्भव के लिए चार हल प्रस्तुत किये जा सकते हैं। प्रथम, यह कि यह निरा भ्रम है- जो अभी कही गई बात के विपरीत है, द्वितीय, यह कि यह असत् से स्वयं उत्पन्न हो गया, तृतीय, यह कि इसकी उत्पत्ति हुई ही नहीं, यह सदा से विद्यमान है, और चतुर्थ, यह कि यह उत्पन्न किया गया है। जो पहला हल पेश किया गया है यदि उसे माना जाए तो उसका अभिप्राय यह होगा कि मानवीय चेतनता की तत्व मीमांसीय समस्या के अलावा हमारे लिए और कोई समस्या नहीं रहेगा जिसे हल करना हो, और वह चेतनता भी एक भ्रम मात्र ही होगी। दूसरा यह विचार भी कि पदार्थ और ऊर्जा के मेल से बना यह संसार अभाव में से पैदा हो गया इतना वाहियात है कि वह विचार करने योग्य ही नहीं है। तीसरा जो यह विचार है कि संसार सदा से है, इसकी भी एक बात सृष्टि की सकर्तृकता के सिद्धान्त से मिलती है या जो शक्तिगर्भित जड़ पदार्थ सदा से है, या कोई बनाने वाला सृष्टि का कर्ता सदा से है। जितनी बड़ी बौद्धिक कठिनाई एक विचार में है, उससे कम दूसरे विचार में नहीं है। किन्तु उष्मा गतिकीय (थर्मोडायनेमिक्स) के नियमों से पता लगता है कि, संसार ऐसी अवस्था को प्राप्त होता जा रहा है जबकि सभी पिण्डों का एक जैसा अत्यन्त कम तापमान रह जाएगा और उनमें शक्ति भी शेष नहीं रहेगी। तब प्राणियों का जीवन धारण करना असम्भव हो जाएगा। अनन्त काल में शक्ति समाप्ति की यह अवस्था कभी न कभी तो आएगी ही यह इतनी गर्मी देने वाला सूरज और तारे, असंख्य जीवधारियों को अपनी गोद में लपेटे यह पृथ्वी, इस बात के पक्के सबूत हैं कि सृष्टि का उद्भव किसी न किसी काल में, काल भी एक निश्चित अवधि में घटित हुआ है, और इसलिए इस विश्व का कोई न कोई रचयिता होना चाहिए। एक महान प्रथम कारण, एक शाश्वत, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान सृष्टा अवश्य होना चाहिए और यह सारा विश्व उसी की कारीगरी है।”

फ्रैंक ऐलन के मतानुसार “जीवन धारण करने योग्य बनने के लिए पृथ्वी ने जितने रूप बदले हैं वे इतने अधिक हैं कि उन्हें आकस्मिक नहीं माना जा सकता।” पृथ्वी का आकार आदि का नपा-तुला होना भी एक आश्चर्य का कारण है। वे कहते हैं कि, “कभी-कभी आकाश की विशालता की तुलना में पृथ्वी के छोटे आकार की चर्चा करके असमानता का उल्लेख किया जाता है किन्तु यदि पृथ्वी का आकार भी उतना ही छोटा होता, जितना चन्द्रमा का है, अर्थात् वर्तमान व्यास से उसका व्यास केवल 1/4, होता तो गुरुत्वाकर्षण की शक्ति (पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति छह गुना कम है) वायुमण्डल को सम्भाल सकती, न पानी को और तापमान भी इतना सीमातीत होता कि जीवन धारण करना कठिन हो जाता। यदि पृथ्वी का व्यास वर्तमान व्यास से दुगना कर दिया जाता तो बढ़ी हुई पृथ्वी की धरातल वर्तमान धरातल से चौगुना होता और गुरुत्वाकर्षण शक्ति दुगनी हो जाती। जिसका परिणाम यह होगा कि वायुमण्डल की ऊँचाई खतरनाक रूप से घट जाती और उसका दबाव भी 15 से 30 पौण्ड प्रति वर्ग इंच बढ़ जाता जिसका जीवन भर गम्भीर घातक असर पड़ सकता था। सर्दी वाले क्षेत्र खूब बढ़ जाते और प्राणियों के बसने योग्य क्षेत्र में भारी कमी हो जाती।

यदि और भी कल्पना करें कि पृथ्वी का आकार सूरज जितना बड़ा हो जाए, किन्तु उसकी सघनता ज्यों की त्यों कायम रहे, तो उसकी गुरुता 150 गुनी बढ़ जाएगी, वायुमण्डल की ऊँचाई घटकर केवल चार मील रह जाएगी, पानी का भाप बनकर उड़ना असम्भव हो जाएगा और वायु का दबाव प्रति इंच 1 टन से अधिक बढ़ जाएगा। 1 पौण्ड के प्राणी का वजन तब होगा 150 पौण्ड, और मानवों का आकार घटकर इतना छोटा हो जाएगा जैसे गिलहरी, इस प्रकार के प्राणियों में किसी भी प्रकार के बौद्धिक जीवन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। सूर्य से पृथ्वी की अब जितनी दूरी है यदि उस दूरी को दुगुना कर दिया जाए तो जितनी गर्मी अब मिलती है वह घटकर चौथाई रह जाएगी, अयन में घूमने का उसका वेग केवल आधा रह जाएगा, सर्दियों में उसका मौसम लम्बाई में दुगुना हो जाएगा और सब प्राणी ठण्ड के मारे जम जायेंगे। यदि सूर्य से पृथ्वी की वर्तमान दूरी आधी कर दी जाए तो सूर्य से मिलने वाली गर्मी चौगुनी हो जाएगी, अयन में घूमने का वेग दुगना हो जाएगा, ऋतुओं की लम्बाई आधी रह जाएगी और पृथ्वी इतनी तप्त हो जायगी कि सब प्राणी जल-भुन जायेंगे। इस समय पृथ्वी का जितना आकार है और सूर्य से जितनी दूरी है, तथा अयन में घूमने का उसका जो वर्तमान वेग है, उसी के कारण पृथ्वी पर जीवधारियों का रहना सम्भव है और तभी मानव-जाति शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक जीवन के वर्तमान आनन्दों का उपभोग कर सकती है। इस तरह यदि ब्रह्माण्ड के एक अत्यन्त लघुतम घटक पृथ्वी को ही देखने पर मानवीय बुद्धि चकरा जाती है तो पूरी सृष्टि में मौजूद क्रमबद्धता एवं नियमों को देखकर क्षुद्र मानवीय बुद्धि का उस ईश्वर के लिए “नेति-नेति” का सम्बोधन करना आश्चर्यजनक नहीं है।

संसार के महानतम वैज्ञानिकों में से एक लॉर्ड कैल्विन ने यह महत्वपूर्ण बात कही है- “यदि तुम काफी गम्भीरता से विचार करो, तो विज्ञान तुम्हें ईश्वर में विश्वास करने को बाध्य कर देगा।” जान क्लीव लैण्ड कॉथरान नामक एक गणितज्ञ और रसायन शास्त्री का यह कथन शानदार है, जिसमें उसने कहा है कि, “इस समय संसार के बारे में जो भी कुछ बुद्धिग्राह्य और जानकारी पूर्ण ढंग से ज्ञात है वह कुल मिलाकर यह प्रकट करता है कि वास्तविकता के कम से कम तीन साम्राज्य हैं। इनमें से एक है भौतिक (पदार्थगत) दूसरा है बौद्धिक (मानसिक) और तीसरा है रूहानी (आत्मिक)” कॉथरान ने परमाणु जगत की जानकारी जिस ढंग से दी है उसे समझकर कोई “तार्किक और नास्तिक” भी ईश्वर के अकाट्य नियमों को मानने के लिए बाध्य हो जाएगा। क्योंकि बिना कारण के कोई भी कार्य नहीं हो सकता। इसीलिए भारतीय नीतिज्ञों ने उस परमकारण, परमतत्व ईश्वर को सार्वभौमिक, सार्वकालिक नियम कहा है। प्रकारान्तर से ईश्वर को इन्हीं गुणों का समुच्चय भी कहा जाता है। वे कहते हैं कि “परमाणु की बनावट के ढाँचे की खोज से अब यह बात प्रकट हो गई है कि रासायनिक व्यवहार के इन सब उदाहरणों में निश्चित नियम काम करते हैं न कि अस्तव्यस्तता, नियमशून्यता या आकस्मिकता।

वस्तुतः आस्तिकता बुद्धिसंगत, तर्कसम्मत एवं प्रमाणों से प्रतिपाद्य है। जो भी सही अर्थों में वैज्ञानिक है, वह ईश्वरीय सत्ता को नकार नहीं सकता। विज्ञान-सद्ज्ञान व्यक्ति को नास्तिक नहीं, सही मायने में आस्तिक बनाता व यह सोचने हेतु मजबूर करता है कि इस सृष्टि का कोई न कोई कर्ता-धर्ता है अवश्य। वह व्यक्ति नहीं है, परब्रह्म है। सर्वव्यापी विधि-व्यवस्था है, नियामक तन्त्र है। काण्ट ने कहा है कि उसे अपनी सत्ता दिखाने के लिए किसी चमत्कार के प्रदर्शन को आवश्यकता नहीं क्योंकि उसकी सामान्य गतिविधियाँ ही यह प्रतिपादन कर सकने में समर्थ हैं।

(अखंड ज्योति 8/ 1986)


कोई टिप्पणी नहीं: